Monday, June 30, 2008

झारखंड में विश्व स्तरीय क्रिकेट स्टेडियम बनेगा

झारखंड स्टेट क्रिकेट एसोसिएशन ने झारखंड की राजधानी रांची में विश्वस्तरीय स्टेडियम बनाने का एलान क्या है। 31.7 एकड़ जमीन पर शानदार स्टेडियम बनाया जायेगा। इससे झारखंड का नाम क्रिकेट की दुनिया से और मजबूत रूप से जुड जायेगा। रांची के महेंद्र सिंह धोनी ने क्रिकेट की दुनियां में जहां धाक जमायी है वहीं झारखंड का नाम भी विश्व स्तर पर रोशन किया है। महेंद्र सिंह पहले झारखंडी खिलाड़ी है जो भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान है।
झारखंड विश्व स्तरीय जगह है। यहां जो खनिज पदार्थ पाये जाते हैं वे विश्व स्तरीय है- इसमें कोयला, लोहा, अबरख, यूरेनियम, मिथेन आदि दर्जनों खनिज पदार्थ हैं जो विश्व स्तरीय है। जो भी बड़े कल-कारखाने हैं वो भी विश्व स्तरीय है इसमें टाटा और बोकारो इस्पात कारखाने का नाम मशहुर है।
यहां विश्व स्तरीय कई शिक्षा संस्थान है। इसमें धनबाद जिले का इंजीनियरिंग कॉलेज इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स, रांची का बी आई टी मेसरा और जमशेदपुर स्थित एक्स एल आर आई स्कूल ऑफ बिजनस एडं ह्यूमन रिसोर्सेस (XLRI School of business and human resources) है।

प्रकृति ने झारखंड को मानवीय जीवन के उपयोग में आने वाले महत्वपूर्ण खनिज पदार्थो का भंडार बनाया है वहीं प्रकृतिक सौंदर्य का भी वरदान दिया गया है। यहां के लोग भी मानवीय हैं। गांव-शहर कहीं भी जाइये उनमें आपसी समरसता और देश भक्ति कूट कूट कर भरी है।

Sunday, June 29, 2008

झारखंड राज्य के मुद्दे पर महामहिम राष्ट्रपति एवं केंद्रीय गृहमंत्री से मार्डी गुट की वार्ता

लेखक – राजकिशोर महतो (विधायक)
झारखंड आंदोलन की दर्जनों कहानियाँ अभी तक पूर्ण रूप से सामने नहीं आ सकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है कि किसी राष्ट्रपति ने खुद किसी राजनीतिक दल को बुलाकर झारखंड राज्य की मांग पर चर्चा की। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार आंदोलन की दिशा को बदलते रहे। इसमें झारखंड आंदोलन के नेताओं की भूमिका भी कम नहीं रही। ऐसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा दो भागों में बंट गया और झामुमो सोरेन और झामुमो मार्डी। झामुमो मार्डी हीं एक ऐसी पार्टी थी जो शुरू से लेकर अंत किसी भी तरह के परिषद के खिलाफ थी और एक हीं मांग थी सिर्फ अलग राज्य। मार्डी गुट के तत्कालीन सांसद और नेता राजकिशोर महतो ने आंदोलन की लड़ाई के एक हिस्से को अपनी लेखन से सामने लाया है। वर्त्तमान में श्री महतो धनबाद जिले के सिंद्री विधान सभा से विधायक हैं।
झारखंड आंदोलन के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत -
भारत वर्ष के महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता होने के पूर्व भारत के गृहमंत्री मनानीय एस.बी चह्वान से हमारी वार्ता 24 अगस्त 1992 तथा 11 सिसम्बर 1992 को हुआ था। वार्ता का विषय था झारखंडी की समस्या। और वार्ता में गृह मंत्रालय की ओर से बुलाया गया था झारखंड मुक्ति मोर्चा(सोरेन) और झारखंड मुक्ति मोर्चा(मार्डी) के नेताओं को। इसके अलावा अन्य झारखंड पार्टी सहित अन्य झारखंड नामधारी पार्टियों को। फिर बुलाया गया था अन्य दलो को – जनता दल, कांग्रेस आदि। 24 अगस्त को हमारी वार्ता हुई थी नई दिल्ली में। वार्ता के अलाव सर्वदलीय बैठक भी हुई। हमारी ओर से यानि झामुमो मार्डी की ओर से मैं और सिंहभूम पश्चिम से पार्टी अध्यक्ष और पार्टी सांसद कृष्णा मार्डी ने हिस्सा लिया था। उस सर्वदलिय बैठक में घूमा फिरा के एक बात कही जा रही थी कि झारखंड आंदोलन एक समस्या है और इस समस्या को दूर किया जाना चाहिये। यह भी कहा जाता रहा कि झारखंड आंदोलन सिर्फ 30 प्रतिशत आदिवासियों का आंदोलन है। अत: आदिवासियों के आंदोलन की समस्याओं को दूर कर दिया जाय तो इस आंदोलन का समापन हो सकता है और विकास की प्रक्रिया तेज हो सकती है।

इस बैठक में झामुमो(सोरेन) की तरफ से उसके सभी सांसद शैलेन्द्र महतो, सूरज मंडल, शिबू सोरेन और साइमन मरांडी ने हिस्सा लिया। फिर झारखंड पार्टी की तरफ से श्री राम दयाल मुंडा, श्री एन.ई.होरो और आजसू की ओर से बेसरा ने हिस्सा लिया था।

मैंने स्पष्ट रूप से यह बात रखी थी कि झारखंड अलग राज्य का आंदोलन कोई समस्या नहीं है। इसे समस्या के रूप में देखना ही गलत होगा। वास्तव में यह तो समस्या का निदान है। सभी को इस नजरीये को बदलना होगा। झारखंड आंदोलन समस्याओं से उपजा उसका निदान है। अत: अपनी दृष्टिकोण को हमने वहां उस बैठक में स्पष्ट रूप से रख दिया था कि झारखंड अलग राज्य का निर्माण किया जाये तभी जाकर उस क्षेत्र में समस्या का समाधान हो सकेगी।
झारखंड आंदोलन को कमजोर करने का षडयंत्र -
हमारी बैठके पहले तो अलग अलग दलों को अलग अलग बुलाकर की गई। फिर एक बार एक साथ। जाहिर था ऐसा क्यों किया गया था। ज्यादातर दल अब ढीले पड़ने लगे थे। सभी एक प्रकार से नीतिगत रूप से तैयार हो गये थे कि अगर आदिवासियों के लिए विशेष व्यवस्था की जायेगी तो झारखंड आंदोलन समाप्त हो जायेगा। पर मैं इसके घोर विरोध में था। इसके लिये मैंने प्रयाप्त कारण भी रखे थे। पर अन्दर ही अन्दर एक षडयंत्र चल रहा था जिसके अगुवा शिबू सोरेन थे यह मैंने पहले हीं भांप लिया था।
महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता यानि झामुमो(मार्डी) की बातचीत का ब्यौरा देने से पहले हम उस वार्ता की चर्ची करना आवश्यक समझते हैं जो दिनांक 11 सितंबर 1992, करीब 3 सप्ताह बाद पुन: माननीय गृहमंत्री जी के साथ मंत्रालय में बातचीत हुई।

जब मुख्यमंत्री लालू जी ने मुझे फोन किया
अलग अलग दलों की अलग अलग बैठके हुई। उस दिन 10 सितम्बर को हम रांची से हवाई जहाज से दिल्ली गये थे। पटना से बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और विपक्ष के नेता (कांग्रेस) जगन्नाथ मिश्र उसी जहाज पर था। मुख्यमंत्री यादव ने मुझे और कृष्णा मार्डी को बगल में बैठने को कहे लेकिन हमलोग पीछे के सीट पर बैठ गये। हमारे साथ पटना से आ रहे झामुमो मार्डी के विधायक सुमरित मंडल भी थे। जहाज में श्री लालू प्रसाद यादव और श्री जगन्नाथ मिश्रा दोनो रास्ते भर यही बात करते रहे कि झारखंड अलग राज्य का विरोध करना है। इस मुद्दे पर दोनो ही एक थे। हालांकि जनता दल नेता लालू प्रसाद ने राजनीति में श्री मिश्रा को पटखनी देकर ही मुख्यमंत्री बने थे।

उनकी बातें हमें भी सुनाई देती रही। हमलोग भी वार्ता कर रहे थे अलग राज्य को लेकर। दिल्ली हवाई अड्डे पर दुआ सलाम करते हम लालू प्रसाद से अलग हो गये। रात में 9 बजे के आस पास लालू जी का फोन आया। इधर उधर की बातें करने के पश्चात उन्होंने पूछा कि कल की वार्ता में आप क्या कहने वाले हैं। उन्हें शायद पता था कि वार्ता एक साथ नहीं अलग अलग होने वाली है। उन्होंने कहा कि आप तो 26 जिले झारखंड के समर्थक हैं। इसलिए बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के हिस्से को मिलाकर झारखंड की मांग करना उचिता होगा। मुझे यह बात समझ में नहीं आई कि लालू जी इस बात पर जोर क्यों दे रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि मार्डी गुट की मांग 26 जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य की है। मेरे मन में यह भी सवाल उठने लग कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार बिहार के ही झारखंड क्षेत्र को अलग कर कुछ योजना बना रही है। लालू प्रसाद यही प्रचारित कर रहे थे कि मार्डी गुट की मांग सही है। क्योंकि वे समझते थे कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। 26 जिले का झारखंड असंभव। सभी राज्यों का मामला था। क्या हम नहीं जानते थे कि क्या चार राज्यों के हिस्सों को अलग करना किसी भी सरकार के लिये कितना कठिन था। मीडिया के बन्धु तथा विरोधी दलों खासकर झामुमो सोरेन के लोग हमारी मांग को अव्यवहारिक तथा लालूजी के अप्रत्य़क्ष रुप से समर्थन लेते थे।
आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेना क्या किसी गुप्त समझौते का हिस्सा था -
एक और बड़ी विसंगति की बात थी। जब झारखंड आंदोलनकारी एक जुट थे और आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम मार्च 1992 में किया गया था, जब पूरा देश इस आर्थिक नाकेबंदी से प्रभावित हो गया था, उस समय भी गृह मंत्री एस वी चव्हान ने हमारे नेताओं को वार्ता करने के लिये दिल्ली बुलाया था। आखिर क्या बातें हुई थी इसका खुलास पार्टी के नेताओं ने नहीं किया था। किस कारण से आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम दस दिनों के बाद अचानक वापस ले लिया गया। सरकार का भी कोई व्यक्तव्य इस संबंध में नहीं था कि केन्द्र सरकार झारखंड राज्य देने के लिये सहमत है या नहीं।

ऐसे में सवाल यह भी था कि जब झामुमो दो धड़ो में बंट चुका था तब ऐसे में कमजोर लोगों के साथ अलग अलग वार्ता क्यों ? क्या केन्द्र सरकार और हमारे नेता शिबू सोरेन और सूरज मंडल के बीच आर्थिक नाकेबंदी वापस करने से पहले हीं कोई गुप्त समझौता हो चुका था? इतना निश्चित था कि अलग राज्य की शर्त पर झारखंड आंदोलन को वापस लेने का फैसला नहीं किया गया था। क्योंकि ऐसी स्थिति में इस बात को राज नहीं रखा जाता, सभी लोग खुलासा कर देते। क्षेत्र की जनता की यही मांग थी।

पर वार्ता के निर्णायक शर्तों को गोपनीय रखने का अर्थ ही था कि किन्हीं अन्य शर्तों पर आंदोलन को वापस लिया गया है। शर्त क्या थी इसका अंदाजा मैं लगाने की कोशिश कर रहा था। कुछ रोशनी पड़ने लगी थी, लालूजी के साथ फोन पर हुई बातचीत से। लालूजी नहीं चाहते थे कि सिर्फ बिहार को तोड़कर राज्य बने। इसलिये चार राज्यों के हिस्से को मिलाकर झारखंड की बात करते थे और हमसे करवाना चाहते थे।

लेकिन शिबू सोरेन आंदोलनकारी थे। वे चुप क्यों थे। क्या उन्हें कुछ और चाहिये था। मामला उलझाकर रखा गया था ताकि एक पूर्व निश्चित योजना के तहत एक विकल्प की और सबको ले जाया जाये और सबकी सहमति प्राप्त कर ली जाये। और वैसी हीं परिस्थिति पैदा की जा रही थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राव ने झारखंड राज्य की मांग को ठुकरा दिया - 11 सितंबर 1992 की वार्ता महत्वपूर्ण थी। हमसे बातचीत के बाद लालू जी को बुलाया गया था। सुबह अखबार में पढा कि लालूजी ने कहा था कि “बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा”। जबकि पूणे में गृहमंत्री ने व्यक्तव्य दिया था कि झारखंड की समस्या का समाधान अलग राज्य से ही संभव है। यही पर बात खत्म हो गई ऐसी बात नहीं है। चार दिनों के बाद माननीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव जी का बयान आया कि अभी झारखंड राज्य जैसी बनाने की कोई बात उनके दिमाग में नहीं है। आखिर गृहमंत्री का बयान के बाद प्रधानमंत्री का बयान क्यों आया। फिर सब कुछ रूक सा गया। कुछ दिनों बाद झारखंड राज्य के मामले को आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के पास भेज दिया गया जिसके मंत्री राजेश पायलट थे। गृह विभाग से विषय को हटा को लिया गया। यह बात साफ हो चुकी थी कि अब अलग राज्य नहीं बनेगा। आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय का विषय आंतरिक सुरक्षा, शांति व्यवस्था कायम करना था। कुछ दिनो बाद श्री चह्नान भी गृह मंत्रालय से हट गये थे।

महत्वपूर्ण बात यह थी कि शिबू सोरेन ने 11 जुलाई 1992 को लालू प्रसाद की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसी कारण मार्डी गुट का जन्म हुआ और मार्डी गुट के दो सांसद एवं नौ विधायकों ने लालू यादव को समर्थन जारी रखा। सवाल यह भी था कि प्रधानमंत्री राव ने गृहमंत्री के बयान पर ऐसा क्यों कहा कि अभी ऐसा कोई विचार उनके मन में नहीं था। (जारी)

झारखंड राज्य के मुद्दे पर ........

राष्ट्रपति भवन की नजर थी मार्डी गुट के आंदोलन पर –
महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता क्यों हुई, इस बात की पृष्टभूमि गृहमंत्री के साथ वार्ता में तैयार हो गई थी। आखिर राजनैतिक वार्ता करने का काम तो राजनीतिज्ञों, विधायकों-सांसदो एवं मंत्रियों का काम है राष्ट्रपति का नहीं। ऐसी मेरी समझ है। उन्होंने स्वयं हमें बुलाया था और वार्ता की थी। आखिर झारखंड के इतने लंबे इतिहास में भारत के किसी राष्ट्रपति ने उसके किसी भी आंदोलनकारी को पहले नहीं बुलाया था। ऐसे में मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि हमें क्यों बुलाया गया था ?

