Sunday, June 29, 2008

झारखंड राज्य के मुद्दे पर ........

राष्ट्रपति भवन की नजर थी मार्डी गुट के आंदोलन पर –
महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता क्यों हुई, इस बात की पृष्टभूमि गृहमंत्री के साथ वार्ता में तैयार हो गई थी। आखिर राजनैतिक वार्ता करने का काम तो राजनीतिज्ञों, विधायकों-सांसदो एवं मंत्रियों का काम है राष्ट्रपति का नहीं। ऐसी मेरी समझ है। उन्होंने स्वयं हमें बुलाया था और वार्ता की थी। आखिर झारखंड के इतने लंबे इतिहास में भारत के किसी राष्ट्रपति ने उसके किसी भी आंदोलनकारी को पहले नहीं बुलाया था। ऐसे में मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि हमें क्यों बुलाया गया था ?

भारतवर्ष के अन्दर ब्रिटिश शासन काल से लेकर आजादी के बाद 1992 तक कई नये राज्यों का गठन किया गया था। भारत वर्ष की स्वतंत्रता के कुछ ही वर्षों बाद 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया था और 1955 में इसकी रिपोर्ट आयोग द्वारा केन्द्र सरकार को सौंपी गई थी। 1956 में ‘दी रीआरगेनाइजेशन एक्ट 1956’ पार्लियामेंट से पारित किया गया जिसमें कई नई राज्यों के गठन का प्रावधान था। साथ ही कई राज्यों की सीमाओं में फेर-बदल के लिए कानून बनाये गये। आश्चर्य की बात है कि उसमें झारखंड अलग राज्य बनाने की सिफारिश आयोग द्बार नहीं की गई थी। सिर्फ पश्चिम बंगाल के पुरूलिया सबडीवीजन को तत्कालीन बंगाल में बिहार से अलगकर शामिल कर दिया गया।

राजघाट पर धरना देने की योजना -
5 मई 1993 दिल्ली शहर के रिंग रोड पर स्थित महात्मा गांधी यानि मोहनदास करमचंद गांधी, यह एक ऐसे महापुरूष का नाम है जिसकें संबंध में कुछ कहना हम जैसे लोगों के लिये बस की बात नहीं है। भारतवर्ष के दलित वर्ग के उत्थान की बात जब भी उठती है, हिन्दुस्तान के ब्राह्मवादी समाज व्यवस्था के छुआ-छुत, ऊंच-नीच की बात जब कही जाती है, महात्मा गांधी की याद आ जाती है। निराशा हताशा में डूबे हुए अधनंगे, भूखे, प्रताडित लोग ‘हरिजन बन जाते है, इनके स्पश मात्र से।

सुदूर जंगलो में सभ्य समाज तथा कथित सभ्य समाज से दूर, भारत की मुख्यधारा से परे, उपेक्षित लोग जिनकी मूर्तियां तक म्यूजियमों में नमूने के तौर पर रखी गई, वो जनजातियां भारतवर्ष के आदिवासी कहे जाने लगे, गांधीजी के कारण। बड़ी आशा और उमंग से वे लोग इनकी ओर ताकते हैं जो स्वयं पर हो रहे अनाचार, अत्याचार, शोषण और जुल्म सहते सहते थक चुके होते हैं। निराशा एवं हताशा जिनकी नसीब में लिख जाती है वे लोग इनकी शरण में आते हैं। अहिंसा का देवदूत।

तेज धूप के बावजूद राजघाट-धरने में मार्डी गुटे के सभी लोग जुटे -
झारखंड की जनता भी थक चुकी थी। हम भी निराश हो चले थे। बड़ी मुश्किल से हम यह निर्णय ले पाये थे 5 मई 1993 को राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर एक दिवसीय धरने का कार्यक्रम रखेगें। यह धरना निराहार, यहां तक कि पानी भी नहीं पियेंगे, इसी संकल्प के साथ हमारी पार्टी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (मार्डी) गुट ने यह निर्णय लिया था। हम दो सांसद श्री कृष्णा मार्डी और मैं था। हमारे साथ नौ विधायक श्री हबक गुड़ीया, श्री बहादुर उरांव, श्री हाडीराम सरदार, श्री अर्जुन राम, श्री टेकलाल महतो, श्री मंगल राम, डा. सब्ब अहमद, श्री सुमरित मंडल एवं हसन रिजवी थे। इनके अलावे उन वक्त पूर्व विधायक शिवा महतो आदि थे। हम बहुत बडी तादाद में राजघाट पर धरना नहीं दे सकते थे क्योंकि झारखंड से दिल्ली जाना वहां ठहरने एवं अन्य व्यवस्था करने लायक हमारी क्षमता नहीं थी। अत: हम पार्टी के केन्द्रीय समिति के सदस्य तथा प्रमुख लोग सौ की संख्या में दिल्ली आए थे और धरने पर बैठे थे।

