Thursday, September 3, 2009

जीने की लड़ाई का मंच है पीपुल्स वार ग्रूप। नक्सल समस्याएं और इसके समाधान के रास्ते

राजेश कुमार

देश की केंद्रीय सरकार और राज्य की सरकारों को युद्व स्तर पर विकास का काम करने होंगे। नहीं तो नक्सली गतिविधियां तेजी से पैर पसारता जायेगा। सिर्फ नक्सलियों को अपराध की श्रेणी में खड़ा कर और बडे पैमाने पर कमांडो कार्रवाई के बल पर आप उसपर काबू नहीं पा सकते। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि नक्सली हिंसा क्यों होती है और इसे अपराध की किस श्रेणी में रखा जाये।

नक्सल गतिविधियों से जुडे लोगों को आप जम्मू-कश्मीर के आंतकवादियों से नहीं जोड़ सकते। क्योंकि वे कोई अलग देश की मांग नहीं कर रहें हैं। और न हीं वे पंजाब के आंतकवादियों की तरह कोई अलग खलिस्तान की मांग कर रहे हैं। और न हीं वे कोई माफिया गिरोह चला रहे हैं और न अन्य कोई अपराध का सींडीकेट। इनकी लड़ाई न तो धर्म के आधार पर और न हीं जात के आधार पर और न हीं भाषा के आधार पर। नक्सल से सभी धर्म, जात और भाषा के लोग जुडे़ हैं। इसलिये इसका प्रसार पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, यूपी, छतिसगढ, आंध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक है।

यह पीपुल्स वार का हिस्सा है। हो सकता है कि नक्सल के नाम पर कुछ लोग गलत काम कर रहें हों इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सबसे पहले यह साफ कर दूं की कि मैं किसी हिंसा को समर्थन नहीं कर रहा हूं बल्कि एक समस्या जो धीरे धीरे विकराल रूप ले जाता रहा है उस ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं ताकि आप संक्षेप में वास्तिवक समस्याओं को समझ सके और उसका समाधान निकाल सकें। क्योंकि इससे एक ओर जहां कई लोग मारे जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर विकास की गतिविधियां अवरूद्व हो रही है।

समस्याएं –
1.जमीन की समस्याएं
– गरीब लोगों की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने का सिलसिला जारी है। इस काम में स्थानीय पुलिस के कुछ लोग पैसे लेकर गरीब आदमी को उसी की जमीन से बेदखल कर रहें हैं। और ताकतवर लोग जाली कागजात के बल पर गरीब की जमीन को अपने नाम पर करवा रहें हैं। इस पर रोक लगाने की सख्त जरूरत है। इस तरह की घटनाएं हिंसा को जन्म देती है।

2.मजदूरी और इज्जत की समस्याएं – जमींदार और महाजन गरीबों से काम तो करवा लेतें हैं लेकिन मजदूरी के नाम पर उन्हें सिर्फ पांच से दस रुपये थाम दिया जाता है। अपनी वास्तविक मजदूरी की मांग करने पर उसकी मार-पिटाई करते हैं। और उसके परिवार के इज्जत के साथ खिलवाड भी करते हैं। जब लोग जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करते हैं ऐसे में हिंसा का जन्म होता है।

3.जमीन पर उद्योपतियों के लिये सरकारी कब्जा – विकास के नाम पर सरकार द्वारा जमीन हडप लेना। यदि सरकार वह जमीन अपने पास रखती है तो एक बात समझ में आती है। लेकिन यहां तो खेल पूरी तरह गलत तरीकों से होता है। सरकार गरीब ग्रामीणों का जमीन लेकर कल-कारखाने बसाने के नाम पर सारी जमीनें सस्ते दर में उद्योपतियों को दे देती है। यहां एक बात समझनी होगी कि यदि रूपये के बिना कल-कारखाने नहीं लग सकते हैं तो जमीन के बिना कल-कारखाने कैसे लग सकते हैं। इसलिये विकास के नाम पर आपको जमीन चाहिये तो जो जमीन के वास्तिवक मालिक हैं उन्हें भी कंपनी के लाभांश में हिस्सा मिलना चाहिये। ऐसा प्रस्ताव न देकर जबरदस्ती जमीन हडपने की कोशिश भी हिंसा को जन्म देती है।