भारतवर्ष के अन्दर ब्रिटिश शासन काल से लेकर आजादी के बाद 1992 तक कई नये राज्यों का गठन किया गया था। भारत वर्ष की स्वतंत्रता के कुछ ही वर्षों बाद 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया था और 1955 में इसकी रिपोर्ट आयोग द्वारा केन्द्र सरकार को सौंपी गई थी। 1956 में ‘दी रीआरगेनाइजेशन एक्ट 1956’ पार्लियामेंट से पारित किया गया जिसमें कई नई राज्यों के गठन का प्रावधान था। साथ ही कई राज्यों की सीमाओं में फेर-बदल के लिए कानून बनाये गये। आश्चर्य की बात है कि उसमें झारखंड अलग राज्य बनाने की सिफारिश आयोग द्बार नहीं की गई थी। सिर्फ पश्चिम बंगाल के पुरूलिया सबडीवीजन को तत्कालीन बंगाल में बिहार से अलगकर शामिल कर दिया गया।

राजघाट पर धरना देने की योजना -
5 मई 1993 दिल्ली शहर के रिंग रोड पर स्थित महात्मा गांधी यानि मोहनदास करमचंद गांधी, यह एक ऐसे महापुरूष का नाम है जिसकें संबंध में कुछ कहना हम जैसे लोगों के लिये बस की बात नहीं है। भारतवर्ष के दलित वर्ग के उत्थान की बात जब भी उठती है, हिन्दुस्तान के ब्राह्मवादी समाज व्यवस्था के छुआ-छुत, ऊंच-नीच की बात जब कही जाती है, महात्मा गांधी की याद आ जाती है। निराशा हताशा में डूबे हुए अधनंगे, भूखे, प्रताडित लोग ‘हरिजन बन जाते है, इनके स्पश मात्र से।

सुदूर जंगलो में सभ्य समाज तथा कथित सभ्य समाज से दूर, भारत की मुख्यधारा से परे, उपेक्षित लोग जिनकी मूर्तियां तक म्यूजियमों में नमूने के तौर पर रखी गई, वो जनजातियां भारतवर्ष के आदिवासी कहे जाने लगे, गांधीजी के कारण। बड़ी आशा और उमंग से वे लोग इनकी ओर ताकते हैं जो स्वयं पर हो रहे अनाचार, अत्याचार, शोषण और जुल्म सहते सहते थक चुके होते हैं। निराशा एवं हताशा जिनकी नसीब में लिख जाती है वे लोग इनकी शरण में आते हैं। अहिंसा का देवदूत।

तेज धूप के बावजूद राजघाट-धरने में मार्डी गुटे के सभी लोग जुटे -
झारखंड की जनता भी थक चुकी थी। हम भी निराश हो चले थे। बड़ी मुश्किल से हम यह निर्णय ले पाये थे 5 मई 1993 को राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर एक दिवसीय धरने का कार्यक्रम रखेगें। यह धरना निराहार, यहां तक कि पानी भी नहीं पियेंगे, इसी संकल्प के साथ हमारी पार्टी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (मार्डी) गुट ने यह निर्णय लिया था। हम दो सांसद श्री कृष्णा मार्डी और मैं था। हमारे साथ नौ विधायक श्री हबक गुड़ीया, श्री बहादुर उरांव, श्री हाडीराम सरदार, श्री अर्जुन राम, श्री टेकलाल महतो, श्री मंगल राम, डा. सब्ब अहमद, श्री सुमरित मंडल एवं हसन रिजवी थे। इनके अलावे उन वक्त पूर्व विधायक शिवा महतो आदि थे। हम बहुत बडी तादाद में राजघाट पर धरना नहीं दे सकते थे क्योंकि झारखंड से दिल्ली जाना वहां ठहरने एवं अन्य व्यवस्था करने लायक हमारी क्षमता नहीं थी। अत: हम पार्टी के केन्द्रीय समिति के सदस्य तथा प्रमुख लोग सौ की संख्या में दिल्ली आए थे और धरने पर बैठे थे।

उस दिन तेज धूप थी। आसमान जैसे आग उगल रहा था। तापमान 46 डिग्री सेलिसियस तक पहुंच गया था। गर्म हवा चेहरों को झुलसा रही थी। सुबह नौ बजे राजघाट के मुख्य प्रवेश द्वार के बाएं किनारे एक छोटा सा शामियाना धूप से बचने के लिये लगा लिया था। दरी बिछा दी गई थी। हम सभी हरे रंग की पगडी बांधे थे। कोई कोई अपनी बाहों में हरे रंग की पट्टियां बंधे थे। अपनी छाती पर भी कुछ लोग झारखंड अलग राज्य का बैनर बांधे हुए थे। उस पर हमारी पार्टी का नाम सफेद रंग से लिखा हुआ था। शामियाने के चारो ओर झंडा बैनर लगा दिये गये थे। कुल मिलाकर दृश्य आकर्षक बन गया था गया था। समाधि में आने जाने वाले लोगों की नजर हमारी तरफ उठ जाती थी। खासकर विदेशी पर्यटकों की नजरें हमें घुरती नजर आती।
धरने से पहले रोड दुर्घटना जैसी संकट से सामना करना पड़ा -
उस दिन मैं और कृष्णा मार्डी अपने अपने निवास से चले और साथ हो लिये थे। एक हीं गाड़ी में थे। बिहार भवन से एक एम्बेसडर गाड़ी मंगाई थी। जब हम गोल पोस्ट ऑफिस गुरूद्वारा बंगला साहिब के पास पहुंचे और कनाट प्लेस वाले रास्ते पर आगे बढे तो अचानक एक व्यक्ति हमारी गाड़ी के सामने आ गया। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारा। तो भी वह वयक्ति गाड़ी से टकरा गया और सड़क पर उछल गया और गिर पड़ा। हमारी तो जान सुख गई। पर थोड़ी ही देर मे वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। इतने में ही चारो ओर से हो हल्ला होने लगा। अगल-बगल से लोग चिल्लाने लगे। हम बड़ी असमंजस में थे। मैंने तुरंत निर्णय लिया और ड्राइवर को गाड़ी भगाने को कहा। मुझे डर था कि जनता या पुलिस की चक्कर में आ जाने से पूरे धरने का कार्यक्रम ही चौपट हो जायेगा। घटना स्थल से धरना स्थल की ओर हम तेजी से आगे बढे। पर एक पुलिस जीप जो पास ही खड़ी थी हमारे पीछे लग गई। पीछा करने लगी। हम रिंग रोड पर निकल आए थे। कोई उपाय पुलिस गाड़ी से बचने का दिखा नहीं। हमने ड्राइवर को सीधे संसद के अंदर चलने को कहा। हम तेज भागे और संसद के कम्पाउंड में घूस गये। संसद भवन के ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने को कह दिया। संसद सत्र चल रहा था। पुलिस की गाड़ी बिना अनुमति के संसद भवन के अंदर घुस नहीं सकती थी। हमारी गाडी में बिहार भवन का निशान लगा था। फिर एक घंटे बाद हम राजघाट की ओर चल दिये।

हमारी पार्टी का गठन हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। हम झामुमो से अलग हुए थे और अलग पार्टी बना ली थी। हमने अपने धरने की सूचना संसद भवन के पत्रकारों को दे दी थी। हम नहीं जानते थे कि प्रेस को कैसे मैनेज किया जाता है। हमारी मीडिया के लोगों से उतनी जान पहचान भी नहीं थी।
झारखंड राज्य की मांग को लेकर पहली बार ऱाजघाट पर धरना -
इस धरने की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि हमारी पार्टी झामुमो(मार्डी) से पहले किसी भी झारखंड नामधारी एवं झारखंड अलग राज्य की मांग करने वाले किसी भी दल ने अलग झारखंड राज्य के लिये कोई भी कार्यक्रम राजघाट पर नहीं किया गया था। दिल्ली में भी कोई प्रदर्शन अलग राज्य के लिए किसी दल ने नहीं किया था, झामुमो ने भी नहीं। सभी झारखंड क्षेत्र के अंदर ही हल्ला करते रहे। आंदोलन करते रहे। पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में वह भी महात्मा गांधी की समाधि पर यह कार्यक्रम हमने रखा था।

हमने राजघाट की समाधि पर माथा टेका। फूल मालाएं अर्पित की और धरने पर बैठ गये। शारीरिक रूप से उन दिनों में अस्वस्थ्य चल रहा था। एक तो मुझे हाई ब्लड प्रेसर का रोग लग चुका था और उन दिनों पाइल्स से भी जूझ रह था। मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाता था। दिन के दो बजते-बजते हम गर्मी से परेशान हो चुके थे। टेकलाल महतो, विधायक, मांडु बेहोश होने लगे। शायद लू लग गई थी। लिहाजा उन्हें वापस मेरे नार्थ एवेन्यू के फ्लेट में आराम करने भेज दिया गया। इस बीच हमारे धरना स्थल पर काफी लोग आ रहे थे और पूछताछ कर रहे थे। हम लोगों को समझा रहे थे कि यह ‘झारखंड’ क्या है ? उसका आंदोलन क्या है ? आदि आदि। विदेशी पर्यटको को ज्यादा उक्सुकता थी और वे ज्याद जिज्ञासु भी थे। मैं उन्हें अंग्रेजी में समझाने की कोशिश भी करता। ज्यादातर विदेशी यह समझ रहे थे कि शायद हम किसी प्रकार के विद्रोही थे और भारत सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। खैर। पूरा दिन किसी प्रकार बीत गया। मजे की बात तो यह हुई कि कुछ साधु –संत भी आकर हमारे शामियाने में विराज गये और साथ बैठे रहे।
मीडिया ने महत्व नहीं दिया -
लेकिन कोई प्रेस वाल या फिर टीवी चैनल वाला हमारे पास नहीं आया। मीडिया ने संभवत: हमारा नोटिस ही नहीं लिया। उनके लिये यह कोई महत्वपूर्ण बात ही नहीं रही होगी। झारखंड-झारखंड चिल्लाने वाले हम सांसदो और विधायकों को शायद महत्वपूर्णहीन समझ रहे होंगे। शाम छह बजे बोरिया बिस्तर समेट कर वापस आ गये। थकान के मारे लोग रात भर सोते रहे। पर हमारी हालत इतनी खराब थी कि दर्द से परेशान से था। पाइल्स का दर्द न तो उठने देता और न हीं बैठने। पर फिर भी किसी तरह सो गया।

सुबह उठे तो सभी अखबार देखने लगे। आशा थी कि हमारे धरने के संबंध में कोई समाचार छपा हो। पर हमें निराशा हाथ लगी। किसी भी अखबार में कोई बात नहीं छपी थी, इस धरने के बारे में। हमें आश्चर्य हुआ था कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो भागों में बंट जाने की कहानी तो बड़ी नमक मिर्च लगाकर छापी जाती रही थी पर आंदोलन के विषय में मीडिया चुप था। झारखंड राज्य के लिये यह पहला कार्यक्रम दिल्ली में क्या गया था। पर मीडिया ने इसे थोड़ा भी महत्व देना जरूरी नहीं समझा। नौ विधान सभा सदस्यों और दो सांसदों के साथ कई पूर्व विधायकों की टीम को कोई महत्व नहीं दिया गया था। शायद हमारा प्रयास बचकाना था या फिर महत्वहीन ही रहा होगा।

सांसद बनने से पहले हाई कोर्ट में सरकारी वकील था -
व्यक्तिगत रूप से राजनीति के आकाश में मैं अचानक उभर आया था। राजनीति से संबंध तो बहुत पुराना था पर संसदीय राजनीति में अचानक सामने आ गया था। अपने पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद गिरिडीह लोक सभा सीट खाली हो गई थी। मुझे किसी प्रकार झामुमो से टिकट मिल गया था। क्योंकि पिता झामुमो के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। वैसे मैं लोक सभा सदस्य बनने के लिए मैं ज्यादा इच्छुक भी नहीं था। पिताजी के निधन के समय मैं रांची में था और वहीं पटना हाई कोर्ट की खंडपीठ रांची में सरकारी वकील था। मेरा नाम हाई कोर्ट जज के लिए भी अमुमोदित था। पर मझे चुनाव में कूदना पड़ा। जीत जाने के महीने भर के अंदर हीं मैं अखबारों के सुर्खियों आ गया था। झामुमो का विभाजन मेरे कारण हुआ था। लालू प्रसाद की सरकार को गिरने से बचा लिया था। (जारी)

झारखंड राज्य के मुद्दे पर ........

राष्ट्रपति भवन से वार्ता के लिये विशेष बुलावा -
बहरहाल धरने के दूसरे दिन हीं दोपहर में राष्ट्रपति भवन से एक फोन आया और मुझे सुचित किया गया कि दिनांक 7 मई 1993 के दिन बारह बजे देश के महामहीम राष्ट्रपति सर्वश्री शंकर दयाल शर्मा हमसे वार्ता के इच्छुक हैं। इसके लिये पांच मिनट का समय निर्धारित किया गया है। वार्ता का विषय हमारा झारखंड आंदोलन था। हमें जानकारी देकर इस बात की पुष्टि कर ली गई कि हम वहां 12 बजे से पहले पहुंच जायें। श्री कृष्णा मार्डी को भी यही सूचना दी गई थी।

हमें आश्चर्य हुआ था कि उस धरना के कार्यक्रम को मीडीया ने संज्ञान तक नहीं लिया और उसी धरने के दूसरे दिन यह सूचना राष्ट्रपति भवन से आई थी। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी वार्ता महामहिम राष्ट्रपति महोदय से हो पायेगी। झारखंड राज्य का विषय गृह मंत्रालय का था और केन्द्र सरकार को उसके विषय में निर्णय लेना था। उस मांग के संबंध में राष्ट्रपति की भूमिका के विषय में हम अंजान थे। इतना हीं नहीं मैं जानता था एक वकील होने के नाते कि किसी भी प्रकार के नये राज्य बनाने का बिल माननीय राष्ट्रपति के अनुमोदन के बिना संसद में पेश नहीं किया जा सकता।

झारखंड अलग राज्य निर्माण का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण था कि इसमें किसी निर्णय के पूर्व भारत के महामहिम राष्ट्रपति से वार्ता जरूरी था। देश में आजादी के पूर्व और आजादी के बाद कई राज्य बने थे। इतना लंबा संघर्ष शायद किसी के लिये नहीं करना पड़ा था। राष्ट्रपति भवन के बुलावे ने यह सोचने पर हमे बाध्य कर दिया था कि शीघ्र हीं अंतिम निर्णय होने वाला था। यह निर्णय क्या था? हमारे दिल धड़क रहे थे। हम अजीब अजीब सवालों के बीच घिर गये थे। अगर अंतिम निर्णय लेना हो तो इसमें हमारी बातें सुनना या हमलोगों से राय लेना जरूरी क्यों था? इसके पहले तो किसी भी राजनीतिक नेताओं को झारखंड में राष्ट्रपति द्वारा इस विषय पर वार्ता करने बुलाया नहीं गया था।

7 मई 1993 को राष्ट्रपति भवन पहुंचे -
दिनांक 7 मई 1993 को सुबह हीं मैं तैयार हो गया था। मैं श्री कृष्णा मार्डी का इंतजार कर रहा था। श्री मार्डी ज्ञापन लेकर नॉर्थ एवेन्यू पहुंचे, जो हमें महामहिम राष्ट्रपति को देना था। यह ज्ञापन बुकलेट की शकल में था और मोटा था। बड़ी मेहनत करके इसे बनाया गया था जिसमें झारखंड आंदोलन का इतिहास, इसकी विशेषताएं, भाषाएं, सभ्यताएं, खेल-कूद, रीति-रीवाज आदि के विषय में संक्षिप्त में जानकारी दी गई थी। हमने तय किया था कि इस ज्ञापन को महामहिम राष्ट्रपति सर्वश्री शंकर दयाल शर्मा को समर्पित करेंगे।
मैं और श्री कृष्णा मार्डी दिन के ग्यारह बजे रवाना हुए। पांच मिनट का रास्ता था नॉर्थ एवेन्यू से। हमलोग एम्बेसडर कार में थे जिसे बिहार भवन से मंगवाया गया था। जब हमारी गाड़ी राष्ट्रपति भवन के मुख्य द्वार पर पहुंची, तब एक प्रहरी आया और पूछा। फिर जाने दिया गया। मुख्य द्वार से लंबा रास्ता कार ड्राइव का है। फिर जाकर पार्किंग की जगह है। दोनो ओर उद्यान हैं। गुलाबी सैंड-स्टोन से बने फव्वारे सीढियां आदि आदि। पार्किंग के बाद फिर बहुत बडा भवन। उसके नीचे से पार होने पर फिर बहुत बड़ा सहन। हमें बड़ी इज्जत के साथ ले जाया जा रहा था। राष्ट्रपति भवन को पहली बार हम इतनी नजदीक से देख रहे थे। विशाल राष्ट्रपति भवन। न जाने कितने महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये होंगे यहां। न जाने कितने देशों के राष्ट्रपति, संदेश वाहक, राजदूत पधारे होंगे। न जाने कितने इतिहास छुपे होंगे इस चारदीवारी के भीतर। इसका विशाल आकार और वस्तु कला देखकर हम चकित थे।
जब हम राष्ट्रपति भवन में सहम से गये -
महान भारत की कार्यपालिका के प्रमुख तथा भारतीय संसद के प्रमुख यहां निवास करते थे। राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक भी कहते हैं। महामहिम की महिमा ऐसी है कि अपनी मां के चरणों में भी झुकने की मनाही है। इतनी गरिमा है इस पद की। सरकार की कार्यपालिका द्वारा संपादित प्रत्येक कार्य भारत के राष्ट्र के नाम से हीं संपादित होता है। ‘इन द नेम ऑफ दी प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ कहना लिखना जरूरी है। भारत वर्ष की तीनों सेनाओं वायू, थल और जल के सुप्रीम होते हैं भारत के राष्ट्रपति। राष्ट्रपति भवन के लंबी गलियारों से चलते हुए हम आगे बढ रहे थे। हमारे साथ राष्ट्रपति भवन के दो लोग थे। महामहिम के बैठक तक ले जाने के पूर्व हमें तीन जगहों यानि तीन कमरों में बारी बारी से बैठाया गया। हम वैसे हीं राष्ट्रपति भवन की भव्यता, उसके गैलरियों की सजावट, मीनाकारी, चित्रकारी देखकर अचंभा में थे। इस प्रकार चुपचाप तीन जगहों पर बैठने से हम अंदर से सहम से गये थे।


ठीक बारह बजे हमें राष्ट्रपति के वार्ता कक्ष में बैठा दिया गया था। वहां महामहिम के कुछ सुरक्षा गार्ड थे जो परम्परागत वेश-भूषा में तैनात थे। वे बड़े ऊंचे कद काठी के थे। श्री कृष्णा मार्डी भी ऊंचे कद काठी, मजबूत शरीर के स्वामी हैं। पर वे जवान उनसे भी शक्तिशाली एवं शानदार दिख रहे थे।

महामहिम राष्ट्रपति डा. शर्मा पहली बार मुलाकात
राष्ट्रपति भवन के उस कक्ष को देखकर लगा कि हम बहुत मामुली लोग हैं। सांसद होने का जो भी गुरूर था वह हवा की तरह निकल गया। राष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा हमारे सामने थे। हमने उन्हें हाथ जोड़कर झूककर प्रणाम किया। उन्होंने ने भी हमें हाथ के इशारे से बैठ जाने को कहा। वहां कई सोफे थे। हम एक साथ लंबे सौफे पर बैठ गये। राष्ट्रपति हमारे दाहीने हाथ की तरफ एक सौफे पर बैठे थे। टेबल पर पानी, चाय, बिस्कुट एवं मिठाइयां रखी थी। हमें इशारे से उन्हें लेने को कहा गया। हमने यत्रवत एक एक मिठाई खाई और चुपचाप खा गये। पानी पीया। सोच रहा था कि सिर्फ पांच मिनट का समय है, हम अपनी बात किस प्रकार और कहां से शुरू करें।

