Tuesday, September 15, 2009

ट्रेन यात्रा के दौरान राहूल गांधी पर पथराव

कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी जिस शताब्दी ट्रेन से यात्रा कर रहे थे उसी ट्रेन पर जमकर पथराव किया गया। यह पथराव अंबाला के पास किया गया। राहुल गांधी लुधियाना की यात्रा पर थे। लुधियाना से वापस आने के दौरान अंबाला के पास पथराव हुआ। शताब्दी को निशाना बना कर किये गये पथराव में ट्रेन के तीन डिब्बों सी-2, सी-4 और सी-7 डिब्बो पर पथराव हुआ। राहुल गांधी सी-3 में यात्रा कर रहे थे। खबर है कि इस पथराव में कुछ लोगों को चोटें भी आई है। खर्च में कमी कटौती करने के तहत वे रेल से यात्रा कर रहे थे।

जिस ट्रेन से राहुल गांधी यात्रा कर रहे थे उस पर हमला किसने किया इसकी जानकारी अभी तक तो नहीं हो पाई है लेकिन इतना जरूर है कि इसके पीछे राजनीतिक विरोधियों का हाथ हो सकता है। जिन लोगों ने पथराव कराये हैं वे लोग भले हीं अभी सामने नहीं है लेकिन इतना तय है कि वे लोग घटिया किस्म के लोग होंगे। जो सकारात्मक राजनीति नहीं कर सकते। और सकारात्मक राजनीति करने वालों को परेशान करते रहते हैं।
बीजेपी राहुल गांधी की यात्रा को नौटंकी बता रहे हैं और उनका दावा है कि इससे मंदी खत्म नहीं होगा। सवाल मंदी खत्म करने का नहीं है बल्कि एक मानसिकता का है कि आप देश के बारे में छोटी छोटी बातों की ओर ध्यान देते हैं या नहीं। बूंद-बूंद से हीं घड़ा भरता है। खैर यह बहस का अलग विषय है। जिन लोगों ने ट्रेन पर हमला किया है वो लोग एक योजना के तहत हीं हमला किया। यह तय लगता है। ऐसी गंदी राजनीति से बचनी चाहिये।

न्याय के लिये पढना और लडना जरूरी है।


राजकिशोर महतो, स्वर्गीय विनोद बिहारी महतो के ज्येष्ठ पुत्र हैं। इनके पिता विनोद बाबू झारखंड मुक्ति मोर्चा(झामुमो) के संस्थापक अध्यक्ष रहे। राजकिशोर महतो भी अपनी राजनीति की शुरूवात झामुमो से की। लेकिन वर्तमान में वे भाजप में हैं और धनबाद जिले के सिंद्री विधान सभा से विधायक हैं। इनका जन्म 23 सितंबर 1946 को हुआ। शुरू से मेधावी छात्र रहे श्री महतो ने धनबाद जिले स्थित विश्व प्रसिद्ध माइनिंग इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इसके बाद कानून की पढाई कर कानून की डिग्री हासिल की। पटना उच्च न्यायलय के रांची पीठ में 1990-91 के दौरान दो वर्षों तक सरकारी वकील भी रहे। 18 दिंसबर 1991 को अपने पिताजी के निधन के बाद उनके स्थान पर गिरिडीह संसदीय सीट से उपचुनाव जीतकर लोक सभा पहुंचे। इनके पिताजी गिरिडीह से सांसद थे। वे सांसद से बढकर एक क्रांतिकारी थे। उन्होंने झारखंड दब-कुचले में चेतना जगायी – पढो और लड़ो के नारे साथ। बहरहाल भाजपा विधायक राजकिशोर महतो से बातचीत का विवरण -