4.गांवों की ओर ध्यान न देना – केंद्र और राज्य सरकारें ग्रामीण शिक्षा, स्वास्थ्य और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये जितना बजट पास करती है उसका 70 प्रतिशत हिस्सा नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के पॉकेट में चला जाता है। ऐसा आजादी के कुछ साल बाद से हीं होता आ रहा है। ऐसे में ग्रामीण युवा क्या करें। अशिक्षा, बेरोजगारी और सरकारी बाबूओ की भेदभाव के कारण भी हिंसा का जन्म होता है। जितना धन स्वास्थ्य, शिक्षा और सड़क के नाम पर निकाला गया है उसका आधे प्रतिशत भी इस्तेमाल होता तो गांवों में खुशयाली आ जाती।

5.जातीय हिंसा – गांवों में समाज के नीचले तबके के लोगों को बद से बदतर जिंदगी गुजारनी पड़ती है। उन्हें हर स्तर पर अपमान सहना पडता है। उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता रहा। स्कूल जाने से रोका गया। जो स्कूल गया उसे मारा पीटा गया। इस ओर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया। परिणाम स्वरूप समाज नीचले पायदान पर जी रहे लोगों ने अपनी रक्षा के लिये हिंसा का सहारा लिया।

6.ऊंची जाती के लोगों की स्थिति बिगड़ी – मंडल-कंमडल के दौर में उठे बंवडर ने देश की राजनीति की दिशा हीं बदल दी। पिछडों का उभार तेजी से हुआ। मंडल आयोग के सिफारिश का जितना विरोध हुआ उतने हीं पिछडे वर्ग के लोग गोलबंद हुए। परिणाम स्वरूप जहां राज्य स्तर की राजनीति में पहले ऊंची जातियों का दबदबा रहता था वह स्थान अब पिछडे और दलित-आदिवासी समाज ने लिया है। सत्ता से जुडे ऊंची जाति के लोग अपने को मंडल-कमंडल की राजनीति में एडजस्ट कर लिया लेकिन आम ग्रामीण ऊंची जाति के लोंगो की स्थिति खराब हो गई। वे लोग जिन कामों के खराब समझते थे वे खूद करने लगे। उन्हें भी अपनी परिवार की इज्जत बचाने के लिये मशक्कत करनी पड़ी। ऐसी स्थिति ने भी हिंसा को जन्म दिया।

7.पुलिस और न्यायलय के खिलाफ आक्रोश – गरीब आदमियों में यह धारणा घर कर चुकी है कि थाने और न्यायलय में उन्हें कभी न्याय नहीं मिलेगा। क्योंकि इन जगहों पर पैसे का बोलबाला होता है। न्याय प्रकिया इतना लंबा और खर्चिला है वहां गरीबों को न्याय नहीं मिल सकता। न्यायधीश भी क्या करेंगे। उनकी संख्या कम है। कुछ पुलिस वाले ऐसे हैं जो सिर्फ लुटना हीं जानते हैं। उनके कारण पुलिस बदनाम हो चुकी है। इस क्षेत्र में भी सुधार की जरूरत है नहीं तो पीपुल्स वार पर काबू नहीं पाया जा सकेगा।

उपरोक्त कारणों से हिंसा बढती गई। सभी लोग तथकथित सिस्टम के सताये हुए लोग थे। ऐसा देश के अधिकांश राज्यों में हो रहा है। नक्सल का उदय पश्चिम बंगाल के नक्सल बाडी में हुआ। और आज आठ राज्यों तक फैल चुका है। जुल्म के खिलाफ सताये हुए लोगों को एक प्लैटफॉर्म मिलने लगा। और जो लोग जुल्म के खिलाफ लड़ने लगे उन्हें नक्सली कहा जाने लगा। धीरे धीरे सताये हुए लोगों की ताकत इतनी बढ चुकी है कि वे तथकथित सिस्टम को चुनौती देने लगे हैं। जिसमें निर्दोष पुलिस वाले भी मारे जा रहे हैं।