महामहिम राष्ट्रपति से वार्ता
राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि आपलोग झारखंड अलग राज्य के लिये क्यों आंदोलन कर रहे हैं ? उस मांग को तो पंडित जी(प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू) के समय ही खारिज कर दिया गया था। राज्य पुनर्गठन ने उसकी सिफारिश नहीं की थी। इस प्रश्न को सुनकर हमने एक दूसरे की ओर देखा। इस प्रश्न का मैंने पहले भी कई बार सामना कर चुका था।
मैंने तुरंत जवाब दिया कि सर। राज्य पुनर्गठन आयोग ने 1955-56 में जो रिपोर्ट केन्द्र सरकार को समर्पित किया था, उसमें गलत कारण दिखाकर मांग को अस्वीकृत कर दिया था। अगर आयोग ने वस्तुस्थिति के अनुरूप रिपोर्ट दी होती तो निश्चय ही अलग झारखंड राज्य के समर्थन में आयोग को मतन्तव्य देना पड़ता। इस पर महामहिम ने कहा कि आपके कहने भर से आयोग की रिपोर्ट को गलत नहीं ठहराया जा सकता। इस पर मेरा जवाब था कि सर, यह सिर्फ मेरा कथन नहीं है। हाल ही में जो ‘झारखंड विषयक समिति’ बनाई गई थी केन्द्र सरकार के गृह विभाग द्वारा, उस समिति की रिपोर्ट में जो मई 1990 में प्रकाशित हुई है, स्पष्ट कर दिया गया है।

उसमें तीन प्रमुख कारण झारखंड राज्य बनाने के संबंध में दिये गये थे। वे तीनो ही कारण गलत थे। राष्ट्रपति महोदय ने हमारी ओर गौर से देखा और हमें तकनीकी आधार पर सवाल किया कि एक बार जिस विषय को केन्द्र ने बंद कर दिया है, उसे दुबारा उठाना कैसे युक्ति संगत हो सकता है। हो सकता है सर, मैंने तुरंत कहा क्योंकि जिस आयोग ने रिपोर्ट दी थी वह भी गृह मंत्रालय द्वारा गठित आयोग था और यह वर्तमान समिति ‘झारखंड विषयक समिति’ भी गृह मंत्रालय ने बनाई। यह एक उच्च स्तरीय समिति बनी। इसमें केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि, बिहार सरकार के प्रतिनिधि, झारखंड आंदोलनकारी नेता, सांसद के साथ साथ विधि विशेषज्ञ एवं अन्य विशेषज्ञ भी शामिल थे। इस प्रकार केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति बनाकर झारखंड अलग राज्य की मांग के विषय को पूनर्जीवित कर विषय को फिर से खोल दिया है।

राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा प्रकांड विद्वान थे। उस जवाब को सुनकर थोड़ी देर के लिए चुप रहे फिर उन्होंने कहा कि अब बताओ आप किस आधार पर राज्य की मांग करते हैं? तथा वो क्या कारण थे जिसके आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग ने सिफारिश नहीं की थी? वे कारण गलत कैसे थे? हम खुश थे कि अब हम वार्ता को सही दिशा दे पाये थे।

वार्ता के दौरान चर्चित 3 महत्वपूर्ण कारण -
पहला - हमने कहा कि राज्य पुनर्गठन आयोग ने तीन प्रमुख कारण दिखाए थे और जो आधार बने थे सिफारिश के विरूद्ध पहला कारण यह दर्शाया गया था कि यह आंदोलन झारखंड क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा ही किया जा रहा था। आदिवासियों की मांग झारखंड में सिर्फ 30 प्रतिशत थी। अत: यह मांग अल्पसंख्य आदिवासियों की मांग थी। आदिवासी का अर्थ अनुसूचित जनजाति माना जा रहा था। हमने इस बाबत माननीय राष्ट्रपति जी को झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट का हवाला दिया और उन्हें दिखलाया कि इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 1952 के आम चुनाव में हीं बिहार में झारखंड पार्टी के 30 विधायक जीते थे वे सभी झारखंड क्षेत्र से थे। इनमें से 10 गैरआदिवासी थे। अत: यह कहना कि सिर्फ आदिवासी ही इस झारखंड आंदोलन में भागीदार थे गलत था।


राष्ट्रपति महोदय हमारी बातें ध्यान पूर्वक सून रहे थे। इतने मैं दरवाजा खोलकर एक सुरक्षा कर्मी अंदर आया और दीवार घड़ी की ओर हाथ से इशारा किया। हमने देखा पांच मिनट का समय बीत चुका था। हमें पता हीं नहीं चला। बात अधूरी रह गई थी। इतने में माननीय राष्ट्रपति महोदय ने उसे बाहर जाने को कहा। वार्ता फिर शुरू हुई।

दूसरा कारण – हमने फिर उनसे कहा कि महामहिम दूसरा कारण जो दिखलाया गया था आयोग के द्वारा, वह यह था कि झारखंड राज्य अगर बनेगी तो उसकी संपर्क भाषा नहीं बन पायेगी। क्योंकि वहां एक ही संपर्क भाषा नहीं है कई है। इस पर जो रिपोर्ट में कहा गया था वह भी हमने राष्ट्रपति जी के समक्ष रख दिया। झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि हिन्दी
आज पूरे देश की राष्ट्र भाषा है। देश में किसी भी राज्य की संपर्क भाषा सम्पूर्ण रूप से हिन्दी नहीं है। बिहार में उदाहरण के लिये भोजपुरी, मगही, मैथली आदि बोलियां-भाषायें हैं। उत्तर प्रदेश में भी अवधी, भोजपुरी, खड़ी बोली आदि है। पंजाब में पंजाबी आदि सभी प्रदेशों में अलग अलग। अत: जब बिहार में हिन्दी से काम चलाया जा रहा है। पूरे देश में इंग्लिश से काम चलाया जा रहा है, तो झारखंड में भी जो बिहार का हिस्सा होगा, हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। अत: सम्पूर्ण प्रदेश में किसी एक ही सम्पर्क भाषा का होना आवश्यक नहीं है। इस बीच एक बार फिर सुरक्षा कर्मी आया और घड़ी की ओर इशारा किया लेकिन इस बार भी राष्ट्रपति महोदय हमें सुन रहे थे और सुरक्षा कर्मी को चले जाने को कहा। लग रहा था कि हमलोगो के बाद भी राष्ट्रपति महोदय ने और भी लोगों को मिलने का समय दिया था। हमें सिर्फ पांच मिनट का समय दिया गया था लेकिन वार्ता लगातार चल रही थी। राष्ट्रपति महोदय मेरी बातों में रूचि भी ले रहे थे।

तीसरा कारण – हमने कहा सर, राज्य पुनर्गठन आयोग ने दर्शाया था कि अगर झारखंड राज्य को संबंधित राज्य से अलग कर दिया जायेगा तो संबंधित राज्य की माली हालत एकदम खराब हो जायेगी। आय एवं रोजगार के अधिकतम संसाधन झारखंड क्षेत्र में है। इस पर भी झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट में उल्लेखित है कि देश में पंजाब और हरियाणा के पास एक भी खदान या खनिज पदार्थ नहीं है। पर सिर्फ कृषि के बल पर एवं बाहर से कच्चा माल लाकर, फैक्ट्रियां लगा कर ये देश के अग्रणी प्रदेश बने हुए हैं। वहां की जमीन की जो उत्पादन क्षमता है वह बिहार या शेष बिहार जो बचेगा, उससे कम है। यही हाल दूसरे संबंधित राज्यों का है। तो बिहार क्यों नहीं तरकी कर सकता है? अत: यह कहना कि बिहार की माली हालत खराब हो जायेगी। (जारी)

झारखंड राज्य के मुद्दे पर ........

झारखंड आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र आपकी बात क्यों मानेगी ?
अलग राज्य आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र सरकार आपकी बात क्यों मानेगी ? राष्ट्रपति महोदय ने यही सवाल हमलोगों से पूछा। इस पर हमने कहा कि सर हमें यह बात समझ में नहीं आती है कि देश में आजादी के बाद कई नये राज्य बनाये गये, बिना आंदोलन के। पंजाब और हरियाणा अलग हुए। गुजरात एवं महाराष्ट्र अलग हुए। मद्रास एवं कर्नाटक अलग हुए। सीमांत में कई नये राज्य बनाये गये। फिर झारखंड राज्य के गठन के लिये आंदोलन को पैमाना क्यों बनाया गया और क्यों बनाया जा रहा है ? हमने राष्ट्रपति जी से पलट कर सवाल रख दिया। वे चुप थे।
पचास वर्षों के आंदोलन को जब मौका आया कुचल दिया गया या खरीद लिया गया। आम जनता के ह्रदय में आज भी यही मांग बसी है। पूरे देश में जब भाषा संस्कृति के आधार पर नये राज्यों का गठन कर दिया गया है, झारखंडी सभ्यता संस्कृति की भी अलग पहचान है। तो भी इसे अलग राज्य का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। हमने महामहिम राष्ट्रपति जी से गुहार लगाई कि हमारे साथ ऐसा सौतेला व्यवहार न किया जाये। हमारी सभ्यता संस्कृति और पहचान को मिटने से बचाया जाये।

झारखंड के विकास के लिये शक्तिशाली परिषद की पेशकश
माननीय राष्ट्रपति जी ने कहा कि वे भी तो चाहते हैं कि झारखंड का विकास हो। और विकास के लिये अगर सरकार अलग राज्य देने से भी बढिया चीज आपको दे तो क्या आप विरोध करेंगे ? हमने कहा कि कदापि नहीं। पर वैसा कौन सा विकल्प है उसे हमलोगों के सामने और झारखंडी जनता के सामने भी सरकार को रख देना चाहिये। इस पर राष्ट्रपति महोदय ने हमारी तरफ देख कहा कि झारखंड क्षेत्र के लिये एक विशेष प्रकार के शक्तिशाली परिषद के गठन की बात केन्द्र सरकार सोच रही है। उस परिषद में इतनी शक्तियां प्रदान की जायेगी कि आपलोग झारखंड का विकास भली भांति कर सकेंगे।

मेरी आशंका सही निकली
हमें पहले से इस बात कि आशंका थी जैसा कि मैंने पहले हीं इंगित किया है कि हमारे झारखंड के नेताओं ने आर्थिक नाके बंदी के आंदोलन को अलग राज्य की शर्त पर नहीं, अन्य किसी शर्त पर वापस ले लिया था। आज मेरी आशंका सत्य प्रतीत हो रही थी। अब हमें यह समझ में आ गया था कि क्यों राष्ट्रपति महोदय ने हमें बुलाया था? मैं तो चकित रह गया था। यह क्या हो रहा है।
मैंने राष्ट्रपति महोदय से पूछा कि सर, इस परिषद के विषय में किन लोगों ने सहमति जाहिर किया है? राष्ट्रपति महोदय ने सोचा की अब हम परिषद की बात पर सोचेगें। उन्होंने कहा कि यह जो परिषद बनेगा वह बहुत ही अच्छा होगा। पूरा फंड दिया जायेगा। विधिवत चुनाव होगा। उसमें विशिष्ट शक्तियां निहीत होंगी।

परिषद से झारखंड वासियों को कोई लाभ नहीं होगा-
इस पर मैंने बड़ी शिष्टता से प्रणाम करते हुए कहा कि सर, आजतक बहुत सारे परिषद झारखंड क्षेत्र के विकास के लिये बनाये गये हैं। 1951 में भी एक परिषद बनाया गया था, जिसका नाम झारखंड विकास परिषद था। फिर झारखंड आंदोलन जोर पकड़ता रहा। आंदोलनकारी नेताओं की तृष्टि के लिये किसी न किसी प्रकार का परिषद बना दिया गया और उन्हें कोई न कोई पद दे दिया गया। 1971 में भी छोटानागपुर संथाल परगना विकास प्राधिकरण का गठन किया गया था। फिर 1978 में भी झारखंड विकास परिषद बनाया गया। इसके अलावा ट्राइवल डेभेलपमेंट प्रोजेक्ट के नाम पर कितने ही उपाय किये गये, पर झारखंड अलग राज्य की मांग उठती ही रहीं। झारखंड के लोग इन प्रयोगों से संतुष्ट नहीं हो सके। क्योंकि उनकी समस्याओँ का समाधान नहीं हो पाया। ये सारे परिषद विफल हुए। सर, मेरा मानना है कि किसी भी प्रकार के परिषद को इतनी शक्ति भारतीय संविधान के तहत प्रदान नहीं किया जा सकता है कि वह राज्य सरकार के मर्जी के बिना चल सके। झारखंड के जल, जंगल और जमीन संबंधी समस्याओं का समाधान तो तभी हो सकता है, जब इन विषयों पर झारखंड में कानून बनाया जा सके। परिषद को कानून बनाने की शक्ति कभी प्रदान नहीं की जा सकती है। सिर्फ विधान सभा ही ऐसा कर सकती है।

झामुमो नेता शिबू सोरेन और अन्य दल के लोग भी परिषद के लिये राजी
माननीय राष्ट्रपति जी के मन में मेरे बात का क्या प्रभाव पड़ रहा था यह तो हम नहीं बता सकते, पर इतना जरूर कह सकते हैं कि वे गंभीर हो गये थे। उन्होंने पहले कुछ पूछे गये प्रश्नों को फिर दोहरा दिया। कहा कि जब सारे राजनीतिक दल झारखंड के विकास के लिये एकमत होकर प्रस्तावित परिषद पर सहमत हैं और अलग राज्य की मांग छोड़ दी है तो आप लोग क्यों नहीं मान रहे ? उन्होंने आगे कहा कि आपके झामुमो नेता शिबू सोरेन ने भी इसे स्वीकार कर लिया है।

यह सुनकर कि झारखंड नामधारी दल के सांसदों एवं दूसरे दलों ने भी प्रस्तावित किसी प्रकार के परिषद का समर्थन कर दिया है, हमें थोड़ा झटका लगा। कांग्रेस और जनता दल यह षडयंत्र कर ही रहे थे। पर शिबू सोरेन जो झामुमो के अध्यक्ष थे और शुरू से जिस झामुमो के संविधान में बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के सीमवर्ती झारखंड क्षेत्रों को मिलाकर एक राज्य गठन करने का लक्ष्य ही रखा गया था, उसकी मांग छोड़ परिषद के मुद्दे पर वे राजी हो जायेंगे, ऐसी उम्मीद हमें नहीं थी। अब हमें पता चल चुका था कि आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेने का मुख्य कारण क्या था?

कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका समझ से परे
भारत में कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका को मैं आज तक समझ नहीं सका। कम्यूनिष्टों के महान नेता लेनिन ने कहा था कि शोषित, दलित और राष्ट्रीयताओं को उनके स्वाबलंबन दिलाने का काम कम्यूनिष्ट का पहला कर्तव्य था। क्या यही भारत वर्ष के कम्यूनिष्टों ने सिखा था कि साठ वर्षों से चलने वाला झारखंड की सभ्यता संस्कृति को, उसकी पहचान को बरकरार रखने के लिये जूझने वाला झारखंड आंदोलन को मुकाम पर नहीं पहुंचा कर दिग्भ्रमित कर दिया जाये। भारतीय जनता पार्टी जो लगातार लालू यादव और कांग्रेस के विरूद्ध रही उसने भी इस प्रस्तावित परिषद पर सहमति दे दी। जनसंघ के समय से हीं इस पार्टी ने अलग झारखंड राज्य की गठन की मांग को माना था भले हीं वह वनांचल के नाम से ही क्यों न हो ?
मन में कई सवाल उठ रहे थे। हमारा विश्वास डगमगाने लगा था। जब सभी प्रस्तावित परिषद की बात कर रहे थे तो एक बारगी मेरे मन में भी विचार आया कि हो सकता है कि यही रास्ता सही हो झारखंड के विकास का। लेकिन फिर मन में विचार आया कि लगता है कि सारे लोगों ने एक बार फिर झारखंडियों को छलने का काम किया है। जितने भी राजनीतिक दल थे उनके आका झारखंड के बाहर के लोग थे, सिर्फ झारखंड नामधारी दलों के सिवा। हमारी लड़ाई ही बाहरी वर्चस्व के खिलाफ थी। मुझे लगने लगा कि एक बार फिर अनपढ और अनुभवहीन झारखंडी नेताओं को लाचारी नजर आयी होगी। उन्हें यह लगा होगा कि जब ये लोग राज्य देगा हीं नहीं तो जो मिलता है वही ले लो। ऐसा ही लगता है कि झारखंड के नेताओं ने सोचा था।

राष्ट्रपति महोदय अलग झारखंड राज्य से कम पर कोई समझौता नहीं
हमने मन ही मन तय किया कि झारखंड की जनता को बतायेंगे कि उनके साथ दगा किया गया है। अन्याय किया गया है। मैंने माननीय राष्ट्रपति जी से कहा कि सर मैं राजनीति के खेल को अच्छी प्रकार नहीं समझता। मैं इस खेल में नया आया हूं पर एक बात अच्छी प्रकार से जानता हूं कि सच्चाई का साथ देना चाहिये। सच्चाई यह है कि पचास वर्षो से झारखंड क्षेत्र की जनता पीस रही है अन्याय एवं अनाचार से। हमारी सभ्यता संस्कृति सभी नष्ट हो रहें है। हमारी पहचान मिट रही है। हम अपने आपको तभी बचा पायेंगे जब जमीन पर कानून बनाने एवं स्वामित्व का अधिकार झारखंडियों का होगा। यह सिर्फ अलग झारखंड राज्य से ही संभव है। इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है। सर हम किसी भी प्रकार के परिषद के निर्माण पर सहमति नहीं दे सकते। यह झारखंडियों के साथ बेईमानी होगा।

