Monday, June 23, 2008

भाग - 3

जेल जाना मंजूर था लेकिन सिद्धांत से समझौत करना नहीं -
बिनोद बाबू को एडवाइजरी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया गया। ‘मीसा’ में ऐसा प्रावधान है। चाहते तो वे यहां छूट सकते थे। अगर वे झुक जाते, कोई अंडरटेकिंग करते को भविष्य में इस प्रकार की गति विधियों में लिप्त नहीं रहेंगे तो उन्हें छोड़ा जा सकता था।
पर उनहोंने अपने उपर लगाये गये आरोपो का कोई खंडन नहीं किया बल्कि वहां पर वे कांग्रेस सरकार द्वारा किये जार रहे जुल्म की बात सामने रखा। धनबाद में सूदखोरों, महाजनों और माफियाओं के खिलाफ बोला। बिनोद बाबू ने आरोप लगाया कि धनबाद के उपायुक्त असमाजिक तत्वों को बढावा दे रहे हैं और उनके खिलाफ लड़ने वालों को जेल भिजवा रहे हैं।

ऐसी स्थिति में जाहिर है कि एडवाइजरी बोर्ड के द्वारा उनको छोड़ना मुश्किल था। माननीय मुख्य न्यायधीश ने उन्हें याद भी दिलाया कि यह एडवाइजरी बोर्ड है। और उन्हें छोड़ भी सकती है पर उन्होंने अपने कथन या विचारों में कोई तबदीली नहीं किया। लिहाजा उन्हें एक साल तक जेल में रखने की सलाह बोर्ड ने दे दिया।

मेरी कोई बातचीत वहां पिताजी के साथ नहीं हो सकी। वे पुलिस के जवाने से घिरे रहे। उन्हें जीप में बैठाकर फिर वापस भागलपुर जेल ले जाया गया। वहां भी लोग उनसे मिलने के लिये पहुंचने लगे। खासकर आदिवासी इलाके के लोग। बाद में उन्हें पटना बांकीपुर सैंट्रल में स्थानांतरित कर दिया गया। पटना हाई कोर्ट में उनके परिचित वकील श्री राम नंदन सहाय सिन्हा के द्वारा रीट याचिका दायर किया था पर वह खारिज हो गई। फिर उनकी सलाह से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। मैं केस हार गया था। उस दिन फैसला सुनने के बाद जब मैं सिढियों पर बैठा तो कई विचार मेरे मन में कौंधने लगे।

लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में हीं रहकर निकालना पड़ेगा -
एक दिन जब मैं उनसे मिलने बांकीपुर जेल गया तो वहां पर उनके साथ और कई नौजवान को पाया। बाद में मुझे पता चला कि वे नौजवान थे- श्री लालू प्रसाद यादव, श्री सुबोध कांत सहाय, श्री शिवा नंद तिवारी एवं श्री सुशील मोदी। बिनोद बाबू उनलोगों के पिता के उम्र के थे। बाद में वहीं पर बिनोद बाबू से लालू यादव ने पूछ दिया था कि दादा आप कब छुटेंगे। और हम कब छुटेंगे। उन्होंने बिना रूके हीं जबाब दे दिया था कि लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में ही रहकर निकालना पड़ेगा। भले ही राजकिशोर सुप्रीम कोर्ट तक मामले को ले गया है। पर मुझे विश्वास नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट भी मुझे छोडेगा। श्री लालू प्रसाद ने पूछा ऐसा क्यों दादा? उन्होंने जबाब दिया थी कि यह बात तुम अच्छी तरह समझ लो कोर्ट-कचहरी में भी शासक वर्ग के लोग काबिज हैं। और डाउन ट्रोडन की लड़ाई को लड़ने वालों की बख्शा नहीं जायेगा। खासकर इस इमरजेंसी में तो बिल्कुल नहीं।