उस दिन तेज धूप थी। आसमान जैसे आग उगल रहा था। तापमान 46 डिग्री सेलिसियस तक पहुंच गया था। गर्म हवा चेहरों को झुलसा रही थी। सुबह नौ बजे राजघाट के मुख्य प्रवेश द्वार के बाएं किनारे एक छोटा सा शामियाना धूप से बचने के लिये लगा लिया था। दरी बिछा दी गई थी। हम सभी हरे रंग की पगडी बांधे थे। कोई कोई अपनी बाहों में हरे रंग की पट्टियां बंधे थे। अपनी छाती पर भी कुछ लोग झारखंड अलग राज्य का बैनर बांधे हुए थे। उस पर हमारी पार्टी का नाम सफेद रंग से लिखा हुआ था। शामियाने के चारो ओर झंडा बैनर लगा दिये गये थे। कुल मिलाकर दृश्य आकर्षक बन गया था गया था। समाधि में आने जाने वाले लोगों की नजर हमारी तरफ उठ जाती थी। खासकर विदेशी पर्यटकों की नजरें हमें घुरती नजर आती।
धरने से पहले रोड दुर्घटना जैसी संकट से सामना करना पड़ा -
उस दिन मैं और कृष्णा मार्डी अपने अपने निवास से चले और साथ हो लिये थे। एक हीं गाड़ी में थे। बिहार भवन से एक एम्बेसडर गाड़ी मंगाई थी। जब हम गोल पोस्ट ऑफिस गुरूद्वारा बंगला साहिब के पास पहुंचे और कनाट प्लेस वाले रास्ते पर आगे बढे तो अचानक एक व्यक्ति हमारी गाड़ी के सामने आ गया। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारा। तो भी वह वयक्ति गाड़ी से टकरा गया और सड़क पर उछल गया और गिर पड़ा। हमारी तो जान सुख गई। पर थोड़ी ही देर मे वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। इतने में ही चारो ओर से हो हल्ला होने लगा। अगल-बगल से लोग चिल्लाने लगे। हम बड़ी असमंजस में थे। मैंने तुरंत निर्णय लिया और ड्राइवर को गाड़ी भगाने को कहा। मुझे डर था कि जनता या पुलिस की चक्कर में आ जाने से पूरे धरने का कार्यक्रम ही चौपट हो जायेगा। घटना स्थल से धरना स्थल की ओर हम तेजी से आगे बढे। पर एक पुलिस जीप जो पास ही खड़ी थी हमारे पीछे लग गई। पीछा करने लगी। हम रिंग रोड पर निकल आए थे। कोई उपाय पुलिस गाड़ी से बचने का दिखा नहीं। हमने ड्राइवर को सीधे संसद के अंदर चलने को कहा। हम तेज भागे और संसद के कम्पाउंड में घूस गये। संसद भवन के ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने को कह दिया। संसद सत्र चल रहा था। पुलिस की गाड़ी बिना अनुमति के संसद भवन के अंदर घुस नहीं सकती थी। हमारी गाडी में बिहार भवन का निशान लगा था। फिर एक घंटे बाद हम राजघाट की ओर चल दिये।

हमारी पार्टी का गठन हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। हम झामुमो से अलग हुए थे और अलग पार्टी बना ली थी। हमने अपने धरने की सूचना संसद भवन के पत्रकारों को दे दी थी। हम नहीं जानते थे कि प्रेस को कैसे मैनेज किया जाता है। हमारी मीडिया के लोगों से उतनी जान पहचान भी नहीं थी।
झारखंड राज्य की मांग को लेकर पहली बार ऱाजघाट पर धरना -
इस धरने की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि हमारी पार्टी झामुमो(मार्डी) से पहले किसी भी झारखंड नामधारी एवं झारखंड अलग राज्य की मांग करने वाले किसी भी दल ने अलग झारखंड राज्य के लिये कोई भी कार्यक्रम राजघाट पर नहीं किया गया था। दिल्ली में भी कोई प्रदर्शन अलग राज्य के लिए किसी दल ने नहीं किया था, झामुमो ने भी नहीं। सभी झारखंड क्षेत्र के अंदर ही हल्ला करते रहे। आंदोलन करते रहे। पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में वह भी महात्मा गांधी की समाधि पर यह कार्यक्रम हमने रखा था।