प्र. आपके पिताजी विनोद बाबू हमेशा कांग्रेस और भाजपा को पूंजीपतियों और उच्च वर्ग की पार्टी मानते रहे। इन पार्टियों से उन्होंने कभी हाथ नहीं मिलाया लेकिन आप भाजपा में शामिल हो गये क्यों ?
उ.
आप सही कह रहे हैं कि मेरे पिताजी विनोद बाबू ने कभी भी कांग्रेस और भाजपा से हाथ नहीं मिलाये। बीजेपी की स्थापना 1980 में हुई। इसलिये बीजेपी का सवाल नहीं उठता है। बीजपी कई नेताओं कैलाशपति मिश्र, सत्येद्र दुदानी से उनके अच्छे संबंध रहे। उनकी लडाई कांग्रेस पार्टी से थी। इमरजेंसी के दौरान उन्हें जेल जाना मंजूर था और जेल भी गये लेकिन कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाये। हालांकि कांग्रेस की ओर से भारी दबाव था कि वे कांग्रेस का साथ दें। जहां तक मेरा भाजपा में शामिल होने का सवाल है तो इसके पीछे का मूल मकसद सिर्फ अलग राज्य का गठन हीं था। मैं भाजपा में जरूर हूं लेकिन अपनी नीतियां कभी नहीं बदली। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने पार्टियां नहीं बदली लेकिन नीतियां बदल दी। राजनीतिक उठापटक और ऊहापोह के दौर में, मैं भाजपा में इसी शर्त पर शामिल हुआ कि अलग झारखंड राज्य का गठन जरूर किया जायेगा। और इस अलग झारखंड राज्य गठन हुआ।

प्र. आपने राजनीति की शुरूवात झामुमो से की। भाजपा में शामिल होने से पहले आप समता पार्टी में थे। आखिर पार्टी बदलते रहने का मूल कारण ?

उ. 9 अगस्त 1992 को झामुमो दो भागों में बंट गया। पहला, झमुमो(सोरेन) और दूसरा झामुमो(मार्डी)। सोरेन खेमे में चार सांसद(शिबू सोरेन, सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेन्द्र महतो) और नौ विधायक थे। मार्डी ग्रुप में दो सांसद(कृष्णा मार्डी, राजकिशोर महतो) और नौ विधायक थे। धीरे धीरे झामुमो मार्डि के कुछ नेता झमुमो सोरेन में शामिल हो गये। मैं भी 31 अक्टूबर 1998 को समता पार्टी में शामिल हो गया। इससे मार्डी ग्रुप का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। जहां तक समता पार्टी में शामिल होने सवाल है तो इसका मुख्य कारण था कि समता पार्टी के नेता जार्ज फर्नाडीस अलग राज्य गठन से संबंधित समिति के अध्यक्ष भी थे। नीतीश कुमार भी झारखंड अलग राज्य का जोरदार समर्थन कर रहे थे। अलग झारखंड राज्य के मामले में अन्य दलों का रुख साफ नहीं था। कई दल अलग राज्य का विरोध भी कर रहे थे। और मैं हमेशा हर हाल में और किसी भी कीमत पर अलग झारखंड राज्य के पक्ष में रहा। समता पार्टी में इसलिए शामिल हुआ कि समता पार्टी अलग झारखंड राज्य का समर्थन कर रही थी।

प्र. एक व्यक्तिगत सवाल। कहा जाता है कि आपका अपने पिताजी से कभी नहीं बना ?
उ. नहीं इस तथ्य में कोई सच्चाई नहीं है। किसी बात को लेकर पिताजी थोड़े नाराज हो गये थे वो भी थोड़े समय के लिये। यह सब कुछ हर घर में होता है। पिताजी के क्रांतिकारी आंदोलन में, मैं हमेशा उनका सहयोगी बना रहा। पिताजी अपने परिवार से ज्यादा झारखंडवासियों के हो चुके थे। परिवार के लिए समय निकालना उनके लिए बडा कठिन होता था। आदिवासी, दलित, पिछड़े या अन्य गरीब लोगों के साथ वे काफी घुल मिल जाते थे। उनकी समास्याओं को सुनते और हर संभव हल करने की कोशिश करते थे। लोग रात के बारह बजे भी अपनी समस्या लेकर चले आते थे। पर पिताजी कभी किसी को निराश नहीं किये। उनकी बातें सुनते और सुबह होने पर यथा संभव हल करने की कोशिश करते।