आपको प्रधानमंत्री से बात करनी चाहिये-
संसद भवन में जनता ने हमें इसलिये भेजा है कि हम झारखंड अलग राज्य की बात करें। हम उनके साथ धोखा नहीं कर सकते। महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने थोड़ी देर तक मेरी तरफ देखा और कहा कि आपको देश के प्राधानमंत्री से बात करनी चाहिये। वे मान जाते हैं तो आपकी मांग पूरी हो सकती है। इस पर मैंने कहा कि माननीय महोदय प्रधानमंत्री जी के साथ व्यक्तिगत तौर पर कभी बातचीत नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं बुलाया। जो भी वार्ता हुई माननीय गृहमंत्री जी के साथ ही हुई।

झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे -
राष्ट्रपति महोदय हम तो बड़े भाग्यशाली हैं कि आपने हमें बुलाया। और हमारी बातें इतनी देर तक सुनते रहे। हम तो अनुभवहीन लोग हैं। हो सकता है अज्ञानता के कारण हमने कोई गलत बात आपसे कह दी हो। हम क्षमा प्रार्थी हैं सर। इस पर माननीय राष्ट्रिपति मुस्कुराये। हमने कहा कि जब देश का सर्वोच्च व्यक्तित्व प्रभावित हुआ है, तो आपके आशीर्वाद से हम एक न एक दिन झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे। ऐसा विश्वास हमें आपसे मिलने के बाद पैदा हो गया है।

मेरे बारे में राष्ट्रपति महोदय ने पूछताछ की -
अचानक राष्ट्रपति महोदय ने पूछा कि आप राजनीति कितने सालों से कर रहे हैं ? सर, मैं पहली बार लोक सभा का सदस्य बना हूं। वह भी अपने स्वर्गीय पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद लोक सभा की जो सीटे खाली हुई, उससे उपचुनाव में जीत कर आया हूं। मैने चुनाव जीता 10 जून 1992 को। करीब ग्यारह महीने हो रहे हैं। अगला सवाल पूछा गया कि उससे पहले क्या करते थे? मैंने कहा कि पटना हाई कोर्ट के रांची खंडपीठ में सरकारी वकील था। और अगर चुनाव न लड़ता और समय न बदलता तो आपकी कलम से मेरी नियुक्ति हाई कोर्ट के जज के रूप में हो गई होती।

यह सुनकर उन्होंने कहा कि वे रांची को अच्छी तरह जानते हैं। और कई बार वहां गये भी। राष्ट्रपति महोदय को न जाने क्या सुझा उन्होंने मुझसे कहा कि आजकल तुम कहां रहते हो क्या गिरिडीह में रहते हो? मैंने कहा कि सह मैं धनबाद में रहता हूं वहां हमारा पैतृक घर है। तब उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स के बारे में सुना है? मैंने सिर्फ कहा कि हां तब उन्होंने बताया कि वहां मेरा नाती पढता था, माइनिंग इंजीनियरिंग में। इस पर मैंने उनको बताया कि मैंने भी माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री वही से हासिल की है। और 1968 में पास हुआ था। तो वे बोले की उनके नाती उनसे कई साल सीनियर थे।

इस प्रकार की वार्ता भी राष्ट्रपति जी से हुई। इस बीच कई बार उनका सुरक्षा कर्मी भीतर आया और घड़ी की सुई की ओर इशारा किया। पर माननीय राष्ट्रपति महोदय वार्ता को हर बार आगे बढाते रहे। इस प्रकार आधा घंटा बीत चुका था।

राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन -
अंत में हमने अपना ज्ञापन उन्हें सौंप दिया और एक प्रति पर अन्दर के प्रथम पृष्ट पर उनका हस्ताक्षक मांगा। राष्ट्रपति महोदय ने मजाक किया और कहा कि आपलोग बड़े चतुर मालूम पड़ते हो। इस ज्ञापन के अंदर हमसे हस्ताक्षर कराकर अपने दल में शामिल करना चाहते हो। उन्होंने कहा कि वे ज्ञापन के मुख्य पृष्ट पर अवश्य हस्ताक्षर कर देंगे। उन्होंने अपनी कलम उठाई और हस्ताक्षर करना चाहा लेकिन मुख्य पृष्ट प्लास्टित कोटेड था, कलम फिसल गई। और लिखा नहीं जा सका। तब उन्होंने कहा कि इसके लिये उपयुक्त कलम लेकर आता हूं। कक्ष काफी बड़ा था उन्हें चलने में बड़ी कठिनाइयां हो रही थी। मैं लपकता हुआ लगभग मेज तक पहुंच गया। मोटी सी मारकर पेन लेता तब तक वे भी पहुंच गये। उन्होंने पेन लिया और वापस आये। मैं तो साथ ही गया और साथ साथ ही आया। उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।

उन्होंने मुझसे कहा कि किस लिपि में हस्ताक्षर करूं देवनागरी या रोमन में ? मैंने कहा देवनागरी में। उन्होंने उस प्लास्टिक कवर पर देवनागरी में हस्ताक्षर(शंकर दयाल शर्मा) कर दिया। हमने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति से हमें इतना प्यार एवं स्नेह मिलेगा। हम अभिभूत थे। हमने उनसे आग्रह किया था कि समय मिले तो ज्ञापन को एक बार अवश्य देख लेने की कृपा करेंगे। उन्होंने जवाब में सिर्फ सिर हिलाया था। हमने उन्हें प्रणाम किया और धीरे धीरे कक्ष से बाहर आ गये। (जारी)

झारखंड राज्य के मुद्दे पर ........

सांसद के वजाय जज बन जाता तो बढिया रहता-
राष्ट्रपति भवन से निकलने के बाद बाहर बहुत गर्मी थी। गाड़ी तक आते आते पसीना आने लगा था। लगता था कि हमारा रक्त चाप बढ गया था। हम खामोश थे। वार्ता के दौरान जो तथ्य हमारे सामने आये थे उससे हमें गहरा दुख पहुंचा था। हमारी आशा वार्ता के बाद निराशा में बदल चुकी थी। हमारी बुद्दी काम नहीं कर रही थी। हम खामोश अपने अपने निवास पहुंचे थे। पाइल्स से भी मुझे परेशानी हो रही थी।
नॉर्थ एवेन्यू के 22 नम्बर फ्लैट में बैठा बैठा सोच रहा था कि मैं अब क्या करुं ? सांसद बनना मेरे लिये नुकसान साबित हो रहा था। पिताजी के मृत्यु के बाद मैं क्यों लड़ा चुनाव। मायूसी हो रही थी। सिर्फ चार वर्ष सांसद बनने के लिये। इससे अच्छा मैं अपने धंधे में था। लेकिन यहां नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनने वाला कौन था। महामहिम राष्ट्रपति जी ने हमें स्वयं बुलाया था। क्या इसलिये बुलाया था कि सिर्फ हमें निराश कर दिया जाये। क्या यह बताने के लिये झारखंड राज्य की मांग करना एक बचकानी और गलत हरकत थी। क्या झारखंड अलग राज्य की मांग को खत्म करना इतना जरूरी था कि देश के सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति को हस्तक्षेप करना पड़े ? क्या हमारा आंदोलन इतना भारी हो चला था कि झारखंड के अन्य सारे दलों की सहमति की अहमियत कम हो गई थी? क्या मात्र हमारे ही अलग राज्य के आंदोलन से सब भयभित हो गये थे? क्या लोग जानते थे कि मार्डी गुट द्वारा अलग राज्य की मांग को आगे बढाना परिषद के गठन में बहुत बड़ा बाधक बन गया था ? हमारे मन में कई विचार आ रहे थे। काफी दिनों तक दिल्ली में ही रहा।
गृह मंत्रालय से बुलावा -
12 अगस्त 1994 को एक साल तीन महीने बाद मुझे माननीय गृहमंत्री जी के पार्लियामेंट स्थित ऑफिस से फोन आया कि मुझे बुलाया गया है। झारखंड के संबंध में बातचीत करने के लिये। इस एक साल तीन महीने में बहुत सारी की घटनाएं घट चुकी थी। हमने फिर से आंदोलन को तेज कर दिया था।
(पटना में पहली बार झारखंड आंदोलन की रैली - पहली बार झारखंड आंदोलन के इतिहास में पटना शहर में अलग राज्य की मांग को लेकर रैली किया था। दिन था 3 सितंबर 1993 ई.। बहुत भारी भीड़ वहां जमा हो गई थी। नेता, विधायक और कार्यकर्ता सड़क मार्ग तथा रेल गाड़ियों में लदकर पटना पहुंचे थे। बहुत से ट्रेने लेट हो गई।
रैली गांधी मैदान से स्टेशन तक, फिर स्टेशन पटना जंक्शन से हार्डिंग पार्क – विधायक निवास – इनकम टैक्स मोड़ होते हुए राज्यपाल भवन की ओर जा रही थी। राज्यपाल के निवास के सामने बैरिकेड खड़ा कर रास्ता बंद कर दिया गया था। सैकड़ो की संख्या में पुलिस बल तैनात था। भीड़ इतनी थी कि राज्यपाल निवास से इनकम टैक्स मोड़ तक खचाखच भरा हुआ था। आश्चर्य तो हुआ होगा सभी को। क्योंकि झारखंड आंदोलन को मुर्खों, पिछड़े, दलितों, आदिवासियों के आंदोलन के रूप में मशहूर था और इसी नजर से देखा जाता रहा और प्रचारित किया जात रहा। अहमियत देने की बात तो दूर इसे घृणा की नजर से देखा जाता था।)
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल से मुलाकात -
खैर हमने उन्हें सारी बातों से अवगत कराया कि किन परिस्थितियों में और किस कारण हम पश्चिम बगांल की राजधानी कोलकाता भी पहुंचे थे। क्यों हम पश्चिम बंगाल के पुरूलिया, झाड़ग्राम, तथा मेदनीपुर जिलों को झारखंड क्षेत्र मानते हैं। झामुमो मार्डी का आंदोलन वृहत झारखंड का था और क्यों था इस पर हमने विस्तार से प्रकाश डाला था। माननीय राज्यपाल बंगाल ने हमारी बातों को ध्यान से सुना। उन्होंने हमें चाय पिलाई और हमारा ज्ञापन लिया और कहा कि हमारे संदेश को और हमारी मांग को भारत सरकार तक पहुंचा देंगे।
पश्चिम बंगाल के ये तीनों जिले हर प्रकार से दक्षिण बिहार के झारखंड क्षेत्र समान है। इन क्षेत्रो के भाषा संस्कृति एक है। इन क्षेत्रों में रहने वाली जातियां समान है। इनके पर्व त्योहार, लोक गीत, लोग संस्कृति, पूजा पाठ सभी एक सम्मान है। हम राज्यपाल भवन से निकले तो हम खुश थे क्योंकि एक तो रैली सफल थी दूसरी राज्यपाल हमें बुलाकर हमारी बातें सुनी थी। झारखंड आंदोलन का यह दुर्भाग्य था कि झारखंडी पचास साल से अलग राज्य की मांग कर रहे थे। सभी उनकी बातें सुनते रहे थे, पर उन्हें हासिल कुछ नहीं होता था।
गृहमंत्री से वार्ता
12 अगस्त 1993 को हमें माननीय गृह मंत्री भारत सरकार ने तीसरी बार बुलाया था। मैं दिन के दो बजे अकेले ठीक समय पर संसद भवन पहुंच गया था। श्री मार्डी दिल्ली में नहीं थे। अत: वे नहीं जा सके। जब मैं अंदर पुहंचा तो देखा मंत्री जी सामने बैठे थे। उनकी बाई ओर दो सेक्रेटरी एक गृह सचिव स्वयं और एक विशेष सचिव बैठे थे। मैंने उन्हें नमस्कार कर सामन रखी मेज पर बैठ गया। बिना समय गवाएं उन्होंने कहा कि अंतिम फैसला हो चुका है। अभी झारखंड क्षेत्र के विकास के लिये परिषद दिया जा रहा है। आप इस परिषद के प्रारुप को देख ले और कोई सुझाव हो तो दे दें।
मैंने उनकी बातों का यह कहकर जवाब देते हुए कहा कि सर मैं तो किसी भी प्रकार के परिषद के विरूद्द रहा हूं। और आप जानते हैं कि मैं सिर्फ अलग राज्य की मांग करते रहा हूं तो फिर मुझे क्यों बुलाया गया है ? फिर आप चाहते हैं कि परिषद के प्रारूप को देखूं और किसी विषय पर सूझाव या संशोधन का प्रस्ताव रखूं तो इसका अर्थ यही हुआ कि अप्रत्यक्ष रूप से परिषद पर समर्थन लेने में आप सफल हो गये। इस पर खिन्न हो कर उन्होंने कहा कि अभी तो सरकार यही देगी। आपको देखना है तो ले लें। मेरी उत्सुकता तो पहले से ही बनी हुई थी कि आखिर यह किस प्रकार का परिषद दिया जा रहा है जिसकी वकालत बड़े बड़े बुद्दिजीवी और हमारे झारखंड के सभी नेता कर रहे हैं। अलग राज्य से बेहतर आखिर इस विकल्प को क्यों माना जा रहा है ?

मुझे परिषद के प्रारूप की जगह गोरखा काउंसिल की प्रति थमा दी -
मैंने सचिव से प्रस्तावित परिषद का प्रारूप मांगा। उन्होंने गृहमंत्री जी कहा कि अभी इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया अर्थात फाइनल ड्राफ्ट तैयार नहीं हो सका है। तब मैंने कहा कि रफ ड्राफ्ट बना हो तो वही दिखा दें। मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि उनके पास रफ ड्राफ्ट की कॉपी भी नहीं थी। माननीय गृहमंत्री की ओर देखते हुए मुझे एक कॉपी दी। जब मैंने उसे देखा तो पाया कि वह गोरखा हिल काउंसिल की एक प्रति थी।

मै थोड़ी देर के लिये यह भूल गया कि मैं गृह मंत्रायल के दफ्तर में हूं तथा माननीय गृहमंत्री एस वी चव्हान मेरे सामने विराजमान हैं। सचिवों के इस हरकत से लगा कि उन्होंने मुझे ठेस पहुंचा दिया है। मेरी भावनाओं के साथ मजाक किया गया। इसका तो यही अर्थ होता है कि यह सब एक नाटक भर था। हमें बुलाने का अर्थ सिर्फ इतना था कि परिषद को देने से पहले सबको दिखला दिया गया था। सबकी राय ले ली गई थी। अचानक आक्रमक मुद्रा में मैंने सचिवो से कहा कि इस गोरखा हिल काउंसिल को मैंने बहुत पहले ही देखा है। क्या आपलोग समझते हैं कि जो लोग झारखंड अलग राज्य की मांग को तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढा रहे हैं वे गोरखा हिल काउंसिल के प्रारूप भी नहीं देखा होगा? हमने राष्ट्रपति जी को भी अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी।
गृहमंत्री चव्हान को करारा जवाब -
मैंने माननीय गृहमंत्री की ओर मुखातिब होकर कहा कि सर, मुझे अपार दुख हो रहा है यह देखकर कि जिस गृहमंत्रालय का भार सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं ने संभाला है और देश की एकता के लिये बड़े बड़े निर्णय लिए गये। देशी रियासतों को एक एक करके प्रजातंत्र में शामिल किया गया। उस मंत्रालय में अपने ही देश के आदिवासी-दलितों के नेताओं के साथ मजाक किया जा रहा है। यह गृह मंत्रालय तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि एक खिलौने की दुकान बन गया है। पांच वर्ष के बच्चे को झूनझूना पकड़ा दिया गया। उससे छोटा आया तो मुंह में चुसनी लगा दी। उस बड़ा आया 10-15 साल का तो उसे लकड़ी की बन्दूक पकड़ा दी। उन्हें बहला दिया। फूसला दिया। सर मैं बच्चा नहीं हूं। मुझे दुख है कि आपने हमारा मखौल उड़ाया।
कहते कहते मैं उत्तेजित हो गया था। फिर शांत हो गया और गृहमंत्री जी से माफी भी मांग ली थी।

झारखंडी नेता हंस रहे थे अपने ही लोगों पर
गृहमंत्री से बातचीत के बाद जब हम बाहर निकले तो देखा कि सूरज मंडल(सांसद) और डा. राम दयाल मुंडा सहित कई झारखंडी नेता बाहर खड़े हंस रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा कि बात हो गई ? सुझाव दे दिये ? मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और संसद भवन से बाहर आ गया। और अपनी गाड़ी की ओर चल दिया।
झारखंड स्वायतशासी परिषद’ का अधिनियम बिहार विधान सभा से पारित -
बहरहाल, इसके बाद भी हमने कई बड़े बड़े कार्यक्रम अलग झारखंड राज्य की मांग को आगे बढाने के लिये किये। पर अंतत: 24 दिसंबर 1994 को ‘झारखंड स्वायतशासी परिषद’ का अधिनियम बिहार विधान सभा से पारित हो गया। हम वहां मौजूद थे। गैलरी में बैठे मैं तथा कृष्णा मार्डी देख रहे थे कि सूरज मंडल, सुधीर महतो और शिबू सोरेन आदि नेता भी वहीं थे। सूरज मंडल मेरे पास आये। उस वक्त सूरज मंडल बिहार के छाया मुख्यमंत्री माने जाते थे। झामुमो सोरेन के सबसे चर्चित नेता थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या हमारे पास इस परिषद की प्रति है? मैं चकित था कि जिस परिषद को प्राप्त करने के लिये शिबू सोरेन और सूरज मंडल ने अलग राज्य की मांग को छोड़ा था, उस परिषद का प्रारूप भी उन्हें नहीं मालूम था। (समाप्त)

Monday, June 23, 2008

इमरजेंसी गरीबों की आवाज को दबा नहीं सकेगी। मुझे लोग याद रखें या नहीं इसकी चिंता नहीं लेकिन गरीबों के हक की लड़ाई जारी रहेगी। (भाग-1)

लेखक-राजकिशोर महतो
झारखंड के मूलवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था। उनके जमीन जायदाद हीं नही हड़पे जाते थे बल्कि आवाज उठाने वालों की हत्या कर दी जाती थी। पुलिस भी शोषण करने वालो का हीं साथ देती थी। न्यायलय तक गरीबों की पहुंच नहीं थी। वे कोर्ट कचहरी के नियम-कानून से परिचित नहीं थे। ऐसे में झारखंड के गरीबों के लिए उठ खड़े हुए बिनोद बिहारी महतो। इन्होंने सीधी कारवाई का एलान किया। लोग जागरुक हुए। पारंपरिक हथियार उठाए। प्रशासन सकते में आ गई। बिनोद बाबू को झारखंड वासी अपना मसीहा मानने लगे। उन्हें जेल में डाल दिया गया। माननीय न्यायधीश ने उनसे कहा कि यदि आप शांति का आश्वासन दें तो आपको छोड़ा भी जा सकता है। लेकिन बिनोद बाबू ने ऐसा कोई आश्वासन देने के वजाय जेल में रहना मंजूर किया। कहा जाता है कि यदि बिनोद बाबू न्यायलय के समक्ष उस समय सरेंडर कर देते तो गरीबो पर जुल्म झारखंड में कम होने की वजाय और तेजी से बढ जाती। और अलग झारखंड राज्य की मांग वहीं समाप्त हो जाती। इमरेजेंसी के दौरान सरकार ने बिनोद बाबू के साथ न्याय नहीं किया। इस पर विस्तार से अपने अनुभव को लिखा है बिनोद बाब के पुत्र और विधायक राजकिशोर महतो ने।

देश का उच्चतम न्यायलय। इसकी विशाल एवं भव्य इमारत। उपर बने खूबसूरत गुम्बद। भीड़। चहल-पहल। काले कोर्ट वालों का कार्यस्थल। एक सम्मोहन सा पैदा करने वाला और मैं बार-बार उस इमारत के अंदर जाता और चारो ओर देखता रहता। वर्ष 1975 की बात है। देश में इमरजेंसी लागू हो चुकी थी। विरोधी दलों के नेताओं सहित कई अन्य प्रकार के अपराधियों की धर-पकड़ बढ गई थी। निषेद्यज्ञा कानून के तहत सभी जगहों पर पूरे देश में पुलिस एवं प्रशासन सक्रिय था। निषेद्यज्ञा कानून का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा था। देश के कचहरियों में, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की तादाद बढ रही थी।
बिनोद बाबू ‘मिसा’ के तहत गिरफ्तार और मैं वकील की तलाश में -
मेरे पिता श्री बिनोद बिहारी महतो को भी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत, जिसे बोल चाल की भाषा में ‘मीसा’(मेन्टेनेन्स ऑफ सेक्यूरिटी एक्ट) कहा जाता था, गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हीं को छुड़वाने के लिये मैंने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के खिलाफ याचिका दायर की थी। दिनांक 1 अक्टूबर 1975। उस दिन सुनवाई की आखिरी तारीख थी। जस्टीस पी. एन. भगवती एवं सरकारिया की खंडपीठ में सुनवाई चली थी। मेरे वकील श्री सिन्हा ने बहस किया था। श्री सिन्हा को पहले से में नहीं जानता था। हुआ यों की मैं उस वक्त के नामी-गिरामी वकील श्री अशोक सेन को इस मुकदमे की पैरवी के लिये रखना चाहता था। और इसके लिये मैं अपने चचरे भाई के साथ जो मात्र बीस साल के आसपास का रहा होगा, के साथ दिल्ली आया था। मेरी उम्र भी उस समय सताइस-अठाइस वर्ष की थी। इमरजेंसी के उस दौरान मेरे पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो मुझे सलाह दे सकता था और कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाता। हालत तो यहां तक खराब थी कि कोई हमारे घर पर या आसपास भी डर के मारे भटकता भी नहीं था।
एडवोकेट और देश के कानून मंत्री अशोक सेन से मुलाकात -
हम श्री सेन के यहां रात आठ बजे पहुंचे थे। श्री सेन उस वक्त भारत सरकार के कानून मंत्री थे। जब हम उनके बंगले के पास ऑटो से पहुंचे तो पता चला कि वे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाकात करने गये थे और लौटने वाले थे। मैं वहीं उनका इंतजार उनके बैठक रूम में अन्य लोगों के साथ करने लगा। वहां टेलीविजन चल रहा था और लोगों को चाय पिलाई जा रही थी। हम वहां चुपचाप बैठे थे। उनके एक कर्मचारी श्री मौइता ने मुझे श्री सेन से मिलवाने का आश्वासन दिया था।

रात के नौ बजे श्री सेन आए। उनके साथ कई गाडियां थी। वे अपने चेंबर में घुसे और एक-एक कर सभी लोगों को बुलाना शुरू किया। आधे घंटे के बाद हमें भी वहां ले जाया गया। श्री सेन के बंगले में चारो तरफ दीवारों पर आलमारियां बनी थी और गलियारों तक में रैक बने थे। सभी में किताबे थी। मेरे लिए इतने बड़े लाइब्रेरी को देखना भी एक सौभाग्य हीं था।

मैं आश्चर्य के साथ उनके चेम्बर की भव्यता को निहार ही रहा था कि श्री सेन ने आने के कारण पूछा। मैंने सारी बाते उन्हें बताई। उन्होंने बताया कि वे मेरे पिताजी के नाम से वाकिफ थे। पर अभी वे उनका केस ले नहीं सकते थे। उन्होंने कहा कि वे एक महीना तक बहुत व्यस्त हैं। और मुझे दूसरे वकील के पास जाने को कहा। बातचीत के क्रम में वे मुझसे काफी प्रभावित सा नजर आये और उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या आप एक वकील हैं ? मैंने बताया कि मैं एक माइनिंग इंजीनियर था। श्री सेन के केस लेने से मना करने पर मेरा चेहरा उतर सा गया था, जिसे उन्होंने भांप लिया था। उन्होंने उस समय अपनी पत्नी को आवाज दी – ‘ओगे सुन छो’ बंगला में पुकारा। उनकी पत्नी आई तो उन्होंने कहा कि जाओ इन दोनो को मिठाई खिलाकर विदा करो।
मुझे श्री सेन के इस व्यवहार से बड़ा आश्चर्य हुआ। यह बात मैं कभी भूल नहीं पाता कि उनकी पत्नी मुझे एवं मेरे चचेरे भाई को अन्दर ले गई एवं रसगुल्ला खिलाया था एक नहीं चार-चार।और सम्मान में बाहर तक छोड़ने भी आई थीं।

पुलिस से डर भी लग रहा था -
जब हम बाहर निकले तो रात के दस बज चुके थे। सड़क पर चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। वहां आसपास कोई टैक्सी या ऑटो रिक्सा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मैं परेशान हुआ कि चांदनी चौक के अपने हॉटल तक कैसे जाया जाये। कोई चारा नहीं देखकर हम सीधे अंदाज से चांदनी चौक की ओर बढने लगे। रास्ते में पुलिस गुजरती तो हम सहम जाते। इस इमरजेंसी में पता नहीं किसे पकड़ ले पुलिस। इतनी रात को सड़क के किनारे में चलने में भी डर सा लग रहा था। हम सीधे चलते रहे। आंधे घंटे के बाद हम कनॉट प्लेस पहुंच चुके थे। इस इलाके को पहचानने लगा था। दिल्ली में रास्ते को पहचानना भी नये आदमी के लिये मुश्किल होता है। वहां हमें दूर एक ऑटो जाते दिखा। मैंने आवाज देने की कोशिश की लेकिन आवाज हीं नहीं निकली। गनीमत था कि हमें देखकर ऑटो वाला हमारे पास आ गया। पांच रूपये में चांदनी चौक चलने को राजी हुआ। चांदनी चौक के हॉटल पर रात साढे बारह बजे पहुंचे। वहीं नीचे ठेले पर खाना खाया और सो गया। चांदनी चौक के उस पुराने से होटल में मैं दिल्ली यात्रा के दौरान ठहरता था। सौलह रुपये में डबल बेड का कमरा मिल जाता था। संडास अलग से बाहर था। वहीं से मुकदमें की पैरवी के लिए सुप्रीम कोर्ट आता और इधर-उधर घूमता रहता। खैर, श्री सेन ने मुझे श्री सिन्हा के पास भेजा था। हमारे हाई कोर्ट के वकील श्री राम नन्दन सहाय ने भी श्री सिन्हा का नाम सुझाय था।

हक की लड़ाई के लिए पिताजी की जेल यात्रा 1968 में शुरू हुई -
1968 ई. में मैंने भारतीय खनि विद्यालय (इंडियन स्कूल ऑफ माईन्स) से माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। उस जमाने में वहां दाखिला बड़ी मुश्किल था। अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा होती थी। माइनिंग ब्रांच की मात्र 90 सीटें थी। भारत के और किसी भी जगह माइनिंग की इस स्तर की पढाई नहीं होती थी। माईनिंग की पढाई हीं देश में दो-तीन जगहों पर होती थी।वहां से पास कर जाने के बाद मैं एन.सी.डी.सी. नेशनल कोल डेभलपमेंट कॉरपोरेशन सुदामडीह में नौकरी पर गया । वहीं एक होस्टल में जगह मिली थी, पर धनबाद पास में ही था, सो घर पर ही रहता था। कभी कभी वहां भी रहना पड़ता।

मेरी शादी जब मैं इंजीनियरिंग के आखरी वर्ष में था, कर दी गई थी। मेरे दो लड़के भी 1974 तक पैदा हो गये थे। रजनीश एवं राजेश। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर माइनिंग का जॉब मैंने छोड़ा क्यों था ? 1968 ई. से ही पिताजी ‘शिवाजी समाज’ नामक जातीय संस्था चलाने लगे थे। फिर 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था। उससे पहले वे कम्यूनिष्ट पार्टी के नेता रहे थे। उन्हें अन्याय बिल्कुल हीं बर्दास्त नहीं होता था। खासकर अन्याय करने वाले से ज्यादा वे अन्याय सहने वालों पर नाराज होते थे। उनके नेतृत्व में उग्र विरोध एवं उग्र आन्दोलन होने लगे थे। इन्हीं कारणों से उनपर दर्जनो केस हो गये थे।

इधर 1971 में मैं सुदामडीह छोड़ दिया था। पिताजी बहुत नाराज थे। पर उसी साल मैंने रांची के लॉ कालेज में दाखिला ले लिया था। इससे धीरे धीरे उनकी नाराजगी कम हो गई थी। 1968 से ही पिताजी बार बार जेल जाने लगे थे। घर में अशांति का वातावरण रहता। सभी डरे रहते। छोटे भाई बहन सभी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे।

भाग - 2

आपातकाल के दौरान बिनोद बाबू की जेल यात्रा -
1975 ई. मार्च महीने की तारीख बड़ी कष्ट लेकर आई थी। पिताजी को धनबाद जिला कोर्ट से जहां वे वकालत करते थे, पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। और उन्हें धनबाद में नहीं रख कर कतरास थाने ले गई थी। फिर एक दिन बाद धनबाद जेल भेजा था। उनका बेल संबंधित केस में हो गया था, पर जब वे जेल से निकलने ही वाले थे कि उन्हें निषेद्यज्ञा कानून के तहत पुन: जेल में बंद कर दिया गया। ‘मीसा’ ‘पोटा’ की तरह हीं एक ऐसा कानून था जिसमें जिले के उपायुक्त यानि डिस्ट्रीक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को एक साल तक के लिए जेल में बंद रखने के लिए आदेश कर सकता था। उसके लिए उसे किसी तार्किक निर्णय पर नहीं पहुंचना पड़ता था। इतना ही काफी था कि उसके पास ऐसे आधार थे जिससे उसे लगता कि इस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेना है। यहां ऑबजेक्टिव नहीं सब्जेक्टिव की बात थी। मीसा यानि मेन्टेनेन्स ऑफ इंटरनल सेक्यूरीटी एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा था। देश में इमरजेंसी लगी थी। विपक्ष की नेताओं को धड़ले से अंदर किया जा रहा था। पिताजी को भागलपुर सेंट्रल जेल ले जाया गया था। धनबाद में प्रशासन को जनाक्रोश और धरना प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा था।

इमरजेंसी के दौरान अपने भी कन्नी काटने लगे -
हम विचित्र परिस्थिति में फंस चुके थे। मेरा कैरियर तो खत्म हो चुका था। माइनिंग छुट गया था। अगर दुबारा कोलयरी जाता तो घर कौन संभालता। लिहाजा पिताजी को छुड़ाने और घर की व्यवस्था में जुट गया। उस समय इमरजेंसी के डर से नाते-रिश्तेदार भी घर पर नहीं आते थे। पिताजी के पहचान वाले, उनसे उपकृत लोग भी हमसे कन्नी काट लेते थे। कहीं से आर्थिक मदद के बारे में सोचना भी कठीन था। मेरी एक पुरानी ट्रक थी और एक छोटा सा मोजाइक टाडल्स बनाने का यूनिट था। खर्चा इन्हीं से चलाना पड़ता था। बाकि कुछ किराया आ जाता था। मैं जब धनबाद में होता, सुबह छह बजे उठकर झरीया चला जाता और ट्रक पर कोयला लोड करवाता और फिर लोटकर दूसरा काम। बच्चों का दाखिला स्कूल में करा दिया था।

हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेशी -
इस बीच पिताजी को पटना हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेश करना था। गिरफ्तार होने के बाद, इसके अवधि की पुष्टि यही बोर्ड करती थी जिसमें हाई कोर्ट के तीन जज हुआ करते थे। पिताजी की केस में माननीय मुख्य न्यायधीश के.बी.एन. सिंह एवं अन्य दो जज बोर्ड में थे। उन्हें जिस तारीख को पटना लाया गया, मैं वहां उपस्थित था। हाई कोर्ट परिसर में उन्हें सीधे भागलपुर सेन्ट्रल जेल से जीप में बैठा कर लाया गया था। पुलिस की गारद थी। वे हाई कोर्ट की सीढियों को चढते हुए ऊपर आये एवं गैलियारे में बढने लगे।

पूरे हाई कोर्ट में सनसनी फैली थी। एक वकील को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था। वकील काफी उत्सुक थे। और तरह-तरह की बातें हो रही थी। बातें एवं चर्चाएं तो उस दिन से हो रही थी जब से वे राजनीति में सक्रिय हुए थे। पिछड़े वर्ग का महतो समुदाय का झारखंड क्षेत्र का आदमी बड़ी बड़ी बातें करता था। वे पहले वकील थे अपने समुदाय जिला कोर्ट में। वैसे हीं सभी टेढी नजर से देखते थे। ऊपर से सफल वकील और राजनीतिज्ञ। 6 मार्च 1975 में टुंडी प्रखंड के किसी केस में धर लिये गये। बेल पीटीशन सी.जी.एम के यहां किसी केस में दाखिल हुआ। ग्यारह मार्च तक कोई ऑडर नहीं दिया। सेसन्स जज के यहां 14 मार्च को बेल पीटीशन दाखिल हुआ। जमानत तो दे दिया गया लेकिन मेजिस्ट्रेट ने जमानतदार के कागज को देखने में चार दिन लगा दिया। 18 मार्च को छोड़ने का आदेश हुआ। उसी तारीख को उन्हें छोड़ा नहीं जा सका। रीलीज ऑर्डर कोर्ट से जेल जाने में तीन दिन लगा। 21 मार्च को रिहा होकर जेल गेट से बाहर निकले ही थे कि पुन: गिरफ्तार किया गया मीसा के तहत एवं फिर उल्टे पांव अंदर कर दिया गया। वहीं मीसा का नोटिस उन्हें दिया गया। उस नोटिस में उपायुक्त ने गिरफ्तारी के आदेश पर 18 मार्च को हस्ताक्षर किया था। ऐसा प्रतित होता है कि कोर्ट को पता था कि अब उन्हें मीसा में लिया जायेगा और आदेश पर हस्ताक्षर होने ही वाले हैं। तभी तो 11 मार्च 1975 से 21 मार्च 1975 तक बेलर के कागजात की जांच में तथा जमानत आदेश को जेल तक भिजवाने में लग गये।

पिताजी पर आरोप था कि उनकी हरकतों के चलते लोक व्यवस्था पब्लिक ऑर्डर भंग हो रही थी और इस लोक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्हें जेल में एक वर्ष तक बन्द रखना जरूरी था। इस संबंध में कई मुकदमों का जिक्र किया गया था, जो पिताजी के चलते हुए एवं कई घटनाओं को उदाहरण स्वरूप नोटिश में दिया गया था जिससे लोक व्यवस्थ चरमरा गई थी।