हमने राजघाट की समाधि पर माथा टेका। फूल मालाएं अर्पित की और धरने पर बैठ गये। शारीरिक रूप से उन दिनों में अस्वस्थ्य चल रहा था। एक तो मुझे हाई ब्लड प्रेसर का रोग लग चुका था और उन दिनों पाइल्स से भी जूझ रह था। मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाता था। दिन के दो बजते-बजते हम गर्मी से परेशान हो चुके थे। टेकलाल महतो, विधायक, मांडु बेहोश होने लगे। शायद लू लग गई थी। लिहाजा उन्हें वापस मेरे नार्थ एवेन्यू के फ्लेट में आराम करने भेज दिया गया। इस बीच हमारे धरना स्थल पर काफी लोग आ रहे थे और पूछताछ कर रहे थे। हम लोगों को समझा रहे थे कि यह ‘झारखंड’ क्या है ? उसका आंदोलन क्या है ? आदि आदि। विदेशी पर्यटको को ज्यादा उक्सुकता थी और वे ज्याद जिज्ञासु भी थे। मैं उन्हें अंग्रेजी में समझाने की कोशिश भी करता। ज्यादातर विदेशी यह समझ रहे थे कि शायद हम किसी प्रकार के विद्रोही थे और भारत सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। खैर। पूरा दिन किसी प्रकार बीत गया। मजे की बात तो यह हुई कि कुछ साधु –संत भी आकर हमारे शामियाने में विराज गये और साथ बैठे रहे।
मीडिया ने महत्व नहीं दिया -
लेकिन कोई प्रेस वाल या फिर टीवी चैनल वाला हमारे पास नहीं आया। मीडिया ने संभवत: हमारा नोटिस ही नहीं लिया। उनके लिये यह कोई महत्वपूर्ण बात ही नहीं रही होगी। झारखंड-झारखंड चिल्लाने वाले हम सांसदो और विधायकों को शायद महत्वपूर्णहीन समझ रहे होंगे। शाम छह बजे बोरिया बिस्तर समेट कर वापस आ गये। थकान के मारे लोग रात भर सोते रहे। पर हमारी हालत इतनी खराब थी कि दर्द से परेशान से था। पाइल्स का दर्द न तो उठने देता और न हीं बैठने। पर फिर भी किसी तरह सो गया।

सुबह उठे तो सभी अखबार देखने लगे। आशा थी कि हमारे धरने के संबंध में कोई समाचार छपा हो। पर हमें निराशा हाथ लगी। किसी भी अखबार में कोई बात नहीं छपी थी, इस धरने के बारे में। हमें आश्चर्य हुआ था कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो भागों में बंट जाने की कहानी तो बड़ी नमक मिर्च लगाकर छापी जाती रही थी पर आंदोलन के विषय में मीडिया चुप था। झारखंड राज्य के लिये यह पहला कार्यक्रम दिल्ली में क्या गया था। पर मीडिया ने इसे थोड़ा भी महत्व देना जरूरी नहीं समझा। नौ विधान सभा सदस्यों और दो सांसदों के साथ कई पूर्व विधायकों की टीम को कोई महत्व नहीं दिया गया था। शायद हमारा प्रयास बचकाना था या फिर महत्वहीन ही रहा होगा।

सांसद बनने से पहले हाई कोर्ट में सरकारी वकील था -
व्यक्तिगत रूप से राजनीति के आकाश में मैं अचानक उभर आया था। राजनीति से संबंध तो बहुत पुराना था पर संसदीय राजनीति में अचानक सामने आ गया था। अपने पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद गिरिडीह लोक सभा सीट खाली हो गई थी। मुझे किसी प्रकार झामुमो से टिकट मिल गया था। क्योंकि पिता झामुमो के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। वैसे मैं लोक सभा सदस्य बनने के लिए मैं ज्यादा इच्छुक भी नहीं था। पिताजी के निधन के समय मैं रांची में था और वहीं पटना हाई कोर्ट की खंडपीठ रांची में सरकारी वकील था। मेरा नाम हाई कोर्ट जज के लिए भी अमुमोदित था। पर मझे चुनाव में कूदना पड़ा। जीत जाने के महीने भर के अंदर हीं मैं अखबारों के सुर्खियों आ गया था। झामुमो का विभाजन मेरे कारण हुआ था। लालू प्रसाद की सरकार को गिरने से बचा लिया था। (जारी)

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