प्र. कहा जाता है कि विनोद बाबू को वर्तमान न्याय प्रणाली पर कभी भरोसा नहीं था ?
. जी हां, आपने सही सुना है। उन्हें उस समय की न्याय प्रक्रिया पर भरोसा नहीं था। अदालत से न्याय पाने में वर्षो लग जाते थे। उन्होंने नजदीक से देखा कि कोर्ट कचहरी गरीबों के लिए नहीं है। इसलिये वे गांवों में पंचायत कर सीधे फैसला करते थे। लोगों को न्याय जल्द मिल जाता था। प्रशासन ने यह कहना शुरू कर दिया था कि विनोद बाबू गांवों में समानांतर सरकार चला रहे हैं। लेकिन उनकी सोच दूर की थी। आज चालीस साल बाद सरकार भी वही करने लगी है। गांवों में लोक अदालत लगाई जाने लगी है। संगीन मामलों की सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट और विशेष अदालतें बनायी जाने लगी हैं।

प्र. क्या यह सही है कि विनोद बाबू हिंसा में विश्वास करते थे ?
उ.
पिताजी सीधे कार्रवाई में विश्वास करते थे। उन्होंने झारखंडवासियों के आत्मा को जगया। सिर उठाकर चलना सिखाया। शोषण के खिलाफ मरने मारने को तैयार किया। सरकारी हिंसा का जबाव उन्होंने हथियारबंद जुलूसों से दिया। गुंडो और महाजनो से सीधे लड़ने के लिये लोगो को प्रोत्साहित किया। क्योंकि उस समय कचहरी और प्रशासन झारखंड झारखंड के शोषितों, दलित-आदिवासी और पिछड़ो के हक में नहीं थी। पिताजी का कहना था कि तिल तिल कर मरने से अच्छा है एक ही बार मरो और मरने से पहले मार कर मरो।

प्र.‘पढो और लड़ो’ यह नारा विनोद बाबू ने दिया था। आखिर इसका वास्तविक तात्पर्य क्या है?
. इस नारे को पिताजी ने दिया था। ‘पढो और लड़ो’ का जो नारा दिया गया उसका अर्थ यही है कि अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए पढना भी जरुरी है ताकि आप समझ सके कि संविधान में नागरिक को क्या क्या अधिकार दिये गये हैं। पढ कर लोग इतनी समझ जरूर बना ले कि आपको कोई ठग न सके। उन्होने सिर्फ नारा हीं नहीं दिया बल्कि लोगों के लिए बुनियादी सुविधा की व्यवस्था भी करवाई। अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा उन्होने स्कूल-कालेज बनवाने में दान दे दिया। उन्होंने स्कूल – कालेज के अलावा जो भी प्राथमिक शिक्षा संस्थान खोले वे दूर दराज गांवो में खोले, पिछड़े इलाके में खोले, जहां शिक्षा के साधन नहीं थे। ये सारे संस्थान व्यवसायिक नहीं था फीस इतनी कम रखी गई थी कि संस्थान को चलाने के लिये उन्हें अपनी जेब से भी पैसे खर्च करने पड़ते थे। गांव गांव में शिक्षा का प्रसार करना उनका मूल मकसद था फिर हक के लए संघर्ष करना।

प्र. विनोद बाबू अपनी राजनीतिक जीवन की शुरूवात वामपंथ से की। आखिर क्या वजह रही झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन का?
उ.
पिताजी का मानना था कि जो राष्ट्रीय पार्टियां हैं। ये पार्टियां समाज में परिवर्तन के खिलाफ है। इन पार्टियों में रह कर कमजोर वर्ग के लिए कुछ नहीं किया जा सकता। वे छात्र जीवन से हीं वामपंथ से प्रभावित थे। कार्ल मार्क्स, लेनिन और माओत्से तुंग की नीतियों एवं कार्यशैली ने उन्हें काफी प्रभावित किया। इनके सिद्धांतो में विनोद बाबू को सामाजिक एवं क्रांति का रास्ता दिखाई दिया। लाल झंडे के बैनर तले वे झारखंड के शोषित जनता को जगाना चाहा। 1972 तक आते आते उन्होंने देखा कि लोग लाल झंडे के साथ अपने को जोड़ नहीं पा रहे हैं। इलाके में लगातार आदिवासी, हरिजन और पिछड़े वर्ग पर अत्याचार हो रहें हैं। कुछ ऐसी घटनाएं घटी कि विनोद बाबू ने एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया और झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ।

Monday, September 14, 2009

राष्ट्रपति शासन हटाओ झारखंड बचाओ – राजकिशोर

झारखंड में राष्ट्रपति शासन लागू है। वहां विधान सभा चुनाव कब होंगे ? इसका जवाब कांग्रेस पार्टी को छोड़ कोई नहीं जानता। चुनाव नहीं कराये जाने के विरोध में बीजेपी के सारे विधायक विरोध स्वरूप त्यागपत्र भी दे चुके हैं। देश भर में ब्लैक डायमंड कैपिटल के नाम से मशहूर धनबाद जिले के सिंद्री विधान सभा से बीजेपी विधायक राजकिशोर महतो ने झारखंड में जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग की है। श्री महतो ने कहा कि राष्ट्रपति शासन के बहाने कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार को बढावा दे रही है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति शासन के दौरान किस प्रकार की लूट मची है यह किसी से छिपा नही है।

राजकिशोर महतो ने यह भी कहा कि चुनाव नहीं कराने के पीछे कांग्रेस का डर है। क्योकिं राष्ट्रपति शासन पूरी तरह कांग्रेस के कमान में है। और राज्य के राज्यपाल रह चुके सिब्ते रजी के कार्यकाल में किस प्रकार की लूट खसोट हुई इससे कांग्रेस की बड़ी फजीहत हुई है। इतना हीं नहीं नरेगा के तहत झारखंड को मिलने वाली एक हजार करोड़ रूपये भी वापस कर दिय गये।

श्री महतो ने आरोप लगाया कि झारखंड में सब कुछ है लेकिन यहां एक साजिश के तहत झारखंड को पनपने नहीं दिया जा रहा है। ये सब कुछ बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं है। कबतक झारखंड की जनता को लुटा जाता रहेगा। यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले दिनों में जोरदार आंदोलन होगा। यह आंदोलन इतना जोरदार होगा जिसकी कल्पना केंद्र सरकार ने नहीं की होगी।

झारखंड के ताकतवर नेता माने जाने वाले श्री महतो ने कहा कि यदि झारखंड और यहां के लोगों के साथ न्याय नहीं किया गया और विकास के काम अडेंगे लगाये गये तो आर्थिक नाकेबंदी जैसी हालात पैदा कर दी जायेगी।

उन्होंने कहा कि राज्य में बाबूओं की सरकार हो गई है। कोई किसी की सुनता हीं नहीं है। इस तरह कब तक चलेगा। लोकतंत्र को दबाना किसी केंद्रीय सरकार की सेहत के लिये अच्छा नहीं होगा।

विधायक महतो ने कहा कि कांग्रेस यह हीं नहीं समझ पा रही है कि झारखंड में वह अकेले चुनाव लड़े या सहयोगी दलों के साथ। यदि वह झामुमो से तालमेल करती है तो मुख्यमंत्री का पद झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन को देना होगा या उनके बेटे हेमंत सोरेन को। अकेले लडती है तो कितने सीटें मिलेंगी कहना मुश्किल है। राजद के साथ उनका छतीस का आंकड़ा हो चुका है। यदि झारखंड में राजद को साथ रखती है तो केंद्र में जगह देनी होगी। श्री महतो ने कहा कि उन्हें लगता है कि कांग्रेस गठबंधन के निष्कर्ष निकालने पर लगी हुई है और राष्ट्रपति शासन के दौरान हो रहे भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश के तहत हीं जानबूझ कर झारखंड में चुनाव कराने से बच रही है। लेकिन कब तक।

Thursday, September 3, 2009

जीने की लड़ाई का मंच है पीपुल्स वार ग्रूप। नक्सल समस्याएं और इसके समाधान के रास्ते

राजेश कुमार

देश की केंद्रीय सरकार और राज्य की सरकारों को युद्व स्तर पर विकास का काम करने होंगे। नहीं तो नक्सली गतिविधियां तेजी से पैर पसारता जायेगा। सिर्फ नक्सलियों को अपराध की श्रेणी में खड़ा कर और बडे पैमाने पर कमांडो कार्रवाई के बल पर आप उसपर काबू नहीं पा सकते। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि नक्सली हिंसा क्यों होती है और इसे अपराध की किस श्रेणी में रखा जाये।

