आपातकाल के दौरान बिनोद बाबू की जेल यात्रा -
1975 ई. मार्च महीने की तारीख बड़ी कष्ट लेकर आई थी। पिताजी को धनबाद जिला कोर्ट से जहां वे वकालत करते थे, पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। और उन्हें धनबाद में नहीं रख कर कतरास थाने ले गई थी। फिर एक दिन बाद धनबाद जेल भेजा था। उनका बेल संबंधित केस में हो गया था, पर जब वे जेल से निकलने ही वाले थे कि उन्हें निषेद्यज्ञा कानून के तहत पुन: जेल में बंद कर दिया गया। ‘मीसा’ ‘पोटा’ की तरह हीं एक ऐसा कानून था जिसमें जिले के उपायुक्त यानि डिस्ट्रीक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को एक साल तक के लिए जेल में बंद रखने के लिए आदेश कर सकता था। उसके लिए उसे किसी तार्किक निर्णय पर नहीं पहुंचना पड़ता था। इतना ही काफी था कि उसके पास ऐसे आधार थे जिससे उसे लगता कि इस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेना है। यहां ऑबजेक्टिव नहीं सब्जेक्टिव की बात थी। मीसा यानि मेन्टेनेन्स ऑफ इंटरनल सेक्यूरीटी एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा था। देश में इमरजेंसी लगी थी। विपक्ष की नेताओं को धड़ले से अंदर किया जा रहा था। पिताजी को भागलपुर सेंट्रल जेल ले जाया गया था। धनबाद में प्रशासन को जनाक्रोश और धरना प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा था।
इमरजेंसी के दौरान अपने भी कन्नी काटने लगे -
हम विचित्र परिस्थिति में फंस चुके थे। मेरा कैरियर तो खत्म हो चुका था। माइनिंग छुट गया था। अगर दुबारा कोलयरी जाता तो घर कौन संभालता। लिहाजा पिताजी को छुड़ाने और घर की व्यवस्था में जुट गया। उस समय इमरजेंसी के डर से नाते-रिश्तेदार भी घर पर नहीं आते थे। पिताजी के पहचान वाले, उनसे उपकृत लोग भी हमसे कन्नी काट लेते थे। कहीं से आर्थिक मदद के बारे में सोचना भी कठीन था। मेरी एक पुरानी ट्रक थी और एक छोटा सा मोजाइक टाडल्स बनाने का यूनिट था। खर्चा इन्हीं से चलाना पड़ता था। बाकि कुछ किराया आ जाता था। मैं जब धनबाद में होता, सुबह छह बजे उठकर झरीया चला जाता और ट्रक पर कोयला लोड करवाता और फिर लोटकर दूसरा काम। बच्चों का दाखिला स्कूल में करा दिया था।
हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेशी -
इस बीच पिताजी को पटना हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेश करना था। गिरफ्तार होने के बाद, इसके अवधि की पुष्टि यही बोर्ड करती थी जिसमें हाई कोर्ट के तीन जज हुआ करते थे। पिताजी की केस में माननीय मुख्य न्यायधीश के.बी.एन. सिंह एवं अन्य दो जज बोर्ड में थे। उन्हें जिस तारीख को पटना लाया गया, मैं वहां उपस्थित था। हाई कोर्ट परिसर में उन्हें सीधे भागलपुर सेन्ट्रल जेल से जीप में बैठा कर लाया गया था। पुलिस की गारद थी। वे हाई कोर्ट की सीढियों को चढते हुए ऊपर आये एवं गैलियारे में बढने लगे।
पूरे हाई कोर्ट में सनसनी फैली थी। एक वकील को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था। वकील काफी उत्सुक थे। और तरह-तरह की बातें हो रही थी। बातें एवं चर्चाएं तो उस दिन से हो रही थी जब से वे राजनीति में सक्रिय हुए थे। पिछड़े वर्ग का महतो समुदाय का झारखंड क्षेत्र का आदमी बड़ी बड़ी बातें करता था। वे पहले वकील थे अपने समुदाय जिला कोर्ट में। वैसे हीं सभी टेढी नजर से देखते थे। ऊपर से सफल वकील और राजनीतिज्ञ। 6 मार्च 1975 में टुंडी प्रखंड के किसी केस में धर लिये गये। बेल पीटीशन सी.जी.एम के यहां किसी केस में दाखिल हुआ। ग्यारह मार्च तक कोई ऑडर नहीं दिया। सेसन्स जज के यहां 14 मार्च को बेल पीटीशन दाखिल हुआ। जमानत तो दे दिया गया लेकिन मेजिस्ट्रेट ने जमानतदार के कागज को देखने में चार दिन लगा दिया। 18 मार्च को छोड़ने का आदेश हुआ। उसी तारीख को उन्हें छोड़ा नहीं जा सका। रीलीज ऑर्डर कोर्ट से जेल जाने में तीन दिन लगा। 21 मार्च को रिहा होकर जेल गेट से बाहर निकले ही थे कि पुन: गिरफ्तार किया गया मीसा के तहत एवं फिर उल्टे पांव अंदर कर दिया गया। वहीं मीसा का नोटिस उन्हें दिया गया। उस नोटिस में उपायुक्त ने गिरफ्तारी के आदेश पर 18 मार्च को हस्ताक्षर किया था। ऐसा प्रतित होता है कि कोर्ट को पता था कि अब उन्हें मीसा में लिया जायेगा और आदेश पर हस्ताक्षर होने ही वाले हैं। तभी तो 11 मार्च 1975 से 21 मार्च 1975 तक बेलर के कागजात की जांच में तथा जमानत आदेश को जेल तक भिजवाने में लग गये।