29 अगस्त 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 3 नवंबर 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 4 फरवरी 1974 गोल्फ मैदान धनबाद की मीटिंग, 25 फरवरी 1874 कतरास सिरामिक की घटना, 1 नवंबर 1973 मोरचोकोचा महतो टांड की घटना, 3 मार्च 1974 सिंहडीह में जीटी रोड पर जुलूस, 5 मार्च 1974 में दुमुन्डा, टुंडी में हुए मारपीट की घटना जिसमें कई आदिवासी मारे गये थे। वे बड़े गर्व से सीना ताने आगे बढ रहे थे। वे अपने सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह कमीटेड थे।

तत्कालीन व्यवस्था में बिनोद बाबू को विश्वास नहीं था -
वे इस व्यवस्था को शासन करने की प्रणाली को शोषण पर आधारित समझते थे। ऐसा शोषण जो मेहनतकश, शारीरिक श्रम करने वालों, खेती करने वाले किसान एवं मजदूरों के शोषण पर टिका है और चंद ‘पेरासाइट’ जो शारीरिक श्रम नहीं करते सिर्फ दूसरों को आदेश देने का काम करते हैं मौज कर रहें हैं। इस समाज व्यवस्था में उनकी पूछ उनका स्तर, उनका वेतन, उनका मूल्य शारीरिक श्रम करने वालों से बहुत ज्याद होता है। जबकि शारीरिक श्रम करने वालों को हेय समझा जाता है। एक वकील होने के बाद उन्हें इस व्यवस्था का काफी ज्ञान हो गया था। और उनका विश्वास अपने सिद्धांतों के प्रति और बढ गया था। कानून प्रक्रिया की जटिलताएं एवं खर्च के कारण अनपढ इस कानूनी लड़ाई के माध्यम से अपना हक एवं अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट 1908 को ही ले। इसमें एक प्रावधान है कि आदिवासियों-हरिजनों यानि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों की जमीनें कोई दूसरा गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। उनका हस्तानांतरण होगा पर अपने हीं दूसरे जनजाति या जाति के साथ, पर उनमें भी जिले की क्लेकटर की अनुमति की आवश्यता जरूरी है। पर इस कानून के रहते आदिवासिय-दलित समुदाय के जमीनों का हस्तांतरण होता रहा और गैर आदिवासी-दलित समुदाय के लोगों के हाथों में जाता रहा।

यह कानून इतना कठोर है कि हस्तांतरण रद्द भी किया जा सकता है। पर यह कानून लागू नहीं हो पाया। बिनोद बिहारी महतो ने इसके लिये सीधी लड़ाई का रास्ता अपनाया यानि जो जमीन गलत ढंग से गैर आदिवासियों के कब्जे में चली गई थी, उसे प्राप्त करने के लिये कानून का दरवाजा नहीं खटखटाकर सीधे उस जमीन पर खड़ी फसल काट लेने का उन्होंने रास्ता बताया और इस प्रकार कई जगहों में ‘धान कटनी’ का प्रसिद्द आंदलोन शुरू हो गया। इसी कारण तथा उनके द्वारी चलाये गये अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को दबाने के लिये उन्हें कई मामलों में अभियुक्त बनाया गया। उन्हें इसी कारण ताकि उनकी गति विधियों पर रोक लगे उन्हें ‘मीसा’ के तहत बंद कर दिया गया।

पटना उच्च न्यायलय की गैलरी से पार होते हुए उन्होने मुझे देखा। उनके चेहरे पर क्षण भर के लिये उदासी की लकीर दौड़ गई। पुलिस वाले उनके साथ थे। और भी लोग उन्हें देखने के लिए आगे बढ गये थे। अत: मैं वहीं खड़ा रहा। वे आगे बढे और उन्हें एक कक्ष में ले जाया गया। मैं भी उसमें दाखिल हुआ तो देखा कि वहां पटना उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री सिंह एवं अन्य दो न्यायधीश बैठे थे। कमरे में धनबाद के उपायुक्त श्री झा एवं अन्य पदाधिकारी उपस्थित थे।

भाग - 3

जेल जाना मंजूर था लेकिन सिद्धांत से समझौत करना नहीं -
बिनोद बाबू को एडवाइजरी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया गया। ‘मीसा’ में ऐसा प्रावधान है। चाहते तो वे यहां छूट सकते थे। अगर वे झुक जाते, कोई अंडरटेकिंग करते को भविष्य में इस प्रकार की गति विधियों में लिप्त नहीं रहेंगे तो उन्हें छोड़ा जा सकता था।
पर उनहोंने अपने उपर लगाये गये आरोपो का कोई खंडन नहीं किया बल्कि वहां पर वे कांग्रेस सरकार द्वारा किये जार रहे जुल्म की बात सामने रखा। धनबाद में सूदखोरों, महाजनों और माफियाओं के खिलाफ बोला। बिनोद बाबू ने आरोप लगाया कि धनबाद के उपायुक्त असमाजिक तत्वों को बढावा दे रहे हैं और उनके खिलाफ लड़ने वालों को जेल भिजवा रहे हैं।

ऐसी स्थिति में जाहिर है कि एडवाइजरी बोर्ड के द्वारा उनको छोड़ना मुश्किल था। माननीय मुख्य न्यायधीश ने उन्हें याद भी दिलाया कि यह एडवाइजरी बोर्ड है। और उन्हें छोड़ भी सकती है पर उन्होंने अपने कथन या विचारों में कोई तबदीली नहीं किया। लिहाजा उन्हें एक साल तक जेल में रखने की सलाह बोर्ड ने दे दिया।

मेरी कोई बातचीत वहां पिताजी के साथ नहीं हो सकी। वे पुलिस के जवाने से घिरे रहे। उन्हें जीप में बैठाकर फिर वापस भागलपुर जेल ले जाया गया। वहां भी लोग उनसे मिलने के लिये पहुंचने लगे। खासकर आदिवासी इलाके के लोग। बाद में उन्हें पटना बांकीपुर सैंट्रल में स्थानांतरित कर दिया गया। पटना हाई कोर्ट में उनके परिचित वकील श्री राम नंदन सहाय सिन्हा के द्वारा रीट याचिका दायर किया था पर वह खारिज हो गई। फिर उनकी सलाह से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। मैं केस हार गया था। उस दिन फैसला सुनने के बाद जब मैं सिढियों पर बैठा तो कई विचार मेरे मन में कौंधने लगे।

लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में हीं रहकर निकालना पड़ेगा -
एक दिन जब मैं उनसे मिलने बांकीपुर जेल गया तो वहां पर उनके साथ और कई नौजवान को पाया। बाद में मुझे पता चला कि वे नौजवान थे- श्री लालू प्रसाद यादव, श्री सुबोध कांत सहाय, श्री शिवा नंद तिवारी एवं श्री सुशील मोदी। बिनोद बाबू उनलोगों के पिता के उम्र के थे। बाद में वहीं पर बिनोद बाबू से लालू यादव ने पूछ दिया था कि दादा आप कब छुटेंगे। और हम कब छुटेंगे। उन्होंने बिना रूके हीं जबाब दे दिया था कि लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में ही रहकर निकालना पड़ेगा। भले ही राजकिशोर सुप्रीम कोर्ट तक मामले को ले गया है। पर मुझे विश्वास नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट भी मुझे छोडेगा। श्री लालू प्रसाद ने पूछा ऐसा क्यों दादा? उन्होंने जबाब दिया थी कि यह बात तुम अच्छी तरह समझ लो कोर्ट-कचहरी में भी शासक वर्ग के लोग काबिज हैं। और डाउन ट्रोडन की लड़ाई को लड़ने वालों की बख्शा नहीं जायेगा। खासकर इस इमरजेंसी में तो बिल्कुल नहीं।

पिताजी का कथन सही निकला -
मैंने उनके कथन को बिलकुल सही पाया। महिनों चक्कर लगाने के बाद एवं न्यायलय में सैकड़ों ‘मीसा’ संबंधित मुकदमों को सुनने के बाद ‘मीसा’ कानून की जानकारी काफी हद तक हो गई। श्री आर के गर्ग, सीनीयर एडवोकेट उच्चतम न्यायलय के द्वारा मीसा कानून पर एक सप्ताह तक बहस की गई। संयोग से मैं दिल्ली ही गया था और पूरे सप्ताह तक उस बहस को सुना था। कई प्रावधानों के चलते मीसा कानून को ही चुनौती दी गई थी।

हमें लगा था कि जो फैसला पिताजी के केस में दिया गया वह कानून सम्मत नहीं था। मेरे दिल में एक जलन सी उठी और मैं छटपटा कर रह गया कि काश मैं अपनी बात उन जजों के सामने रख सकता। पर ऐसा संभव नहीं था। मैं वकील नहीं था। वकील होने पर भी क्या सुप्रीम कोर्ट में बहस कर सकता। यहां तो बड़े नामी गिरामी सीनीयर एडवोकेट ही बहस करते हैं। तो मेरे मन में भी जो भावना उठी थी उस पर तुषारपात हो गया था।

अब सवाल था क्या करुं। घर चलूं। वहां मां से क्या कहूंगा ? मुझसे छोटे सभी लोग पढ रहे थे। मुझसे छोटा नील कमल मेडीकल कॉलेज का विद्यार्थी था और पटना में राजेन्द्र नगर मे रहता था। हॉस्टल नहीं मिला था। पिछली बार तारा को पटना भेज कर मेडिकल कॉलेज के इन्ट्रेंस परीक्षा में बैठाया था पर सफल नहीं रही। इस बार भी बैठाना होगा यह तो अच्छा हुआ कि मेरी ससुराल पटना सिटी में है, सो ठहरने और खाने-पीने की कोई समस्या नहीं। बाकी भाई-बहन भी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे। घर का खर्च कैसे चलेगा यह सोच कर एक बार मन उदास हो गया। एक तरफ तो पिताजी बिनोद बाबू लाखों रूपये दान कर दिये स्कूल-कॉलेज बनवाने, झारखंड आंदोलन को आगे बढाने और कई लोगों को आर्थिक मदद करने में। लेकिन दूसरी ओर उनके मुकदमे लड़ने के लिये मुझे अपनी जमीन बेचने पड़ी। घर का खर्च अलग। पिताजी मां को कभी जरूरत से ज्यादा पैसे दिये नहीं। बेचारी अनपढ होते हुए भी समझदार थी। मैं एक ट्रक और एक छोटी मोटी माजाटक टाइल्स बनवाने की फैक्ट्री चलाता था। इस कारोबार और घर के किराये से काम चलाना पडता था। अपने छोटे छोटे बच्चों रजनीश और राजेश की चिंता किये बिना यहां-वहां दौड़ रहा था।

मेरी पत्नी ने हर मुसिबत में साथ दिया -
मेरी पत्नी क्या सोचती होगी? वह करोडपति घर की लड़की थी। जरूर अपनी किस्मत को कोस रही होगी। मेरी पत्नी एक करोड़पति घर की थी और मैं एक माइनिंग इंजीनियर। मैं सोचता रहा मैंने उन्हें क्या दिया? किस प्रकार का जीवन उसे दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने एक दिन भी मुझसे कोई शिकायत नहीं किया। अपनी पत्नी को याद कर उदास हो बैठा। मैं करीब दस मिनट तक ही सीढी पर बैठा रहा। मेरी तंद्रा दब टूटी, जब मेरे वकील ने मुझे पुकारा। मैं उठा और चुपचाप उनको नमस्ते करके चल दिया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं था -
सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला गलत था, ऐसा मेरा मानना था। मीसा कानून के तहत यह रुलींग है कि जो ग्राउंड नोटिस में दिये गये हों उनसे बाहर के तथ्यों पर निषेध आज्ञा आधारित नहीं होनी चाहिये। सरकार द्वारा दायर काउटंर एफिडेफिट यानि जबावी हलफनामें में यह साफ कहा गया था कि नोटिश में दिए गए मामलों के अलावे भी कोई मामले उनके विऱुद्ध लंबिंत थे और गंभीर पद्धति के थे। अत: उनको निषेध करने जेल में बंद करना जरूरी था।

साफ जाहिर है कि निषेद्याज्ञा उन मामलों के अलावे, अन्य मामलों पर आधारित था, जो नोटिस में दिया गया नहीं था। इसी आधार पर हमें केस जीत जाना था। इसके अलावे उपायुक्त धनबाद स्वयं ही इस बात पर निश्चित नहीं थे कि उन्हें राज्य के आंतरिक सुरक्षा को बचाने के लिये पकड़ा गया है या पब्लिक ऑर्डर को बचाने के लिए। इस आधार पर तो हमें केस जीत जाना ही था। पर ऐसा नहीं हुआ। यह केस आई.ए.आर. जनरल 1974 के सुप्रीम कोर्ट के पेज 2225 में रिपोर्ट की गई है। इस फैसले ने मेरे भीतर एक खलबली मचा दी थी। मुझे न्यायपालिका खोखली लगने लगी थी। इस काले लिबास के अंदर का सच क्या है? इसे जानकर रहूंगा ऐसा सोचने लगा। मुझे याद आया कि मैं 1971 में वकालत पढने के लिये रांची में दाखिला लिया था। पर पढ नहीं पाया था, तीन साल यूं हीं उलझनों में निकल गये थे।

मेरी मां सहित घर के सभी लोग उदास थे -
जब लौटकर घर आया और सभी को पता चला कि पिताजी अभी नहीं छुटेंगे, सभी उदास हो गये। कितने दिनों बाद छुटेंगे यह भी कहना मुश्किल था। उनके जेल की अवधि बढाई भी जा सकती थी। घर के बड़े लोग, बड़ा कौन अनपढ ‘मां’। वह चुपचाप अपने दैनिक कामों में लिप्त हो गई। मामले की गंभीरता का अंदाज छोटे भाई बहन को हो ही नहीं सकती थी। मैं कुछ दिनो तक बांकिपुर जेल भी पिताजी से मिलने नहीं जा सका।

अगर इस गेट को तोड़ दें तो दादाजी बाहर निकल आयेंगे -
एक दिन रजनीश को लेकन उनसे मिलने जेल चला गया। पत्नी पटना में थी तो बच्चे भी वहीं थे। रजनीश की उम्र साढे चार साल थी दादाजी से मिलने की जिद्द करने लगा। उसे लेकर जब जेल पहुंचा तो लोहे के बडे फाटक के सामने पहुंच कर रजनीश चकीत था। वह उस फाटक को गौर से देख रहा था उसकी कुंडी खुली और मैं अपने पुत्र रजनीश के साथ दाखिल हुआ। पिताजी सामने खड़े थे उन्हे खबर दे दी गई थी। रजनीश के चेहरे पर उत्सुकता एवं मुस्कुराहट थी। पिताजी ने उसे अपने सीने से लगा लिया। फिर जब अलग होने लगे तो रजनीश ने कहा था कि दादाजी, अगर इस गेट को तोड़ दे तो आप बाहर निकल जायेंगे। पिताजी यह सुनकर भौचक्के लह गये। उन्होंने मुझसे कहा कि दुबारा इसे लेकर जेल में नहीं आना। रजनीश के मन में दादाजी के प्रति जो लगाव था और उसे किस प्रकार बाहर निकाल सकते था, उसके शब्दो से जाहीर हो गया था। वह बेचारा क्या फाटक तोड़ता सुप्रीम कोर्ट भी उस फाटक को खुलवा नहीं सकी।

वकील बनने का फैसला
पिताजी को पूरी अवधि जेल में बितानी पड़ी। जब वे जेल से बाहर आये और धनबाद पहुंचे उस समय उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी। मैं लॉ की परीक्षा देने रांची गया हुआ था। और एक साथ सभी पार्टों की परीक्षा दे रहा था। सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले ने मुझे मजबूर कर दिया था कि मैं एक और फैसला ले लूं। लिहाजा वकील बनने का फैसला मैंने वहीं सुप्रीम कोर्ट की सीढियों पर बैठ कर लिया था।

मूल वासियों का शोषण नहीं रूका तो झारखंड में स्थिति विस्फोटक हो सकती है।

लेखक- राजकिशोर महतो (विधायक)
बिहार के छोटानागपुर पठार और संथाल परगना इलाके को मिलाकर वर्तमान झारखंड राज्य का गठन किया गया। राज्य का क्षेत्रफल है लगभग 1.90 लाख किलोमीटर और 1981 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या एक करोड़ अस्सी लाख। आज की तारीख में राज्य की संख्या है लगभग दो करोड़ 75 लाख। राज्य पहाड़-पठार, नदी-झरने और समतल मैदान सहित घने जंगल से भरा पड़ा है। दुनिया भर के महत्वपूर्ण खनिज यहां पाये जाते हैं। विभिन्न प्रकार के कल-कारखाने को स्थापित करने के अलावा बड़े पैमाने पर बिजली पैदा करने की क्षमता भी है।
झारखंड पर विस्तार से नजर डालने से पहले इसके इतिहास पर भी एक नजर डालना लाजमी होगा। आजादी से पहले पूरे झारखंड इलाके के मूल वासी को आदिवासी माना जाता था। जैसा कि सूचि में दर्ज है। उस समय के हिसाब से झारखंड का जो इलाका था उसमें बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा भी शामिल था।

आजादी से पहले जब इस इलाके का सर्वे किया जा रहा था तब यहां कई समुदायों को मूल आदिवासी माना गया। इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा एच एच रिजले का। इनके सर्वे का नोटिफिकेशन प्रकाशित किया, ब्रिटिश सरकार ने 1913 में। इसके बाद मानव विज्ञान के ज्ञाता डब्ल्यू.जी. लेसी ने एक सर्वे किया जिसकी रिपोर्ट प्रकाशित की गई 1931 में। इस रिपोर्ट के अनुसार तेरह समुदाय को यहां का मूल वासी घोषित किया गया जो यहीं के हैं। जिनका यहां के जमीन पर मूल अधिकार है।

