झारखंड के मूलवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था। उनके जमीन जायदाद हीं नही हड़पे जाते थे बल्कि आवाज उठाने वालों की हत्या कर दी जाती थी। पुलिस भी शोषण करने वालो का हीं साथ देती थी। न्यायलय तक गरीबों की पहुंच नहीं थी। वे कोर्ट कचहरी के नियम-कानून से परिचित नहीं थे। ऐसे में झारखंड के गरीबों के लिए उठ खड़े हुए बिनोद बिहारी महतो। इन्होंने सीधी कारवाई का एलान किया। लोग जागरुक हुए। पारंपरिक हथियार उठाए। प्रशासन सकते में आ गई। बिनोद बाबू को झारखंड वासी अपना मसीहा मानने लगे। उन्हें जेल में डाल दिया गया। माननीय न्यायधीश ने उनसे कहा कि यदि आप शांति का आश्वासन दें तो आपको छोड़ा भी जा सकता है। लेकिन बिनोद बाबू ने ऐसा कोई आश्वासन देने के वजाय जेल में रहना मंजूर किया। कहा जाता है कि यदि बिनोद बाबू न्यायलय के समक्ष उस समय सरेंडर कर देते तो गरीबो पर जुल्म झारखंड में कम होने की वजाय और तेजी से बढ जाती। और अलग झारखंड राज्य की मांग वहीं समाप्त हो जाती। इमरेजेंसी के दौरान सरकार ने बिनोद बाबू के साथ न्याय नहीं किया। इस पर विस्तार से अपने अनुभव को लिखा है बिनोद बाब के पुत्र और विधायक राजकिशोर महतो ने।
देश का उच्चतम न्यायलय। इसकी विशाल एवं भव्य इमारत। उपर बने खूबसूरत गुम्बद। भीड़। चहल-पहल। काले कोर्ट वालों का कार्यस्थल। एक सम्मोहन सा पैदा करने वाला और मैं बार-बार उस इमारत के अंदर जाता और चारो ओर देखता रहता। वर्ष 1975 की बात है। देश में इमरजेंसी लागू हो चुकी थी। विरोधी दलों के नेताओं सहित कई अन्य प्रकार के अपराधियों की धर-पकड़ बढ गई थी। निषेद्यज्ञा कानून के तहत सभी जगहों पर पूरे देश में पुलिस एवं प्रशासन सक्रिय था। निषेद्यज्ञा कानून का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा था। देश के कचहरियों में, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की तादाद बढ रही थी।
बिनोद बाबू ‘मिसा’ के तहत गिरफ्तार और मैं वकील की तलाश में -
मेरे पिता श्री बिनोद बिहारी महतो को भी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत, जिसे बोल चाल की भाषा में ‘मीसा’(मेन्टेनेन्स ऑफ सेक्यूरिटी एक्ट) कहा जाता था, गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हीं को छुड़वाने के लिये मैंने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के खिलाफ याचिका दायर की थी। दिनांक 1 अक्टूबर 1975। उस दिन सुनवाई की आखिरी तारीख थी। जस्टीस पी. एन. भगवती एवं सरकारिया की खंडपीठ में सुनवाई चली थी। मेरे वकील श्री सिन्हा ने बहस किया था। श्री सिन्हा को पहले से में नहीं जानता था। हुआ यों की मैं उस वक्त के नामी-गिरामी वकील श्री अशोक सेन को इस मुकदमे की पैरवी के लिये रखना चाहता था। और इसके लिये मैं अपने चचरे भाई के साथ जो मात्र बीस साल के आसपास का रहा होगा, के साथ दिल्ली आया था। मेरी उम्र भी उस समय सताइस-अठाइस वर्ष की थी। इमरजेंसी के उस दौरान मेरे पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो मुझे सलाह दे सकता था और कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाता। हालत तो यहां तक खराब थी कि कोई हमारे घर पर या आसपास भी डर के मारे भटकता भी नहीं था।
एडवोकेट और देश के कानून मंत्री अशोक सेन से मुलाकात -
हम श्री सेन के यहां रात आठ बजे पहुंचे थे। श्री सेन उस वक्त भारत सरकार के कानून मंत्री थे। जब हम उनके बंगले के पास ऑटो से पहुंचे तो पता चला कि वे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाकात करने गये थे और लौटने वाले थे। मैं वहीं उनका इंतजार उनके बैठक रूम में अन्य लोगों के साथ करने लगा। वहां टेलीविजन चल रहा था और लोगों को चाय पिलाई जा रही थी। हम वहां चुपचाप बैठे थे। उनके एक कर्मचारी श्री मौइता ने मुझे श्री सेन से मिलवाने का आश्वासन दिया था।
रात के नौ बजे श्री सेन आए। उनके साथ कई गाडियां थी। वे अपने चेंबर में घुसे और एक-एक कर सभी लोगों को बुलाना शुरू किया। आधे घंटे के बाद हमें भी वहां ले जाया गया। श्री सेन के बंगले में चारो तरफ दीवारों पर आलमारियां बनी थी और गलियारों तक में रैक बने थे। सभी में किताबे थी। मेरे लिए इतने बड़े लाइब्रेरी को देखना भी एक सौभाग्य हीं था।