पिताजी पर आरोप था कि उनकी हरकतों के चलते लोक व्यवस्था पब्लिक ऑर्डर भंग हो रही थी और इस लोक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्हें जेल में एक वर्ष तक बन्द रखना जरूरी था। इस संबंध में कई मुकदमों का जिक्र किया गया था, जो पिताजी के चलते हुए एवं कई घटनाओं को उदाहरण स्वरूप नोटिश में दिया गया था जिससे लोक व्यवस्थ चरमरा गई थी।
29 अगस्त 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 3 नवंबर 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 4 फरवरी 1974 गोल्फ मैदान धनबाद की मीटिंग, 25 फरवरी 1874 कतरास सिरामिक की घटना, 1 नवंबर 1973 मोरचोकोचा महतो टांड की घटना, 3 मार्च 1974 सिंहडीह में जीटी रोड पर जुलूस, 5 मार्च 1974 में दुमुन्डा, टुंडी में हुए मारपीट की घटना जिसमें कई आदिवासी मारे गये थे। वे बड़े गर्व से सीना ताने आगे बढ रहे थे। वे अपने सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह कमीटेड थे।
तत्कालीन व्यवस्था में बिनोद बाबू को विश्वास नहीं था -
वे इस व्यवस्था को शासन करने की प्रणाली को शोषण पर आधारित समझते थे। ऐसा शोषण जो मेहनतकश, शारीरिक श्रम करने वालों, खेती करने वाले किसान एवं मजदूरों के शोषण पर टिका है और चंद ‘पेरासाइट’ जो शारीरिक श्रम नहीं करते सिर्फ दूसरों को आदेश देने का काम करते हैं मौज कर रहें हैं। इस समाज व्यवस्था में उनकी पूछ उनका स्तर, उनका वेतन, उनका मूल्य शारीरिक श्रम करने वालों से बहुत ज्याद होता है। जबकि शारीरिक श्रम करने वालों को हेय समझा जाता है। एक वकील होने के बाद उन्हें इस व्यवस्था का काफी ज्ञान हो गया था। और उनका विश्वास अपने सिद्धांतों के प्रति और बढ गया था। कानून प्रक्रिया की जटिलताएं एवं खर्च के कारण अनपढ इस कानूनी लड़ाई के माध्यम से अपना हक एवं अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट 1908 को ही ले। इसमें एक प्रावधान है कि आदिवासियों-हरिजनों यानि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों की जमीनें कोई दूसरा गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। उनका हस्तानांतरण होगा पर अपने हीं दूसरे जनजाति या जाति के साथ, पर उनमें भी जिले की क्लेकटर की अनुमति की आवश्यता जरूरी है। पर इस कानून के रहते आदिवासिय-दलित समुदाय के जमीनों का हस्तांतरण होता रहा और गैर आदिवासी-दलित समुदाय के लोगों के हाथों में जाता रहा।
यह कानून इतना कठोर है कि हस्तांतरण रद्द भी किया जा सकता है। पर यह कानून लागू नहीं हो पाया। बिनोद बिहारी महतो ने इसके लिये सीधी लड़ाई का रास्ता अपनाया यानि जो जमीन गलत ढंग से गैर आदिवासियों के कब्जे में चली गई थी, उसे प्राप्त करने के लिये कानून का दरवाजा नहीं खटखटाकर सीधे उस जमीन पर खड़ी फसल काट लेने का उन्होंने रास्ता बताया और इस प्रकार कई जगहों में ‘धान कटनी’ का प्रसिद्द आंदलोन शुरू हो गया। इसी कारण तथा उनके द्वारी चलाये गये अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को दबाने के लिये उन्हें कई मामलों में अभियुक्त बनाया गया। उन्हें इसी कारण ताकि उनकी गति विधियों पर रोक लगे उन्हें ‘मीसा’ के तहत बंद कर दिया गया।
पटना उच्च न्यायलय की गैलरी से पार होते हुए उन्होने मुझे देखा। उनके चेहरे पर क्षण भर के लिये उदासी की लकीर दौड़ गई। पुलिस वाले उनके साथ थे। और भी लोग उन्हें देखने के लिए आगे बढ गये थे। अत: मैं वहीं खड़ा रहा। वे आगे बढे और उन्हें एक कक्ष में ले जाया गया। मैं भी उसमें दाखिल हुआ तो देखा कि वहां पटना उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री सिंह एवं अन्य दो न्यायधीश बैठे थे। कमरे में धनबाद के उपायुक्त श्री झा एवं अन्य पदाधिकारी उपस्थित थे।
Monday, June 23, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment