लेखक – राजकिशोर महतो (विधायक)
झारखंड आंदोलन की दर्जनों कहानियाँ अभी तक पूर्ण रूप से सामने नहीं आ सकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है कि किसी राष्ट्रपति ने खुद किसी राजनीतिक दल को बुलाकर झारखंड राज्य की मांग पर चर्चा की। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार आंदोलन की दिशा को बदलते रहे। इसमें झारखंड आंदोलन के नेताओं की भूमिका भी कम नहीं रही। ऐसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा दो भागों में बंट गया और झामुमो सोरेन और झामुमो मार्डी। झामुमो मार्डी हीं एक ऐसी पार्टी थी जो शुरू से लेकर अंत किसी भी तरह के परिषद के खिलाफ थी और एक हीं मांग थी सिर्फ अलग राज्य। मार्डी गुट के तत्कालीन सांसद और नेता राजकिशोर महतो ने आंदोलन की लड़ाई के एक हिस्से को अपनी लेखन से सामने लाया है। वर्त्तमान में श्री महतो धनबाद जिले के सिंद्री विधान सभा से विधायक हैं।
झारखंड आंदोलन के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत -
भारत वर्ष के महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता होने के पूर्व भारत के गृहमंत्री मनानीय एस.बी चह्वान से हमारी वार्ता 24 अगस्त 1992 तथा 11 सिसम्बर 1992 को हुआ था। वार्ता का विषय था झारखंडी की समस्या। और वार्ता में गृह मंत्रालय की ओर से बुलाया गया था झारखंड मुक्ति मोर्चा(सोरेन) और झारखंड मुक्ति मोर्चा(मार्डी) के नेताओं को। इसके अलावा अन्य झारखंड पार्टी सहित अन्य झारखंड नामधारी पार्टियों को। फिर बुलाया गया था अन्य दलो को – जनता दल, कांग्रेस आदि। 24 अगस्त को हमारी वार्ता हुई थी नई दिल्ली में। वार्ता के अलाव सर्वदलीय बैठक भी हुई। हमारी ओर से यानि झामुमो मार्डी की ओर से मैं और सिंहभूम पश्चिम से पार्टी अध्यक्ष और पार्टी सांसद कृष्णा मार्डी ने हिस्सा लिया था। उस सर्वदलिय बैठक में घूमा फिरा के एक बात कही जा रही थी कि झारखंड आंदोलन एक समस्या है और इस समस्या को दूर किया जाना चाहिये। यह भी कहा जाता रहा कि झारखंड आंदोलन सिर्फ 30 प्रतिशत आदिवासियों का आंदोलन है। अत: आदिवासियों के आंदोलन की समस्याओं को दूर कर दिया जाय तो इस आंदोलन का समापन हो सकता है और विकास की प्रक्रिया तेज हो सकती है।
इस बैठक में झामुमो(सोरेन) की तरफ से उसके सभी सांसद शैलेन्द्र महतो, सूरज मंडल, शिबू सोरेन और साइमन मरांडी ने हिस्सा लिया। फिर झारखंड पार्टी की तरफ से श्री राम दयाल मुंडा, श्री एन.ई.होरो और आजसू की ओर से बेसरा ने हिस्सा लिया था।
मैंने स्पष्ट रूप से यह बात रखी थी कि झारखंड अलग राज्य का आंदोलन कोई समस्या नहीं है। इसे समस्या के रूप में देखना ही गलत होगा। वास्तव में यह तो समस्या का निदान है। सभी को इस नजरीये को बदलना होगा। झारखंड आंदोलन समस्याओं से उपजा उसका निदान है। अत: अपनी दृष्टिकोण को हमने वहां उस बैठक में स्पष्ट रूप से रख दिया था कि झारखंड अलग राज्य का निर्माण किया जाये तभी जाकर उस क्षेत्र में समस्या का समाधान हो सकेगी।
झारखंड आंदोलन को कमजोर करने का षडयंत्र -
हमारी बैठके पहले तो अलग अलग दलों को अलग अलग बुलाकर की गई। फिर एक बार एक साथ। जाहिर था ऐसा क्यों किया गया था। ज्यादातर दल अब ढीले पड़ने लगे थे। सभी एक प्रकार से नीतिगत रूप से तैयार हो गये थे कि अगर आदिवासियों के लिए विशेष व्यवस्था की जायेगी तो झारखंड आंदोलन समाप्त हो जायेगा। पर मैं इसके घोर विरोध में था। इसके लिये मैंने प्रयाप्त कारण भी रखे थे। पर अन्दर ही अन्दर एक षडयंत्र चल रहा था जिसके अगुवा शिबू सोरेन थे यह मैंने पहले हीं भांप लिया था।
महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता यानि झामुमो(मार्डी) की बातचीत का ब्यौरा देने से पहले हम उस वार्ता की चर्ची करना आवश्यक समझते हैं जो दिनांक 11 सितंबर 1992, करीब 3 सप्ताह बाद पुन: माननीय गृहमंत्री जी के साथ मंत्रालय में बातचीत हुई।
जब मुख्यमंत्री लालू जी ने मुझे फोन किया
अलग अलग दलों की अलग अलग बैठके हुई। उस दिन 10 सितम्बर को हम रांची से हवाई जहाज से दिल्ली गये थे। पटना से बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और विपक्ष के नेता (कांग्रेस) जगन्नाथ मिश्र उसी जहाज पर था। मुख्यमंत्री यादव ने मुझे और कृष्णा मार्डी को बगल में बैठने को कहे लेकिन हमलोग पीछे के सीट पर बैठ गये। हमारे साथ पटना से आ रहे झामुमो मार्डी के विधायक सुमरित मंडल भी थे। जहाज में श्री लालू प्रसाद यादव और श्री जगन्नाथ मिश्रा दोनो रास्ते भर यही बात करते रहे कि झारखंड अलग राज्य का विरोध करना है। इस मुद्दे पर दोनो ही एक थे। हालांकि जनता दल नेता लालू प्रसाद ने राजनीति में श्री मिश्रा को पटखनी देकर ही मुख्यमंत्री बने थे।
उनकी बातें हमें भी सुनाई देती रही। हमलोग भी वार्ता कर रहे थे अलग राज्य को लेकर। दिल्ली हवाई अड्डे पर दुआ सलाम करते हम लालू प्रसाद से अलग हो गये। रात में 9 बजे के आस पास लालू जी का फोन आया। इधर उधर की बातें करने के पश्चात उन्होंने पूछा कि कल की वार्ता में आप क्या कहने वाले हैं। उन्हें शायद पता था कि वार्ता एक साथ नहीं अलग अलग होने वाली है। उन्होंने कहा कि आप तो 26 जिले झारखंड के समर्थक हैं। इसलिए बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के हिस्से को मिलाकर झारखंड की मांग करना उचिता होगा। मुझे यह बात समझ में नहीं आई कि लालू जी इस बात पर जोर क्यों दे रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि मार्डी गुट की मांग 26 जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य की है। मेरे मन में यह भी सवाल उठने लग कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार बिहार के ही झारखंड क्षेत्र को अलग कर कुछ योजना बना रही है। लालू प्रसाद यही प्रचारित कर रहे थे कि मार्डी गुट की मांग सही है। क्योंकि वे समझते थे कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। 26 जिले का झारखंड असंभव। सभी राज्यों का मामला था। क्या हम नहीं जानते थे कि क्या चार राज्यों के हिस्सों को अलग करना किसी भी सरकार के लिये कितना कठिन था। मीडिया के बन्धु तथा विरोधी दलों खासकर झामुमो सोरेन के लोग हमारी मांग को अव्यवहारिक तथा लालूजी के अप्रत्य़क्ष रुप से समर्थन लेते थे।
आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेना क्या किसी गुप्त समझौते का हिस्सा था -
एक और बड़ी विसंगति की बात थी। जब झारखंड आंदोलनकारी एक जुट थे और आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम मार्च 1992 में किया गया था, जब पूरा देश इस आर्थिक नाकेबंदी से प्रभावित हो गया था, उस समय भी गृह मंत्री एस वी चव्हान ने हमारे नेताओं को वार्ता करने के लिये दिल्ली बुलाया था। आखिर क्या बातें हुई थी इसका खुलास पार्टी के नेताओं ने नहीं किया था। किस कारण से आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम दस दिनों के बाद अचानक वापस ले लिया गया। सरकार का भी कोई व्यक्तव्य इस संबंध में नहीं था कि केन्द्र सरकार झारखंड राज्य देने के लिये सहमत है या नहीं।