मैं आश्चर्य के साथ उनके चेम्बर की भव्यता को निहार ही रहा था कि श्री सेन ने आने के कारण पूछा। मैंने सारी बाते उन्हें बताई। उन्होंने बताया कि वे मेरे पिताजी के नाम से वाकिफ थे। पर अभी वे उनका केस ले नहीं सकते थे। उन्होंने कहा कि वे एक महीना तक बहुत व्यस्त हैं। और मुझे दूसरे वकील के पास जाने को कहा। बातचीत के क्रम में वे मुझसे काफी प्रभावित सा नजर आये और उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या आप एक वकील हैं ? मैंने बताया कि मैं एक माइनिंग इंजीनियर था। श्री सेन के केस लेने से मना करने पर मेरा चेहरा उतर सा गया था, जिसे उन्होंने भांप लिया था। उन्होंने उस समय अपनी पत्नी को आवाज दी – ‘ओगे सुन छो’ बंगला में पुकारा। उनकी पत्नी आई तो उन्होंने कहा कि जाओ इन दोनो को मिठाई खिलाकर विदा करो।
मुझे श्री सेन के इस व्यवहार से बड़ा आश्चर्य हुआ। यह बात मैं कभी भूल नहीं पाता कि उनकी पत्नी मुझे एवं मेरे चचेरे भाई को अन्दर ले गई एवं रसगुल्ला खिलाया था एक नहीं चार-चार।और सम्मान में बाहर तक छोड़ने भी आई थीं।
पुलिस से डर भी लग रहा था -
जब हम बाहर निकले तो रात के दस बज चुके थे। सड़क पर चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। वहां आसपास कोई टैक्सी या ऑटो रिक्सा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मैं परेशान हुआ कि चांदनी चौक के अपने हॉटल तक कैसे जाया जाये। कोई चारा नहीं देखकर हम सीधे अंदाज से चांदनी चौक की ओर बढने लगे। रास्ते में पुलिस गुजरती तो हम सहम जाते। इस इमरजेंसी में पता नहीं किसे पकड़ ले पुलिस। इतनी रात को सड़क के किनारे में चलने में भी डर सा लग रहा था। हम सीधे चलते रहे। आंधे घंटे के बाद हम कनॉट प्लेस पहुंच चुके थे। इस इलाके को पहचानने लगा था। दिल्ली में रास्ते को पहचानना भी नये आदमी के लिये मुश्किल होता है। वहां हमें दूर एक ऑटो जाते दिखा। मैंने आवाज देने की कोशिश की लेकिन आवाज हीं नहीं निकली। गनीमत था कि हमें देखकर ऑटो वाला हमारे पास आ गया। पांच रूपये में चांदनी चौक चलने को राजी हुआ। चांदनी चौक के हॉटल पर रात साढे बारह बजे पहुंचे। वहीं नीचे ठेले पर खाना खाया और सो गया। चांदनी चौक के उस पुराने से होटल में मैं दिल्ली यात्रा के दौरान ठहरता था। सौलह रुपये में डबल बेड का कमरा मिल जाता था। संडास अलग से बाहर था। वहीं से मुकदमें की पैरवी के लिए सुप्रीम कोर्ट आता और इधर-उधर घूमता रहता। खैर, श्री सेन ने मुझे श्री सिन्हा के पास भेजा था। हमारे हाई कोर्ट के वकील श्री राम नन्दन सहाय ने भी श्री सिन्हा का नाम सुझाय था।
हक की लड़ाई के लिए पिताजी की जेल यात्रा 1968 में शुरू हुई -
1968 ई. में मैंने भारतीय खनि विद्यालय (इंडियन स्कूल ऑफ माईन्स) से माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। उस जमाने में वहां दाखिला बड़ी मुश्किल था। अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा होती थी। माइनिंग ब्रांच की मात्र 90 सीटें थी। भारत के और किसी भी जगह माइनिंग की इस स्तर की पढाई नहीं होती थी। माईनिंग की पढाई हीं देश में दो-तीन जगहों पर होती थी।वहां से पास कर जाने के बाद मैं एन.सी.डी.सी. नेशनल कोल डेभलपमेंट कॉरपोरेशन सुदामडीह में नौकरी पर गया । वहीं एक होस्टल में जगह मिली थी, पर धनबाद पास में ही था, सो घर पर ही रहता था। कभी कभी वहां भी रहना पड़ता।
मेरी शादी जब मैं इंजीनियरिंग के आखरी वर्ष में था, कर दी गई थी। मेरे दो लड़के भी 1974 तक पैदा हो गये थे। रजनीश एवं राजेश। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर माइनिंग का जॉब मैंने छोड़ा क्यों था ? 1968 ई. से ही पिताजी ‘शिवाजी समाज’ नामक जातीय संस्था चलाने लगे थे। फिर 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था। उससे पहले वे कम्यूनिष्ट पार्टी के नेता रहे थे। उन्हें अन्याय बिल्कुल हीं बर्दास्त नहीं होता था। खासकर अन्याय करने वाले से ज्यादा वे अन्याय सहने वालों पर नाराज होते थे। उनके नेतृत्व में उग्र विरोध एवं उग्र आन्दोलन होने लगे थे। इन्हीं कारणों से उनपर दर्जनो केस हो गये थे।
इधर 1971 में मैं सुदामडीह छोड़ दिया था। पिताजी बहुत नाराज थे। पर उसी साल मैंने रांची के लॉ कालेज में दाखिला ले लिया था। इससे धीरे धीरे उनकी नाराजगी कम हो गई थी। 1968 से ही पिताजी बार बार जेल जाने लगे थे। घर में अशांति का वातावरण रहता। सभी डरे रहते। छोटे भाई बहन सभी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे।
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