पिताजी का कथन सही निकला -
मैंने उनके कथन को बिलकुल सही पाया। महिनों चक्कर लगाने के बाद एवं न्यायलय में सैकड़ों ‘मीसा’ संबंधित मुकदमों को सुनने के बाद ‘मीसा’ कानून की जानकारी काफी हद तक हो गई। श्री आर के गर्ग, सीनीयर एडवोकेट उच्चतम न्यायलय के द्वारा मीसा कानून पर एक सप्ताह तक बहस की गई। संयोग से मैं दिल्ली ही गया था और पूरे सप्ताह तक उस बहस को सुना था। कई प्रावधानों के चलते मीसा कानून को ही चुनौती दी गई थी।

हमें लगा था कि जो फैसला पिताजी के केस में दिया गया वह कानून सम्मत नहीं था। मेरे दिल में एक जलन सी उठी और मैं छटपटा कर रह गया कि काश मैं अपनी बात उन जजों के सामने रख सकता। पर ऐसा संभव नहीं था। मैं वकील नहीं था। वकील होने पर भी क्या सुप्रीम कोर्ट में बहस कर सकता। यहां तो बड़े नामी गिरामी सीनीयर एडवोकेट ही बहस करते हैं। तो मेरे मन में भी जो भावना उठी थी उस पर तुषारपात हो गया था।

अब सवाल था क्या करुं। घर चलूं। वहां मां से क्या कहूंगा ? मुझसे छोटे सभी लोग पढ रहे थे। मुझसे छोटा नील कमल मेडीकल कॉलेज का विद्यार्थी था और पटना में राजेन्द्र नगर मे रहता था। हॉस्टल नहीं मिला था। पिछली बार तारा को पटना भेज कर मेडिकल कॉलेज के इन्ट्रेंस परीक्षा में बैठाया था पर सफल नहीं रही। इस बार भी बैठाना होगा यह तो अच्छा हुआ कि मेरी ससुराल पटना सिटी में है, सो ठहरने और खाने-पीने की कोई समस्या नहीं। बाकी भाई-बहन भी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे। घर का खर्च कैसे चलेगा यह सोच कर एक बार मन उदास हो गया। एक तरफ तो पिताजी बिनोद बाबू लाखों रूपये दान कर दिये स्कूल-कॉलेज बनवाने, झारखंड आंदोलन को आगे बढाने और कई लोगों को आर्थिक मदद करने में। लेकिन दूसरी ओर उनके मुकदमे लड़ने के लिये मुझे अपनी जमीन बेचने पड़ी। घर का खर्च अलग। पिताजी मां को कभी जरूरत से ज्यादा पैसे दिये नहीं। बेचारी अनपढ होते हुए भी समझदार थी। मैं एक ट्रक और एक छोटी मोटी माजाटक टाइल्स बनवाने की फैक्ट्री चलाता था। इस कारोबार और घर के किराये से काम चलाना पडता था। अपने छोटे छोटे बच्चों रजनीश और राजेश की चिंता किये बिना यहां-वहां दौड़ रहा था।

मेरी पत्नी ने हर मुसिबत में साथ दिया -
मेरी पत्नी क्या सोचती होगी? वह करोडपति घर की लड़की थी। जरूर अपनी किस्मत को कोस रही होगी। मेरी पत्नी एक करोड़पति घर की थी और मैं एक माइनिंग इंजीनियर। मैं सोचता रहा मैंने उन्हें क्या दिया? किस प्रकार का जीवन उसे दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने एक दिन भी मुझसे कोई शिकायत नहीं किया। अपनी पत्नी को याद कर उदास हो बैठा। मैं करीब दस मिनट तक ही सीढी पर बैठा रहा। मेरी तंद्रा दब टूटी, जब मेरे वकील ने मुझे पुकारा। मैं उठा और चुपचाप उनको नमस्ते करके चल दिया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं था -
सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला गलत था, ऐसा मेरा मानना था। मीसा कानून के तहत यह रुलींग है कि जो ग्राउंड नोटिस में दिये गये हों उनसे बाहर के तथ्यों पर निषेध आज्ञा आधारित नहीं होनी चाहिये। सरकार द्वारा दायर काउटंर एफिडेफिट यानि जबावी हलफनामें में यह साफ कहा गया था कि नोटिश में दिए गए मामलों के अलावे भी कोई मामले उनके विऱुद्ध लंबिंत थे और गंभीर पद्धति के थे। अत: उनको निषेध करने जेल में बंद करना जरूरी था।