इन्ही समुदायों में से एक कुडमी महतो, जिन्हें आजकल कुर्मी- महतो कहा जाता है, उनकी जनसंख्या अकेले पूरे राज्य की संख्या के लगभग 25% है। 2001 की जनगणना के अनुसार बाकि आदिवासी समुदाय जो 31 प्रजातियों में बंटा हुआ है उनकी संख्या 26% है। बहरहाल, आजादी के बाद कुर्मी महतो का नाम आदिवासी सूचि से हटाकर पिछड़े वर्ग की सूचि में डाल में दिया। ऐसा कुछ और समुदाय के साथ भी हुआ वो भी बिना किसी नोटिफिकेशन के और बिना कारण के।
झारखंड के मूल वासियों की जीवन मुलत: खेती और जंगल पर निर्भर है। यहां के मूल वासी आज भी पांरिपरिक तरीके से जीवन यापन करते हैं। यहां की मुख्य फसल धान है। यहां के झरने-नदियां कल कारखानो के कारण प्रदूषित हो चुकी है। राज्य की जनसंख्या को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है - मूलवासी और बाहर से आकर बसे हुए लोग। मूल वासी को विभाजित किया जा सकता है आदिवासी समुदाय(26 प्रतिशत), दलित समुदाय(10 प्रतिशत), पिछडा वर्ग और सामान्य वर्ग में। बाहर से आकर बसे हुए लोगों की संख्या मुश्किल से लगभग 20 प्रतिशत है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार की नौकरियों के अलावा व्यापार और हर प्रकार की आर्थिक गतिविधियों पर बाहर से आये हुए लोगों का हीं कब्जा है। यहां के जो मूल वासी है वे पूरी तरह शोषित हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है।
झारखंड आंदोलन -
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि झारखंड आंदोलन की शुरूवात बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में शुरू हुई। लेकिन इसका दायरा बहुत ही सीमित था। वो भी आदिवासी समुदाय के बीच। बाद में इसके दायरे को बढाया गया। यह आंदोलन सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीति शोषण के खिलाफ शुरू हुई। बाहर से आकर बसने वाले लोगों ने यहां के मूल वासियों का जबरदस्त शोषण किया।
आजादी के बाद केन्द्र सरकार ने झारखंड अलग राज्य की मांग को खारीज कर दिया। क्योंकि पुनर्गठन राज्य आयोग के सामने अलग राज्य की मांग को लेकर एक गलत रिपोर्ट रखी गई था। बाद में उस समय के झारखंड नेता जयपाल सिंह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये 1963 में। 1956 से लेकर 1970 तक झारखंड आंदोलन छिन्न भिन्न हो गया।

इस बीच 1968 में बिनोद बिहारी के नेतृत्व में “ शिवाज समाज” का गठन हुआ। विनोद बिहारी महतो एक वकील होने के साथ साथ शिक्षाविद् और समाज सेवक भी थे। यह संगठन कुर्मी महतो समाज का एक सामाजिक संस्था था झारखंड इलाके में। इसके बाद वहां जो समाज शोषित था उनलोगों ने भी विनोद बिहारी महतो जी से प्रेरणा लेते हुए सामाजिक संगठन बनाये। इसी क्रम में शिबू सोरेन ने भी संथाल समाज को उपर लाने की मकसद से ‘सोनोत संथाल समाज’ का गठन किया।

आपातकाल लागू होने से कुछ साल पहले 1973 में शिवाजी समाज और सोनोत संथाल को मिलाकर झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया बिनोद बिहारी के नेतृत्व में। श्री महतो इसके संस्थापक अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन महासचिव। पार्टी का नाम झारखंड मुक्तो मोर्चा होगा यह सुझाव मैंने हीं दिया था। मैं बिनोद बिहारी महतो का ज्येष्ठ पुत्र हूं।

झारखंड आंदोलन को नया जीवन दिया राजीव गांधी ने -
यह सच्चाई है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने झारखंड आंदोलन को एक नया जीवन दे दिया 1989 में। जब उन्होंने अलग राज्य के मसले पर एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया –‘ The Committee on Jharkhand Matters’। इस समिति ने मई 1990 में एक रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय के सामने रखी जो झारखंड आंदोलन के इतिहास में टर्निंग पॉइन्ट सिद्ध हुआ।

दुर्भाग्यवश राजीव गांधी जी की हत्या हो गई मई 1991 में। फिर नरसिंह राव जी प्रधानमंत्री बने और झारखंड अलग राज्य मामले में बिनोद बिहारी महतो(सांसद गिरिडीह) के साथ बातचीत की। झामुमो के सभी सांसद भी थे। लेकिन राव साहब ने बातचीत के दौरान केन्द्रीय सरकार को समर्थन देने की बात की। इस पर बिनोद बाबू तैयार हुए एक शर्त के साथ वो था कि अगर कांग्रेस पार्टी राजी होती है कि वो अलग झारखंड राज्य देने को तैयार है तब।
बिनोद बाबू के निधन से आंदोलन को झटका -
दुर्भाग्यवश मेरे पिताजी बिनोद बिहारी महतो जी का निधन( 18-12-1991) हो गया। यह झारखंड आंदोलन के लिए एक जोरदार झटका था। आंदोलन को भारी धक्का लगा। इसके बाद मै राजनीति में सक्रिय रूप से आया। पिताजी के निधन से खाली गिरिडीह लोक सभा सीट के लिए हुए उपचुनाव(11-05-1992) में मैं विजयी रहा।

शिबू सोरेन झामुमो के अध्यक्ष बने। और पार्टी को एक तानाशाह के रूप में चलाने लगे। इतना ही उन्होंने अलग वृहद झारखंड राज्य की मांग को भी छोड़ दिया। और सिर्फ बिहार के हिस्से वाले झारखंड इलाके में स्वतंत्र परिषद के लिए राजी हो गये। परिषद और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को समर्थन देने के मुद्दे पर झामुमो दो भागों में विभाजित हो गई। मैं कांग्रेस के खिलाफ लालू यादव जी को समर्थन दिया वहीं शिबू सोरेन ने लालू की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। शिबू सोरेन के साथ चार सांसद और 9 विधायक थे। दूसरी ओर झामुमो मार्डी के साथ दो सांसद और 9 विधायक रहे। कृष्णा मार्डी झामुमो(मार्डी) के अध्यक्ष बने और मैं महासचिव।

झामुमो(मार्डी) के जबरदस्त विरोध और आंदोलन के बावजूद 24 दिसंबर 1994 को आदिवासी परिषद का गठन किया गया। इसे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के अलावा भाजपा, वामपंथी और अन्य दलों का समर्थन प्राप्त था। प्रावधान ऐसा किया गया कि आदिवासी परिषद का अध्यक्ष आदिवासी हीं होगा। कुर्मी-महतो समुदाय को पूरी तरह नकार दिया गया जबकि झारखंड आंदोलन के लिए महतो समुदाय के अनेको लोग शहीद हुए और कुर्बानियां दी।

मूल वासियों का शोषण नहीं रूका तो झारखंड में स्थिति विस्फोटक हो सकती है।(भाग 2)

राजकिशोर के नेतृत्व में आंदोलन में एक बार फिर तेजी-
बहरहाल, मेरे नेतृत्व में अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चलता रहा। आंदोलन तेज होता गया। मुझ पर केन्द्रीय सरकार के तरफ से लगातार दबाव बनाया जाता रहा आंदोलन को वापस लेने का, लेकिन उनका मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा और आंदोलन जारी रहा। मुझ पर यह भी दबाव डाला गया कि ‘जैक’(JAAC – Jharkhand Area autonomous Council) को समर्थन करे लेकिन मैंने कभी नहीं किया। इस मुद्दे पर बैठको का दौर चलता रहा। आगे की चर्चा करने के लिए 7 मई 1993 को माननीय राष्ट्रपति के साथ बैठक हुई और मुझे ‘जैक’ को समर्थन करने और आंदोलन छोड़ने की सलाह दी गई। लेकिन मैंने राष्ट्रपति महोदय के बातो के साथ सहमति नहीं जतायी और आंदोलन जारी रखा।
झारखंड में भाजपा को सफलता-
इस बीच 1996 का लोकसभा चुनाव भी नजदीक आ गया। श्री लालू प्रसाद यादव ने चुनाव में झामुमो के किसी भी गुट से समझौता नहीं किया। परिणाम स्वरूप शिबू सोरेन को छोड़ कर सभी लोग चुनाव हार गये। लालू जी के भी सारे उम्मीदवार चुनाव हार गये। दूसरी ओर भाजपा दक्षिणी बिहार अर्थात झारखंड के 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर चुनाव जीतने में सफल रही। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कांग्रेस पार्टी झारखंड आंदोलन का विरोध करने के चलते राज्य में अपना जनाधार खो चुकी थी। ‘जैक’ जिसका गठन 24 दिसंबर 1994 को किया गया था, से कोई खास लाभ नहीं हो पा रहा था झारखंड वासियों को। इसलिए शिबू सोरेन की लोकप्रियता भी घटती जा रही थी।

झारखंड आंदोलन को लेकर राजनीतिक पार्टियों की गतिविधियों पर भाजपा बारीकियों से नजर रख रही थी। भाजपा ने इस अनुमान को भाप लिया था कि झारखंड के लोग ‘जैक’ से खुश नहीं है उन्हें सिर्फ अलग राज्य ही चाहिये। झामुमो(मार्डी) द्वारा अलग राज्य के पक्ष में चलाये जा रहे आंदोलन (1992-98) की सफलता को देख भाजपा ने इसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहा। और अन्य राजनीतिक दलों के अपेक्षा एक कदम आगे बढते हुए अलग राज्य का समर्थन किया लेकिन उसे झारखंड के वजाय वनांचल नाम दिया। इतना ही नहीं 1999 के संसदीय चुनाव में वनांचल के मुद्दे को अपने चुनावी ऐजंडे में शामिल कर लिया। इतना ही नहीं भाजपा नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भी एक मार्च 1998 को लखनउ से ऐलान किया कि यदि भाजपा की सरकार बनती है तो तीन नये राज्यों का गठन किया जायेगा।

राजकिशोर महतो समता पार्टी में शामिल -
अलग झारखंड राज्य को लेकर नये सिरे विचार करने पर जो बातें सामने आयी उससे यही लगा कि अलग राज्य से संबंधित विधेयक कोई राष्ट्रीय पार्टी हीं ला सकती है। यदि किसी क्षेत्रीय दल को झारखंड इलाके का पूरी सीटे भी आ जाये तो वे अलग राज्य से संबंधित विधेयक नहीं ला पायेगी। ऐसे में मैं समता पार्टी में जाना का फैसला किया और समता पार्टी का समझौता भाजपा से था। यह सभी जानते हैं कि भाजपा के वरिष्ट नेता गोविंदाचार्य जी ने मुझे भाजपा में शामिल होने का न्योता और चुनाव लड़ने का टिकट देने का प्रस्ताव दिया था लेकिन मैं उस समय भाजपा में शामिल होने का न्योता ठुकरा दिया था क्योंकि भाजपा ने भी ‘जैक’ का समर्थन किया था। और मैं ‘जैक’ का विरोध कर रहा था। ऐसे में मैं 31 अक्टूबर 1998 को समता पार्टी में जाने का फैसला किया जो अलग राज्य के मुद्दे पर समर्थन कर रही थी। मुझे समता पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव और झारखंड और पश्चिम बंगाल का इनचार्ज बनाया गया। मेरे समता पार्टी में शामिल होते हीं झामुमो मार्डी का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

इसके बाद एनडीए/भाजपा को झारखंड में कुर्मी समुदाय का भारी समर्थन मिला और एनडीए झारखंड में सत्ता में आई। श्री शैलेन्द्र महतो(सांसद), श्री राम टहल चौधरी(सांसद), श्री छत्रु राम महतो(विधायक, मंत्री), श्री लालचंद महतो(विधायक, मंत्री), श्री जलेश्वर महतो(विधायक, मंत्री), खीरू महतो(विधायक), श्री सुदेश महतो(विधायक, मंत्री) और मैं राजकिशोर महतो(सांसद) स्वयं सभी महतो समुदाय से। इसके अलावा और महतो नेता जो झामुमो से है उन सभी ने अलग राज्य की मांग को और आंदोलित किया।

सच्चाई यह है भी है कि कुर्मी समुदाय जिसकी जनसंख्या लगभग झारखंड इलाके की कुल जनसंख्या का एक चौथाई है। इन्हें बडे पैमाने पर सरकार ने बेघर कर दिया। उनकी जमीने ले गई उद्योग, कल कारखाने, डैम और हाइड्रो इलेक्ट्रिकल प्रोजेक्ट बनाने के नाम पर। शहर बनाने के नाम पर भी उनकी जमीने छीन ली गई बदले में कुछ नहीं मिला। बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और मेरे नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन से जुडे कार्यकर्ताओं का हर प्रकार से शोषण किया जाने लगा। इतना हीं नहीं कांग्रेस पार्टी ने इतने बडी जनसंख्या वाले समुदाय को कोई प्रतिनिधित्व भी नहीं दिया और न हीं कुर्मी-महतो को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग को स्वीकार किया। इससे कुर्मी समुदाय में कांग्रेस के प्रति नाराजगी बड़े पैंमाने पर बढती गई।

झारखंड के गठन के बाद की स्थितियां-
15 नवंबर 2000 को नए राज्य के गठन के बाद भी यह महसूस किया गया कि जाति के आधार पर नौकरियों में दिए गये आरक्षण को भी राज्य में संविधान के अनुरूप लागू नहीं किया गया। और न हीं ‘एस टी’ और ‘एस सी’ के जनसंख्या अनुपात के आधार पर नये सिरे से संसदीय और विधायी सीटों का आकलन किया गया। 2001 मे पारित पंचायती राज संशोधित अधिनियम को लेकर भी गैर आदिवासियों में अफरा तफरी का माहौल बनाया गया इसमें भी ऐसी हालात पैदी की गई कि कुर्मी महतो को कोई लाभ न हो।

ऐसे में राज्य की कई जातियां जैसे रजवार, तेली, सुडी, कुम्हार, घटवार, मेयरार और कुर्मी-महतो ने रैलियां निकाली और ‘एस टी’ या ‘एसी सी’ में शामिल करने की मांग की। यह सर्वविदित सिद्धांत है कि नये राज्य के गठन के बाद वहां कि स्थानीय जाति को ध्यान में रख कर नये सिरे वर्गीकरण किया जाता है लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जो व्यवस्था बिहार में थी वही यहां पर भी लागू कर दिया गया जो कि गैरकानूनी और गैर संवैधानिक भी है। संविधान के अनुच्छेद 340, 341 और 342 के तहत नये राज्य में वहां की जातीय और नस्ल की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का जायजा लिया जाना है लेकिन न तो ऐसा कुछ केन्द्र सरकार ने किया है और न हीं राज्य सरकार ने। ऐसा न करने से राज्य में एक नयी समस्या खड़ी हो गई है।

झारखंड की स्थिति विस्फोटक हो सकती है-
भाजपा और यूपीए दोनो ही सरकार ने अभी तक ऐसा कोई फार्मूला नहीं निकाला है जिससे मूलवासियों की समस्याओं का समाधान हो और उनका जीवन स्तर आगे बढ सके। यहां तक की तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों की नौकरियों में भी मूलवासियों को नहीं रखा जाता है। उन्हें नजरअंदाज किया जाता है। क्योंकि सरकार ने ऐसा कुछ नियम ही नहीं बनाया है कि मूलवासियों को मदद हो सके।

राष्ट्रीय पार्टियां चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनो ने हीं राज्य की समस्या और स्थानीय मुद्दे से अपने को दूर रखे हुए है। स्थानीय लोगों का शोषण जारी है। इस ओर से दोनो ही पार्टियां ने अपनी अपनी आंखे बंद कर रखी है। जैसा शोषण पहले हुआ करता था वैसा आज भी है। ऐसे मे क्यों नहीं राज्य में उग्रवाद बढेगा ?

