झारखंड आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र आपकी बात क्यों मानेगी ?
अलग राज्य आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र सरकार आपकी बात क्यों मानेगी ? राष्ट्रपति महोदय ने यही सवाल हमलोगों से पूछा। इस पर हमने कहा कि सर हमें यह बात समझ में नहीं आती है कि देश में आजादी के बाद कई नये राज्य बनाये गये, बिना आंदोलन के। पंजाब और हरियाणा अलग हुए। गुजरात एवं महाराष्ट्र अलग हुए। मद्रास एवं कर्नाटक अलग हुए। सीमांत में कई नये राज्य बनाये गये। फिर झारखंड राज्य के गठन के लिये आंदोलन को पैमाना क्यों बनाया गया और क्यों बनाया जा रहा है ? हमने राष्ट्रपति जी से पलट कर सवाल रख दिया। वे चुप थे।
पचास वर्षों के आंदोलन को जब मौका आया कुचल दिया गया या खरीद लिया गया। आम जनता के ह्रदय में आज भी यही मांग बसी है। पूरे देश में जब भाषा संस्कृति के आधार पर नये राज्यों का गठन कर दिया गया है, झारखंडी सभ्यता संस्कृति की भी अलग पहचान है। तो भी इसे अलग राज्य का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। हमने महामहिम राष्ट्रपति जी से गुहार लगाई कि हमारे साथ ऐसा सौतेला व्यवहार न किया जाये। हमारी सभ्यता संस्कृति और पहचान को मिटने से बचाया जाये।
झारखंड के विकास के लिये शक्तिशाली परिषद की पेशकश –
माननीय राष्ट्रपति जी ने कहा कि वे भी तो चाहते हैं कि झारखंड का विकास हो। और विकास के लिये अगर सरकार अलग राज्य देने से भी बढिया चीज आपको दे तो क्या आप विरोध करेंगे ? हमने कहा कि कदापि नहीं। पर वैसा कौन सा विकल्प है उसे हमलोगों के सामने और झारखंडी जनता के सामने भी सरकार को रख देना चाहिये। इस पर राष्ट्रपति महोदय ने हमारी तरफ देख कहा कि झारखंड क्षेत्र के लिये एक विशेष प्रकार के शक्तिशाली परिषद के गठन की बात केन्द्र सरकार सोच रही है। उस परिषद में इतनी शक्तियां प्रदान की जायेगी कि आपलोग झारखंड का विकास भली भांति कर सकेंगे।
मेरी आशंका सही निकली –
हमें पहले से इस बात कि आशंका थी जैसा कि मैंने पहले हीं इंगित किया है कि हमारे झारखंड के नेताओं ने आर्थिक नाके बंदी के आंदोलन को अलग राज्य की शर्त पर नहीं, अन्य किसी शर्त पर वापस ले लिया था। आज मेरी आशंका सत्य प्रतीत हो रही थी। अब हमें यह समझ में आ गया था कि क्यों राष्ट्रपति महोदय ने हमें बुलाया था? मैं तो चकित रह गया था। यह क्या हो रहा है।
मैंने राष्ट्रपति महोदय से पूछा कि सर, इस परिषद के विषय में किन लोगों ने सहमति जाहिर किया है? राष्ट्रपति महोदय ने सोचा की अब हम परिषद की बात पर सोचेगें। उन्होंने कहा कि यह जो परिषद बनेगा वह बहुत ही अच्छा होगा। पूरा फंड दिया जायेगा। विधिवत चुनाव होगा। उसमें विशिष्ट शक्तियां निहीत होंगी।
परिषद से झारखंड वासियों को कोई लाभ नहीं होगा-