ऐसे में सवाल यह भी था कि जब झामुमो दो धड़ो में बंट चुका था तब ऐसे में कमजोर लोगों के साथ अलग अलग वार्ता क्यों ? क्या केन्द्र सरकार और हमारे नेता शिबू सोरेन और सूरज मंडल के बीच आर्थिक नाकेबंदी वापस करने से पहले हीं कोई गुप्त समझौता हो चुका था? इतना निश्चित था कि अलग राज्य की शर्त पर झारखंड आंदोलन को वापस लेने का फैसला नहीं किया गया था। क्योंकि ऐसी स्थिति में इस बात को राज नहीं रखा जाता, सभी लोग खुलासा कर देते। क्षेत्र की जनता की यही मांग थी।
पर वार्ता के निर्णायक शर्तों को गोपनीय रखने का अर्थ ही था कि किन्हीं अन्य शर्तों पर आंदोलन को वापस लिया गया है। शर्त क्या थी इसका अंदाजा मैं लगाने की कोशिश कर रहा था। कुछ रोशनी पड़ने लगी थी, लालूजी के साथ फोन पर हुई बातचीत से। लालूजी नहीं चाहते थे कि सिर्फ बिहार को तोड़कर राज्य बने। इसलिये चार राज्यों के हिस्से को मिलाकर झारखंड की बात करते थे और हमसे करवाना चाहते थे।
लेकिन शिबू सोरेन आंदोलनकारी थे। वे चुप क्यों थे। क्या उन्हें कुछ और चाहिये था। मामला उलझाकर रखा गया था ताकि एक पूर्व निश्चित योजना के तहत एक विकल्प की और सबको ले जाया जाये और सबकी सहमति प्राप्त कर ली जाये। और वैसी हीं परिस्थिति पैदा की जा रही थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राव ने झारखंड राज्य की मांग को ठुकरा दिया - 11 सितंबर 1992 की वार्ता महत्वपूर्ण थी। हमसे बातचीत के बाद लालू जी को बुलाया गया था। सुबह अखबार में पढा कि लालूजी ने कहा था कि “बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा”। जबकि पूणे में गृहमंत्री ने व्यक्तव्य दिया था कि झारखंड की समस्या का समाधान अलग राज्य से ही संभव है। यही पर बात खत्म हो गई ऐसी बात नहीं है। चार दिनों के बाद माननीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव जी का बयान आया कि अभी झारखंड राज्य जैसी बनाने की कोई बात उनके दिमाग में नहीं है। आखिर गृहमंत्री का बयान के बाद प्रधानमंत्री का बयान क्यों आया। फिर सब कुछ रूक सा गया। कुछ दिनों बाद झारखंड राज्य के मामले को आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के पास भेज दिया गया जिसके मंत्री राजेश पायलट थे। गृह विभाग से विषय को हटा को लिया गया। यह बात साफ हो चुकी थी कि अब अलग राज्य नहीं बनेगा। आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय का विषय आंतरिक सुरक्षा, शांति व्यवस्था कायम करना था। कुछ दिनो बाद श्री चह्नान भी गृह मंत्रालय से हट गये थे।
महत्वपूर्ण बात यह थी कि शिबू सोरेन ने 11 जुलाई 1992 को लालू प्रसाद की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसी कारण मार्डी गुट का जन्म हुआ और मार्डी गुट के दो सांसद एवं नौ विधायकों ने लालू यादव को समर्थन जारी रखा। सवाल यह भी था कि प्रधानमंत्री राव ने गृहमंत्री के बयान पर ऐसा क्यों कहा कि अभी ऐसा कोई विचार उनके मन में नहीं था। (जारी)
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