साफ जाहिर है कि निषेद्याज्ञा उन मामलों के अलावे, अन्य मामलों पर आधारित था, जो नोटिस में दिया गया नहीं था। इसी आधार पर हमें केस जीत जाना था। इसके अलावे उपायुक्त धनबाद स्वयं ही इस बात पर निश्चित नहीं थे कि उन्हें राज्य के आंतरिक सुरक्षा को बचाने के लिये पकड़ा गया है या पब्लिक ऑर्डर को बचाने के लिए। इस आधार पर तो हमें केस जीत जाना ही था। पर ऐसा नहीं हुआ। यह केस आई.ए.आर. जनरल 1974 के सुप्रीम कोर्ट के पेज 2225 में रिपोर्ट की गई है। इस फैसले ने मेरे भीतर एक खलबली मचा दी थी। मुझे न्यायपालिका खोखली लगने लगी थी। इस काले लिबास के अंदर का सच क्या है? इसे जानकर रहूंगा ऐसा सोचने लगा। मुझे याद आया कि मैं 1971 में वकालत पढने के लिये रांची में दाखिला लिया था। पर पढ नहीं पाया था, तीन साल यूं हीं उलझनों में निकल गये थे।

मेरी मां सहित घर के सभी लोग उदास थे -
जब लौटकर घर आया और सभी को पता चला कि पिताजी अभी नहीं छुटेंगे, सभी उदास हो गये। कितने दिनों बाद छुटेंगे यह भी कहना मुश्किल था। उनके जेल की अवधि बढाई भी जा सकती थी। घर के बड़े लोग, बड़ा कौन अनपढ ‘मां’। वह चुपचाप अपने दैनिक कामों में लिप्त हो गई। मामले की गंभीरता का अंदाज छोटे भाई बहन को हो ही नहीं सकती थी। मैं कुछ दिनो तक बांकिपुर जेल भी पिताजी से मिलने नहीं जा सका।

अगर इस गेट को तोड़ दें तो दादाजी बाहर निकल आयेंगे -
एक दिन रजनीश को लेकन उनसे मिलने जेल चला गया। पत्नी पटना में थी तो बच्चे भी वहीं थे। रजनीश की उम्र साढे चार साल थी दादाजी से मिलने की जिद्द करने लगा। उसे लेकर जब जेल पहुंचा तो लोहे के बडे फाटक के सामने पहुंच कर रजनीश चकीत था। वह उस फाटक को गौर से देख रहा था उसकी कुंडी खुली और मैं अपने पुत्र रजनीश के साथ दाखिल हुआ। पिताजी सामने खड़े थे उन्हे खबर दे दी गई थी। रजनीश के चेहरे पर उत्सुकता एवं मुस्कुराहट थी। पिताजी ने उसे अपने सीने से लगा लिया। फिर जब अलग होने लगे तो रजनीश ने कहा था कि दादाजी, अगर इस गेट को तोड़ दे तो आप बाहर निकल जायेंगे। पिताजी यह सुनकर भौचक्के लह गये। उन्होंने मुझसे कहा कि दुबारा इसे लेकर जेल में नहीं आना। रजनीश के मन में दादाजी के प्रति जो लगाव था और उसे किस प्रकार बाहर निकाल सकते था, उसके शब्दो से जाहीर हो गया था। वह बेचारा क्या फाटक तोड़ता सुप्रीम कोर्ट भी उस फाटक को खुलवा नहीं सकी।

वकील बनने का फैसला
पिताजी को पूरी अवधि जेल में बितानी पड़ी। जब वे जेल से बाहर आये और धनबाद पहुंचे उस समय उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी। मैं लॉ की परीक्षा देने रांची गया हुआ था। और एक साथ सभी पार्टों की परीक्षा दे रहा था। सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले ने मुझे मजबूर कर दिया था कि मैं एक और फैसला ले लूं। लिहाजा वकील बनने का फैसला मैंने वहीं सुप्रीम कोर्ट की सीढियों पर बैठ कर लिया था।

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