अब सवाल है कि इसका समधान क्या है?
मुझे लगता है कि इसका समधान है। इसके लिये निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिये।
1.संघर्ष विराम समझौता - नक्सली नेताओं से बातचीत कर संघर्ष विराम का समझौता होना चाहिये एक समय सीमा के अंदर। यदि वे नहीं मानते हैं तो फिर सरकार को अपनी कार्रवाई शुरू करनी चाहिये। लेकिन इसमें ध्यान रखना होगा कि निर्दोष लोगों के खिलाफ कार्रवाई न हो।
2.विकास युद्व स्तर पर हो – सरकार को एक साथ दो काम करने होंगे। पुलिस कार्रवाई के साथ विकास का काम भी युद्व स्तर पर होना चाहिये। जैसे सड़क, बिजली, पीने का पानी, हॉस्पिटल, स्कूल और रोजगार के व्यवस्था करने होंगे। यदि यह काम एक साल के अंदर नहीं हो पातें हैं। और सिर्फ कमांडो कार्रवाई होती है तो नक्सल आंदोलन यानी पीपुल्स आंदोलन और तेजी से बढेगा। कंमाडो कार्रवाई के दौरान हो सकता है नक्सली गतिविधियां थोडे समय के लिये रूक जाये लेकिन विकास के काम के अभाव में पीपुल्स आंदोलन और तेजी से बढेगा। क्योंकि नक्सल प्लैटफॉर्म के सहारे लड़ रहे लोगों को अपराधी की श्रेणी में नहीं रख सकते।

3. पुलिस - प्रशासन को ईमानदार होना होगा – अन्याय करने वालों के खिलाफ पुलिस को सख्त कार्रवाई करनी होगी व्यवहार में। ऐसा नहीं करने पर आप पीपुल्स वार पर नियंत्रण नहीं कर सकेंगे। आम पुलिस ईमानदार है लेकिन कुछ टॉप के लोग हैं जो अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं हैं, उन्हें भी अपने काम के प्रति ईमानदार होना होगा। यदि टॉप पद बैठे पुलिस अधिकारी ईमानदार नहीं होंगे तो नीचे के अधिकारी से उम्मीद करना मुश्किल होगा। पुलिस आम जनता की रक्षा के लिये है।
सरकार क्या सोचती है पीपुल्स आंदोलन से जुडे लोगों के बारे में। यह तो वही जाने लेकिन जिस तेजी से नक्सल प्रभाव बढ रहा है उससे यही लगता है कि गरीब आम ग्रामिण जनता का उन्हें जबरदस्त समर्थन है। इसमें सभी धर्म, जाति, क्षेत्र के लोग शामिल हैं।


इस समय देश का नेतृत्व ईमानदार लोगों के हाथों में हैं। चाहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों, कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनियां गांधी या विरोधी पार्टियों के नेता वामपंथ के प्रकाश कारत एंव ए. वी. वर्धन और जेडीयू के शरद यादव । ये देश के ईमानदार नेताओं में से हैं। बस जरूरत है कि राज्य सरकारों से तालमेल कर ग्रामिण इलाकों में तेजी से विकास का काम करने की। तभी जाकर नक्सल के हिंसक गतिविधियों पर काबू पाया जा सकता है। नहीं तो नहीं।

राजनेताओं के सिर्फ ईमानदार होने से काम नहीं चलेगा। इच्छा शक्ति भी दिखानी होगी विकास के मामले में। गरीबों के बीच जाकर काम करना होगा। इस मामले में युवा कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अच्छी पहल की है। गरीबों से सीधे संवाद कर उनके मानसिक गुलामी को तोड़ने की कोशिश की। जो सदियों से चली आ रही थी। जेडीयू के शरद यादव इस लडाई को पहले से हीं लडते आ रहे हैं।

जिस प्रकार राजनीति, प्रशासन और न्यायलय के क्षेत्र में कुछ लोगों के भ्रष्ट होने के कारण सरकारी तंत्र तार तार हो रहा है उसी प्रकार पीपुल्स वार को कुछ लोग गलत रूप देने की कोशिश कर रहे हों लेकिन आखिर में देश का विकास हीं अवरूद्व हो रहा है। ऐसे में ईमानदार कोशिश की जरूरत है। विकास का मुहिम ईमानदार ब्यूरोक्रेट्स के बिना संभव नहीं होगा। उन्हें साथ लेने की जरूरत है।


नक्सल से अधिकांश वही लोग जुडे हैं जिनके साथ हमारे सिस्टम ने न्याय नहीं किया। वे लोग नक्सल की राह को जीने की लडाई लडने का मंच मानते हैं। इस संघर्ष को राजनीति के ईमानदार नेतृत्व हीं रोक सकता है।

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