इस पर मैंने बड़ी शिष्टता से प्रणाम करते हुए कहा कि सर, आजतक बहुत सारे परिषद झारखंड क्षेत्र के विकास के लिये बनाये गये हैं। 1951 में भी एक परिषद बनाया गया था, जिसका नाम झारखंड विकास परिषद था। फिर झारखंड आंदोलन जोर पकड़ता रहा। आंदोलनकारी नेताओं की तृष्टि के लिये किसी न किसी प्रकार का परिषद बना दिया गया और उन्हें कोई न कोई पद दे दिया गया। 1971 में भी छोटानागपुर संथाल परगना विकास प्राधिकरण का गठन किया गया था। फिर 1978 में भी झारखंड विकास परिषद बनाया गया। इसके अलावा ट्राइवल डेभेलपमेंट प्रोजेक्ट के नाम पर कितने ही उपाय किये गये, पर झारखंड अलग राज्य की मांग उठती ही रहीं। झारखंड के लोग इन प्रयोगों से संतुष्ट नहीं हो सके। क्योंकि उनकी समस्याओँ का समाधान नहीं हो पाया। ये सारे परिषद विफल हुए। सर, मेरा मानना है कि किसी भी प्रकार के परिषद को इतनी शक्ति भारतीय संविधान के तहत प्रदान नहीं किया जा सकता है कि वह राज्य सरकार के मर्जी के बिना चल सके। झारखंड के जल, जंगल और जमीन संबंधी समस्याओं का समाधान तो तभी हो सकता है, जब इन विषयों पर झारखंड में कानून बनाया जा सके। परिषद को कानून बनाने की शक्ति कभी प्रदान नहीं की जा सकती है। सिर्फ विधान सभा ही ऐसा कर सकती है।
झामुमो नेता शिबू सोरेन और अन्य दल के लोग भी परिषद के लिये राजी –
माननीय राष्ट्रपति जी के मन में मेरे बात का क्या प्रभाव पड़ रहा था यह तो हम नहीं बता सकते, पर इतना जरूर कह सकते हैं कि वे गंभीर हो गये थे। उन्होंने पहले कुछ पूछे गये प्रश्नों को फिर दोहरा दिया। कहा कि जब सारे राजनीतिक दल झारखंड के विकास के लिये एकमत होकर प्रस्तावित परिषद पर सहमत हैं और अलग राज्य की मांग छोड़ दी है तो आप लोग क्यों नहीं मान रहे ? उन्होंने आगे कहा कि आपके झामुमो नेता शिबू सोरेन ने भी इसे स्वीकार कर लिया है।
यह सुनकर कि झारखंड नामधारी दल के सांसदों एवं दूसरे दलों ने भी प्रस्तावित किसी प्रकार के परिषद का समर्थन कर दिया है, हमें थोड़ा झटका लगा। कांग्रेस और जनता दल यह षडयंत्र कर ही रहे थे। पर शिबू सोरेन जो झामुमो के अध्यक्ष थे और शुरू से जिस झामुमो के संविधान में बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के सीमवर्ती झारखंड क्षेत्रों को मिलाकर एक राज्य गठन करने का लक्ष्य ही रखा गया था, उसकी मांग छोड़ परिषद के मुद्दे पर वे राजी हो जायेंगे, ऐसी उम्मीद हमें नहीं थी। अब हमें पता चल चुका था कि आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेने का मुख्य कारण क्या था?
कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका समझ से परे –
भारत में कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका को मैं आज तक समझ नहीं सका। कम्यूनिष्टों के महान नेता लेनिन ने कहा था कि शोषित, दलित और राष्ट्रीयताओं को उनके स्वाबलंबन दिलाने का काम कम्यूनिष्ट का पहला कर्तव्य था। क्या यही भारत वर्ष के कम्यूनिष्टों ने सिखा था कि साठ वर्षों से चलने वाला झारखंड की सभ्यता संस्कृति को, उसकी पहचान को बरकरार रखने के लिये जूझने वाला झारखंड आंदोलन को मुकाम पर नहीं पहुंचा कर दिग्भ्रमित कर दिया जाये। भारतीय जनता पार्टी जो लगातार लालू यादव और कांग्रेस के विरूद्ध रही उसने भी इस प्रस्तावित परिषद पर सहमति दे दी। जनसंघ के समय से हीं इस पार्टी ने अलग झारखंड राज्य की गठन की मांग को माना था भले हीं वह वनांचल के नाम से ही क्यों न हो ?