इसी नजरअंदाज का परिणाम है कि मूलवासी राष्ट्रीय पार्टियों से अपने को दूर कर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों जैसे आजसू और जद यू के साथ जुड़ते जा रहे हैं। उनके विस्थापन की समस्या हो या जंगल की इस ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा है। जहां तक आदिवासी और दलित समुदाय के लोगो की नाराजगी का सवाल है तो वे राष्ट्रीय पार्टियों से नाराज नही है क्योंकि उन्हें कोटे के तहत आरक्षण का लाभ मिल रहा है।

‘पतार मुंडा’ समुदाय को एस टी दर्जा मिला हुआ है। इसी समुदाय से यहां के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा आते है। बहरहाल कई समुदायों की एक सूचि केन्द्र सरकार को भेजी गई है कि उन्हें ‘एस टी’ या ‘एसी सी’ का दर्जा दिया जाये। कुर्मी-महतो को भी एक बार फिर एस टी में शामिल किया जाये। इससे संबंधित वर्ष 2004 में झारखंड की एनडीए सरकार ने एक प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा है जिस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। अब राष्ट्रीय पार्टियों पर निर्भर करता है कि वे राज्य के वर्तमान स्थिति से कैसे निपटती है। और क्या ऐजेडा बनाती है कि अगले चुनाव में लाभ हो सके।

Sunday, June 8, 2008

झारखंड राज्य और यहां के लोगों के साथ कभी न्याय नहीं हुआ

लेखक हैं भाजपा विधायक राजकिशोर महतो। श्री महतो धनबाद जिले के सिंद्री विधान सभा से विधायक हैं। इन्होंने राजनीति की शुरूवात झारखंड मुक्ति मोर्चा से की। शिक्षा के क्षेत्र में इनका रिकार्ड शानदार रहा है। धनबाद स्थित विश्व प्रसिद्ध इंजीनियरिंग कॉलेज इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स से माइनिंग इंजीनियरिंग करने के बाद इन्होंने लॉ की डिग्री हासिल की और एक शानदार वकील बने। राजनीति में कदम रखने से पहले वे पटना उच्च न्यायलय के रांची खंडपीठ में सरकारी वकील थे। श्री महतो झारखंड के मसीहा बिनोद बिहारी महतो के ज्येष्ठ पुत्र है। सांसद बिनोद बाबू के निधन के बाद ही इन्होंने उनके स्थान पर गिरिडीह संसदीय सीट से उपचुनाव जीत कर लोक सभा पहुंचे। जब झारखंड आंदोलन अपने चरम पर था और एक नई पार्टी की जरूरत थी तो इन्होंने ने हीं पार्टी का नाम झारखंड मुक्ति मोर्चा सुझाया । उस समय वे एक क्रांतिकारी सिपाही थे। इनके पिता झामुमो के संस्थापक अध्यक्ष के साथ साथ आंदोलन के कर्ताधर्ता थे। झारखंड के बारे में लेखक राजकिशोर महतो ने शानदार विश्लेषण किया है। इससे झारखंड को समझने में बड़ी आसानी होगी -
The present Jharkhand state may be regarded as comprised of the Chotanagpur plateau and the Santhal Parganas. This state covers an area of 79,700 sq kilometers and according to 1981 Census its population was 1.80 crores. Now the population is about 2 crores 75 lakh.
Jharkhand state is covered by hills, hillocks, ridges, intercepted by rivers, fountain, rivolutes, and on the vally, there are plain lands and other areas are covered by thick forests.

The Jharkhand state is mineral rich area and contains all type of minerals in abundance and has resources for generation of electricity and establishment of various types of industries.
It is necessary to look at the demographic situation of the present Jharkhand State. Some times ago, before independence of Indian majority population of the Jharkhand region were listed as scheduled Tribes Jharkhand region means the territory of present Jharkhand State and the adjoining portion of West Bengal, Orissa and Madhaya Pradesh.

Many communities were found in this region who were declared aboriginal Tribes of the area. After the Survey of Mr. H H Rizley, a notification in the year 1993 was published by British government and after the athenical survey anthropological survey of W. G. Lessey another notification was issued in 1931, declaring thirteen communities as aboriginals having their own rules of in-heritance and right of property. Amongst these communities “ Kurmi Mahto” in fact “ Kudmi Mahto” community alone constituted 25% of the population of this state. The remaining schedule Tribe population is only 26% having 31 braches in the state according to 2001 census. However, Kurmi-Mahto has been delisted from the list of scheduled Tribe after independence, without any reason, what so ever and without any order/ notification many other communities were also delisted and categorised as Backward Cast.
The life of the original inhabitants of Jharkhand depends upon the agriculture and on forest produced mainly. They have their traditional way of life depending upon their own customs and heritages. The only major crop is paddy and for rest of the year the field remains uncultivated. Most of the river water, fountain water has been polluted because of industrialization.
At present the population of the Jharkhand state may be categorised as Mool-Vashis or Sadavashis and migrants. Mool-Vashi can be further divided in to Schedule Tribe (26%) -Schedule Cast (10%) and backward communities and general. The population of migrants
Would be hardly twenty percent of the total population.

The migrants have control over the city population and over the economy of the state, business, services in the state organization and central Govt. organization and moolvashi neglected and exploited.
Now there is no doubt that the Jharkhand movement commenced in 2 nd decade of the 20th century when it is germinated and turned into a socio-economic movement. It retained its tribal character for greater part of its life. In its latest phase, it had acquired a broader base and all section of people supported the autonomy or a separate state for the region.
Jharkhand movement has been an agitation against social economical, educational, Cultural and political exploitation of the original inhabitants of the state by the migrants.
The demand for separate state of Jharkhand was rejected by the central Govt. on the basis of a wrong report submitted by state Re-organization commission in 1956 and there after Sri Jaipal singh Munda, the Jharkhand leader merged in Congress in 1963. During 1956 to 1970, the Jharkhand movement was scattered.
In 1968, a social organization called “ Shivaji” was formed by Binod Bihari Mahto advocate, educationlist and social worker. This organization was a social organization of Kurmi Mahto community of Jharkhand region. At that point of time, some year later at the inspiration of binod Bihari Mahto, “ Sonat Santhal Samaj”, a social organization of Santhal community was formed by shibu Soren . Other communities, who were oppressed and neglected also started such social organization after being impressed by the social activities of Shivaji Samaj and Sonat Santhal Samaj for upliftment of their societies respectively.
In the year 1973 just before declaration of Emergency in India, Binod Bihari Mahto formed “ Jharkhand Mukti Morch” in which these two societies merged. The young and turbulent Shibu Soren was made the General Secretary of this party where as Binod Bihari Mahto became the president. The name of the party was a creation of the intellect of Raj Kishore Mahto, then young mining engineer, the eldest son of Binod Bihari Mahto.
It is a fact that Rajiv Gandhi, the then Prime Minister of India gave new life to this movement by re-opening the issue of separate Jharkhand State in the year 1989 when he constituted a high level committee namely, “ The Committee on Jharkhand matters” This committee submitted a report in May 1990, before Home Minister of the Central govt. This report proved to be turning point in the history of the Jharkhand movement.
Unfortunately, Rajiv Gandhi was assisnated in May 1991. However, Narsingha Rao Jee became Prime Minister and had a talk with Binod Bihari Mahto, the then MP og Giridih and his other five MPs from Jharkhand Mukti Morcha in this regard and sought support to form his government. Binod Bihari Mahto was ready on only one condition to lend support, if congress would create a separate Jharkhand state.
Unfortunately Sri Mahto expired on 18-12-1991 and there after there was a great set back in the movement. However, Raj Kishore Mahto the eldest son of Binod Bihari Mahto, a mining engineer and renowned advocate working as government pleader in Patna High court Ranchi Bench was brought in politics and faught bye-election from Giridih seat and was elected in place of his father on 11-05-1992.
Shibu Soren became the president of JMM party and became the dictator of the party and he left the demand of Separate state hood and conceded and agreed on Jharkhand area, Autonomous council. The JMM splited on this issue and on the issue of support to Laloo Prasad Yadav, who at that point of time was totally anti congress in Bihar. Shri Raj Kishore Mahto continued his support to Laloo government in united Bihar against Congress, but Shibu Soren with three other M.Ps and nine M.L.As supported congress and with drew support from Laloo Prasad.
Another group J.M.M (Mardi) came in existence of which Krishna Maradi M.P from Singhbhum West became president and Raj Kishor Mahto M.P from Giridih with nine MLAs became the general Secretary.
In spite of strong and wide opposition and agitation by JMM (Mardi). The Tribal Council was formed on 24-12-1994 by Congress and Laloo Prasad with support from BJP, Samata, Left Parties and others. This Council made a provision that only Scheduled Tribes would become its chairman. In this Council Kurmi Mahto’s were totally neglected who have sacrificed there leaders and shave suffered a lot in Jharkhand movement.
Still under the leadership of Raj Kishor Mahto, the agitation for separate state went ahead in spite of all odds. It is a fact that on several occasion and in discussion sri Mahto was persuaded and pressurized by Home Ministry of the Central government to lend support to JAAC, but he did not succumbed. In a discussion and meeting held in Rashtrapati Bhawan on 07.05.1993, With the Honorable presdent of India, he was advised to support JAAC and to leave the agitation of separate state hood, but Sri Mahto had not agreed and went ahead with his agitation.
Sri Laloo Prasad did not make any poll alliance in 1996 parliamentary election with any of the fractions of JMM and as a result all the candidates lost except Shibu Soren. Laloo Pd also lost all MP seats in Jharkhand region and Bhartiya Janta Party begged 12 seats out of 14 of the South Bihar i.e Jharkhand.
The Congress, because of its role against the Jharkhand movement has already lost its mass base JMM (Soren) was loosing popularity because of failure of Jharkhand area autonomous council(JAAC), which was constituted on 24.12.94 and BJP was keenly observing that the aspiration of the people of the Jharkhand was creation of the state, and not JAAC. The movement and agitation led by the JMM(Mardi) faction for a separate state again gain momentum and popularity during 1992-1998, BJP took advantage of this situation and came forward with the issue of separate state though in the name of “ Vananchal” and this was included in the agenda of 1999 parliamentry elections. After MP election, BJP leader Sri Atal Bihari Vajpayee on 01-03-1998 had already given statement from Lucknow for creation of three separate new states.
On 31.10.1998, after much though and watching the whole situation and realizing the fact that only a national party can bring a bill of separate state and the bill can never be passed by a regional party, even if it gets all seats of Jharkhand region, Sri Raj Kishore joined Samata party which was in alliance with BJP. It is known to all that Raj Kishore Mahto was approached by top leaders of the BJP including Sri Govindacharya jee to bring sri Mahto in BJP and was offered ticket, but he not accepted the offer, because of the fact that BJP has also suppoted JAAC which was opposed by Sri Mahto. Sri Mahto joined Samata on 31-10-1998 because it was Samata whose support was necessary for the issue and creation of Jharkhand.
Sri Mahto was given the post of National General Secretary of Samata and was made incharge of Jharkhand area and west Bengal. JMM(Mardi) extinguished after joining of Raj Kishore Mahto in Samta.
It is fact that NDA/ BJP came in power in Jharkhand because of the large support of Kurmi-Mahto community people. Shailendra Mahto(BJP), Raj Kishor Mahto(MP), Ram Tahal Choudhary(MP), Chatru Ram Mahto(MLA,minister), Lal Chand Mahto(MLA, minister), Khiru Mahto(MLA), Sudesh Mahto(MLA, minister) and other also supported BJP/NDA more over, Other leaders from JMM belonging to Kurmi community had agitated for this issue.

It is fact that the single largest caste(25%) of Jharkhand is Kurmi Mahto’s who have been rendered homeless and land less in large scale due to acquisition of land for mining operations, industrial establishment, dams, thermal and hydro elctriacl projects and allied activities and for establishment of towns and infrastructures.
This community having been suppressed and exploited socially, economically and educationally participated in this Jharkhand movement under this leadership of Binod Bihari Mahto and there, after under this leadership of Shibu Soren and Raj Kishor Mahto.

This community havings largest single caste population developed anger, hatred for ruling Congress, because of the aforesaid reasons and for the reason and for the for the reason that they had never been given any representation in Congress Party. The demand for this community for re-inclusion in this Shheduled Tribe list has been neglected since half century, like Jharkhand issue.

After the cration of new Jharkhand state on 15-11-2000, it has been observed that the policy of caste-wise reservation in services according to our constitution could not be setted down in the state.
It has been observed that the reservation of parliamentary seats and assembly seats could not be setted according to the provision of our constitution which was to be done according to the population proportions of ST and SC and the delimitation act. Could not be implemented in Jharkhand, for no valid reason.
The passing of Panchayti Raj amendment Act 2001, has also created chaos amongst non tribes in 113 blocks specially affecting the tribal community Kurmi-Mahto’s who are now delisted from ST list, debarring them from representation as Mukhiya, Sarpanch, Pramukhs and MLAs.

After the cration of new state, it has been that many casts abd communities like Rajwars, Teli, Sudis, Kumahar, Mayaras, Ghatwars, kurmi-Mahtos and many others have led rallies and have made demands for their inclusion either as ST or SC or even Backward casts.

It is universal principle that when a new state is constituted, the status of casts, races, communities residing in the area, changes ipso-facto. That why our constitution of India has made provisions for categorization and classification of casts, races and community state-wise.

The list of united Bihar, in this regard has been imposed and is being implemented, which is against the all laws and against our constitution. No step has yet been taken by the state government or central government for assessment of social, economical, states of different casts, races and communities living within the new territory of Jharkhand according to article 340, 341, and 342 of the constitution of India. This has created major problems in the state.

The failure of the BJP as well as UPA government to find out any formula to satisfy and to uplift the oppressed original inhabitants (Moolvashi) of Jharkhand as well as migrants(Outsider settlers) have disturbed the state. In the matter of class III and Class IV jobs the original inhabitant are still being neglected and are not getting chance, because of want of any policy of the government. In other higher jobs and in technical education, the Jharkhand are being neglected and excluded as before the creation of the state and this has created great – heart burning.
In fact the congress could not assess the spirit and aspiration of the Jharkhand people. B.J.P also failed to realize the same. The national parties are still away from the state issue and local issues. These parties have shut their eyes and the exploitation of local people is going on in the same speed as before. That is why is the terrorism is increasing
in Jharkhand.
The result of negligence of the local issue like displacement due to land acquisition and form forest and other issue as stated above, there is a tendency of detachment of local people from national parties and the young generation is again shifting their confidence to regional parties like AJSU and Janta Dal( United) and others and because of the above reasons, regional sentiments is on rise.
The majority of ST community and community SC people not have much grievance against national parties, as they are getting reservation of their quota. The Moolvashi population have grievance against national parties, they are still being neglected.

The “Patar Munda” community has been including in S.T. list to which “Arjun Munda” ex Chief Minister belongs to. How ever, the list of a number of communities has been sent to central government for inclusion as ST and SC. The proposal of re-inclusion in the schedule Tribe list of Kurmi-Mahto’s has been sent to Central govt by NDA govt of Jharkhand in the year 2004, but the same is still pending.
Now, it depend on the national parties how they deal with the present situations of Jharkhand state. They are to decide the agenda with care to come to power in Jharkhand in next election. ( इस विश्लेषण का हिन्दी रूपांतर अगले पोस्ट में पढ सकते हैं।)

Tuesday, June 3, 2008

यूपीए के सभी घटक दल जल्द निर्णय करे नहीं तो कांग्रेस एकला चलेगी

झारखण्ड में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। झारखंड के प्रभारी अजय माकन ने कहा कि वर्तमान मधुकोडा की सरकार से उसका कोई वास्ता नहीं है वे सिर्फ इसलिए समर्थन दे रहे हैं क्योंकि केन्द्र में सहयोग कर रहे सहयोगी दल यह सरकार चलाना चाहते हैं। हजारीबाग में कांग्रेस पार्टी ने एक रैली का आयोजन किया जिसमें अजय माकन के अलावा राज्य के सह प्रभारी अब्दुल मनान, अध्यक्ष प्रदीप बालमुचु , केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय, केन्द्रीय मंत्री रामेश्वर उरांव और विधायक मनोज यादव मौजूद थे।
कांग्रेस के इस रैली के बाद माना जा रहा है कि झारखंड में चुनाव कराने की भूमिका बनने लगी है। श्री माकन ने यह धमकी भी दी है कि यदि सहयोगी दल अगले चुनावी रणनीति पर अपना रूख जल्द नहीं साफ करेंगे तो कांग्रेस पार्टी एकला चलो की नीति पर आगे बढेगी। श्री माकन ने कहा कि बीते 6 साल तक भाजपा ने जो भ्रष्टाचार और प्रशासनिक कुव्यवस्था को जन्म दिया वो आज तक जारी है।

बहरहाल, झारखंड की राजनीति में गरमाहट आने लगी है। कभी भी जोड तो़ड की नई घटना सामने आ सकती है। झारखंड कांग्रेस के प्रवक्ता प्रभात सिंह ने कहा कांग्रेस पार्टी किसी भी स्थिति के लिए तैयार है। केन्द्रीय और राज्य स्तरीय कांग्रेस पार्टी के नेता जो भी तय करेंगे वो सभी को स्वीकार्य है। झारखंड में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। झारखंड के प्रभारी अजय माकन ने कहा कि वर्तमान मधुकोडा की सरकार से उसका कोई वास्ता नहीं है वे सिर्फ इसलिए समर्थन दे रहे हैं क्योंकि केन्द्र में सहयोग कर रहे सहयोगी दल यह सरकार चलाना चाहते हैं। हजारीबाग में कांग्रेस पार्टी ने एक रैली का आयोजन किया जिसमें अजय माकन के अलावा राज्य के सह प्रभारी अब्दुल मनान, अध्यक्ष प्रदीप बालमुचु , केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय, केन्द्रीय मंत्री रामेश्वर उरांव और विधायक मनोज यादव मौजूद थे।
कांग्रेस के इस रैली के बाद माना जा रहा है कि झारखंड में चुनाव कराने की भूमिका बनने लगी है। श्री माकन ने यह धमकी भी दी है कि यदि सहयोगी दल अगले चुनावी रणनीति पर अपना रूख जल्द नहीं साफ करेंगे तो कांग्रेस पार्टी एकला चलो की नीति पर आगे बढेगी। श्री माकन ने कहा कि बीते 6 साल तक भाजपा ने जो भ्रष्टाचार और प्रशासनिक कुव्यवस्था को जन्म दिया वो आज तक जारी है।

बहरहाल, झारखंड की राजनीति में गरमाहट आने लगी है। कभी भी जोड तो़ड की नई घटना सामने आ सकती है। झारखंड कांग्रेस के प्रवक्ता प्रभात सिंह ने कहा कि कांग्रेस पार्टी किसी भी स्थिति के लिए तैयार है। केन्द्रीय और राज्य स्तरीय कांग्रेस पार्टी के नेता जो भी तय करेंगे वो सभी को स्वीकार्य है।