नक्सल गतिविधियों से जुडे लोगों को आप जम्मू-कश्मीर के आंतकवादियों से नहीं जोड़ सकते। क्योंकि वे कोई अलग देश की मांग नहीं कर रहें हैं। और न हीं वे पंजाब के आंतकवादियों की तरह कोई अलग खलिस्तान की मांग कर रहे हैं। और न हीं वे कोई माफिया गिरोह चला रहे हैं और न अन्य कोई अपराध का सींडीकेट। इनकी लड़ाई न तो धर्म के आधार पर और न हीं जात के आधार पर और न हीं भाषा के आधार पर। नक्सल से सभी धर्म, जात और भाषा के लोग जुडे़ हैं। इसलिये इसका प्रसार पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, यूपी, छतिसगढ, आंध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक है।

यह पीपुल्स वार का हिस्सा है। हो सकता है कि नक्सल के नाम पर कुछ लोग गलत काम कर रहें हों इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सबसे पहले यह साफ कर दूं की कि मैं किसी हिंसा को समर्थन नहीं कर रहा हूं बल्कि एक समस्या जो धीरे धीरे विकराल रूप ले जाता रहा है उस ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं ताकि आप संक्षेप में वास्तिवक समस्याओं को समझ सके और उसका समाधान निकाल सकें। क्योंकि इससे एक ओर जहां कई लोग मारे जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर विकास की गतिविधियां अवरूद्व हो रही है।

समस्याएं –
1.जमीन की समस्याएं
– गरीब लोगों की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने का सिलसिला जारी है। इस काम में स्थानीय पुलिस के कुछ लोग पैसे लेकर गरीब आदमी को उसी की जमीन से बेदखल कर रहें हैं। और ताकतवर लोग जाली कागजात के बल पर गरीब की जमीन को अपने नाम पर करवा रहें हैं। इस पर रोक लगाने की सख्त जरूरत है। इस तरह की घटनाएं हिंसा को जन्म देती है।

2.मजदूरी और इज्जत की समस्याएं – जमींदार और महाजन गरीबों से काम तो करवा लेतें हैं लेकिन मजदूरी के नाम पर उन्हें सिर्फ पांच से दस रुपये थाम दिया जाता है। अपनी वास्तविक मजदूरी की मांग करने पर उसकी मार-पिटाई करते हैं। और उसके परिवार के इज्जत के साथ खिलवाड भी करते हैं। जब लोग जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करते हैं ऐसे में हिंसा का जन्म होता है।

3.जमीन पर उद्योपतियों के लिये सरकारी कब्जा – विकास के नाम पर सरकार द्वारा जमीन हडप लेना। यदि सरकार वह जमीन अपने पास रखती है तो एक बात समझ में आती है। लेकिन यहां तो खेल पूरी तरह गलत तरीकों से होता है। सरकार गरीब ग्रामीणों का जमीन लेकर कल-कारखाने बसाने के नाम पर सारी जमीनें सस्ते दर में उद्योपतियों को दे देती है। यहां एक बात समझनी होगी कि यदि रूपये के बिना कल-कारखाने नहीं लग सकते हैं तो जमीन के बिना कल-कारखाने कैसे लग सकते हैं। इसलिये विकास के नाम पर आपको जमीन चाहिये तो जो जमीन के वास्तिवक मालिक हैं उन्हें भी कंपनी के लाभांश में हिस्सा मिलना चाहिये। ऐसा प्रस्ताव न देकर जबरदस्ती जमीन हडपने की कोशिश भी हिंसा को जन्म देती है।

4.गांवों की ओर ध्यान न देना – केंद्र और राज्य सरकारें ग्रामीण शिक्षा, स्वास्थ्य और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये जितना बजट पास करती है उसका 70 प्रतिशत हिस्सा नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के पॉकेट में चला जाता है। ऐसा आजादी के कुछ साल बाद से हीं होता आ रहा है। ऐसे में ग्रामीण युवा क्या करें। अशिक्षा, बेरोजगारी और सरकारी बाबूओ की भेदभाव के कारण भी हिंसा का जन्म होता है। जितना धन स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क के नाम पर निकाला गया है उसका आधे प्रतिशत भी इस्तेमाल होता तो गांवों में खुशयाली आ जाती।

5.जातीय हिंसा – गांवों में समाज के नीचले तबके के लोगों को बद से बदतर जिंदगी गुजारनी पड़ती है। उन्हें हर स्तर पर अपमान सहना पडता है। उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता रहा। स्कूल जाने से रोका गया। जो स्कूल गया उसे मारा पीटा गया। इस ओर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। परिणाम स्वरूप समाज नीचले पायदान पर जी रहे लोगों ने अपनी रक्षा के लिये हिंसा का सहारा लिया।

6.ऊंची जाती के लोगों की स्थिति बिगड़ी – मंडल-कंमडल के दौर में उठे बंवडर ने देश की राजनीति की दिशा हीं बदल दी। पिछडों का उभार तेजी से हुआ। मंडल आयोग के सिफारिश का जितना विरोध हुआ उतने हीं पिछडे वर्ग के लोग गोलबंद हुए। परिणाम स्वरूप जहां राज्य स्तर की राजनीति में पहले ऊंची जातियों का दबदबा रहता था वह स्थान अब पिछडे और दलित-आदिवासी समाज ने लिया है। सत्ता से जुडे ऊंची जाति के लोग अपने को मंडल-कमंडल की राजनीति में एडजस्ट कर लिया लेकिन आम ग्रामीण ऊंची जाति के लोंगो की स्थिति खराब हो गई। वे लोग जिन कामों के खराब समझते थे वे खूद करने लगे। उन्हें भी अपनी परिवार की इज्जत बचाने के लिये मशक्कत करनी पड़ी। ऐसी स्थिति ने भी हिंसा को जन्म दिया।

7.पुलिस और न्यायलय के खिलाफ आक्रोश – गरीब आदमियों में यह धारणा घर कर चुकी है कि थाने और न्यायलय में उन्हें कभी न्याय नहीं मिलेगा। क्योंकि इन जगहों पर पैसे का बोलबाला होता है। न्याय प्रकिया इतना लंबा और खर्चिला है वहां गरीबों को न्याय नहीं मिल सकता। न्यायधीश भी क्या करेंगे। उनकी संख्या कम है। कुछ पुलिस वाले ऐसे हैं जो सिर्फ लुटना हीं जानते हैं। उनके कारण पुलिस बदनाम हो चुकी है। इस क्षेत्र में भी सुधार की जरूरत है नहीं तो पीपुल्स वार पर काबू नहीं पाया जा सकेगा।

उपरोक्त कारणों से हिंसा बढती गई। सभी लोग तथकथित सिस्टम के सताये हुए लोग थे। ऐसा देश के अधिकांश राज्यों में हो रहा है। नक्सल का उदय पश्चिम बंगाल के नक्सल बाडी में हुआ। और आज आठ राज्यों तक फैल चुका है। जुल्म के खिलाफ सताये हुए लोगों को एक प्लैटफॉर्म मिलने लगा। और जो लोग जुल्म के खिलाफ लड़ने लगे उन्हें नक्सली कहा जाने लगा। धीरे धीरे सताये हुए लोगों की ताकत इतनी बढ चुकी है कि वे तथकथित सिस्टम को चुनौती देने लगे हैं। जिसमें निर्दोष पुलिस वाले भी मारे जा रहे हैं।

अब सवाल है कि इसका समधान क्या है?
मुझे लगता है कि इसका समधान है। इसके लिये निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिये।
1.संघर्ष विराम समझौता - नक्सली नेताओं से बातचीत कर संघर्ष विराम का समझौता होना चाहिये एक समय सीमा के अंदर। यदि वे नहीं मानते हैं तो फिर सरकार को अपनी कार्रवाई शुरू करनी चाहिये। लेकिन इसमें ध्यान रखना होगा कि निर्दोष लोगों के खिलाफ कार्रवाई न हो।
2.विकास युद्व स्तर पर हो – सरकार को एक साथ दो काम करने होंगे। पुलिस कार्रवाई के साथ विकास का काम भी युद्व स्तर पर होना चाहिये। जैसे सड़क, बिजली, पीने का पानी, हॉस्पिटल, स्कूल और रोजगार के व्यवस्था करने होंगे। यदि यह काम एक साल के अंदर नहीं हो पातें हैं। और सिर्फ कमांडो कार्रवाई होती है तो नक्सल आंदोलन यानी पीपुल्स आंदोलन और तेजी से बढेगा। कंमाडो कार्रवाई के दौरान हो सकता है नक्सली गतिविधियां थोडे समय के लिये रूक जाये लेकिन विकास के काम के अभाव में पीपुल्स आंदोलन और तेजी से बढेगा। क्योंकि नक्सल प्लैटफॉर्म के सहारे लड़ रहे लोगों को अपराधी की श्रेणी में नहीं रख सकते।

3. पुलिस - प्रशासन को ईमानदार होना होगा – अन्याय करने वालों के खिलाफ पुलिस को सख्त कार्रवाई करनी होगी व्यवहार में। ऐसा नहीं करने पर आप पीपुल्स वार पर नियंत्रण नहीं कर सकेंगे। आम पुलिस ईमानदार है लेकिन कुछ टॉप के लोग हैं जो अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं हैं, उन्हें भी अपने काम के प्रति ईमानदार होना होगा। यदि टॉप पद बैठे पुलिस अधिकारी ईमानदार नहीं होंगे तो नीचे के अधिकारी से उम्मीद करना मुश्किल होगा। पुलिस आम जनता की रक्षा के लिये है।
सरकार क्या सोचती है पीपुल्स आंदोलन से जुडे लोगों के बारे में। यह तो वही जाने लेकिन जिस तेजी से नक्सल प्रभाव बढ रहा है उससे यही लगता है कि गरीब आम ग्रामिण जनता का उन्हें जबरदस्त समर्थन है। इसमें सभी धर्म, जाति, क्षेत्र के लोग शामिल हैं।


इस समय देश का नेतृत्व ईमानदार लोगों के हाथों में हैं। चाहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों, कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनियां गांधी या विरोधी पार्टियों के नेता वामपंथ के प्रकाश कारत एंव ए. वी. वर्धन और जेडीयू के शरद यादव । ये देश के ईमानदार नेताओं में से हैं। बस जरूरत है कि राज्य सरकारों से तालमेल कर ग्रामिण इलाकों में तेजी से विकास का काम करने की। तभी जाकर नक्सल के हिंसक गतिविधियों पर काबू पाया जा सकता है। नहीं तो नहीं।

राजनेताओं के सिर्फ ईमानदार होने से काम नहीं चलेगा। इच्छा शक्ति भी दिखानी होगी विकास के मामले में। गरीबों के बीच जाकर काम करना होगा। इस मामले में युवा कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अच्छी पहल की है। गरीबों से सीधे संवाद कर उनके मानसिक गुलामी को तोड़ने की कोशिश की। जो सदियों से चली आ रही थी। जेडीयू के शरद यादव इस लडाई को पहले से हीं लडते आ रहे हैं।

जिस प्रकार राजनीति, प्रशासन और न्यायलय के क्षेत्र में कुछ लोगों के भ्रष्ट होने के कारण सरकारी तंत्र तार तार हो रहा है उसी प्रकार पीपुल्स वार को कुछ लोग गलत रूप देने की कोशिश कर रहे हों लेकिन आखिर में देश का विकास हीं अवरूद्व हो रहा है। ऐसे में ईमानदार कोशिश की जरूरत है। विकास का मुहिम ईमानदार ब्यूरोक्रेट्स के बिना संभव नहीं होगा। उन्हें साथ लेने की जरूरत है।


नक्सल से अधिकांश वही लोग जुडे हैं जिनके साथ हमारे सिस्टम ने न्याय नहीं किया। वे लोग नक्सल की राह को जीने की लडाई लडने का मंच मानते हैं। इस संघर्ष को राजनीति के ईमानदार नेतृत्व हीं रोक सकता है।