मन में कई सवाल उठ रहे थे। हमारा विश्वास डगमगाने लगा था। जब सभी प्रस्तावित परिषद की बात कर रहे थे तो एक बारगी मेरे मन में भी विचार आया कि हो सकता है कि यही रास्ता सही हो झारखंड के विकास का। लेकिन फिर मन में विचार आया कि लगता है कि सारे लोगों ने एक बार फिर झारखंडियों को छलने का काम किया है। जितने भी राजनीतिक दल थे उनके आका झारखंड के बाहर के लोग थे, सिर्फ झारखंड नामधारी दलों के सिवा। हमारी लड़ाई ही बाहरी वर्चस्व के खिलाफ थी। मुझे लगने लगा कि एक बार फिर अनपढ और अनुभवहीन झारखंडी नेताओं को लाचारी नजर आयी होगी। उन्हें यह लगा होगा कि जब ये लोग राज्य देगा हीं नहीं तो जो मिलता है वही ले लो। ऐसा ही लगता है कि झारखंड के नेताओं ने सोचा था।
राष्ट्रपति महोदय अलग झारखंड राज्य से कम पर कोई समझौता नहीं –
हमने मन ही मन तय किया कि झारखंड की जनता को बतायेंगे कि उनके साथ दगा किया गया है। अन्याय किया गया है। मैंने माननीय राष्ट्रपति जी से कहा कि सर मैं राजनीति के खेल को अच्छी प्रकार नहीं समझता। मैं इस खेल में नया आया हूं पर एक बात अच्छी प्रकार से जानता हूं कि सच्चाई का साथ देना चाहिये। सच्चाई यह है कि पचास वर्षो से झारखंड क्षेत्र की जनता पीस रही है अन्याय एवं अनाचार से। हमारी सभ्यता संस्कृति सभी नष्ट हो रहें है। हमारी पहचान मिट रही है। हम अपने आपको तभी बचा पायेंगे जब जमीन पर कानून बनाने एवं स्वामित्व का अधिकार झारखंडियों का होगा। यह सिर्फ अलग झारखंड राज्य से ही संभव है। इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है। सर हम किसी भी प्रकार के परिषद के निर्माण पर सहमति नहीं दे सकते। यह झारखंडियों के साथ बेईमानी होगा।
आपको प्रधानमंत्री से बात करनी चाहिये-
संसद भवन में जनता ने हमें इसलिये भेजा है कि हम झारखंड अलग राज्य की बात करें। हम उनके साथ धोखा नहीं कर सकते। महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने थोड़ी देर तक मेरी तरफ देखा और कहा कि आपको देश के प्राधानमंत्री से बात करनी चाहिये। वे मान जाते हैं तो आपकी मांग पूरी हो सकती है। इस पर मैंने कहा कि माननीय महोदय प्रधानमंत्री जी के साथ व्यक्तिगत तौर पर कभी बातचीत नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं बुलाया। जो भी वार्ता हुई माननीय गृहमंत्री जी के साथ ही हुई।
झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे -
राष्ट्रपति महोदय हम तो बड़े भाग्यशाली हैं कि आपने हमें बुलाया। और हमारी बातें इतनी देर तक सुनते रहे। हम तो अनुभवहीन लोग हैं। हो सकता है अज्ञानता के कारण हमने कोई गलत बात आपसे कह दी हो। हम क्षमा प्रार्थी हैं सर। इस पर माननीय राष्ट्रिपति मुस्कुराये। हमने कहा कि जब देश का सर्वोच्च व्यक्तित्व प्रभावित हुआ है, तो आपके आशीर्वाद से हम एक न एक दिन झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे। ऐसा विश्वास हमें आपसे मिलने के बाद पैदा हो गया है।
मेरे बारे में राष्ट्रपति महोदय ने पूछताछ की -
अचानक राष्ट्रपति महोदय ने पूछा कि आप राजनीति कितने सालों से कर रहे हैं ? सर, मैं पहली बार लोक सभा का सदस्य बना हूं। वह भी अपने स्वर्गीय पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद लोक सभा की जो सीटे खाली हुई, उससे उपचुनाव में जीत कर आया हूं। मैने चुनाव जीता 10 जून 1992 को। करीब ग्यारह महीने हो रहे हैं। अगला सवाल पूछा गया कि उससे पहले क्या करते थे? मैंने कहा कि पटना हाई कोर्ट के रांची खंडपीठ में सरकारी वकील था। और अगर चुनाव न लड़ता और समय न बदलता तो आपकी कलम से मेरी नियुक्ति हाई कोर्ट के जज के रूप में हो गई होती।
यह सुनकर उन्होंने कहा कि वे रांची को अच्छी तरह जानते हैं। और कई बार वहां गये भी। राष्ट्रपति महोदय को न जाने क्या सुझा उन्होंने मुझसे कहा कि आजकल तुम कहां रहते हो क्या गिरिडीह में रहते हो? मैंने कहा कि सह मैं धनबाद में रहता हूं वहां हमारा पैतृक घर है। तब उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स के बारे में सुना है? मैंने सिर्फ कहा कि हां तब उन्होंने बताया कि वहां मेरा नाती पढता था, माइनिंग इंजीनियरिंग में। इस पर मैंने उनको बताया कि मैंने भी माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री वही से हासिल की है। और 1968 में पास हुआ था। तो वे बोले की उनके नाती उनसे कई साल सीनियर थे।
इस प्रकार की वार्ता भी राष्ट्रपति जी से हुई। इस बीच कई बार उनका सुरक्षा कर्मी भीतर आया और घड़ी की सुई की ओर इशारा किया। पर माननीय राष्ट्रपति महोदय वार्ता को हर बार आगे बढाते रहे। इस प्रकार आधा घंटा बीत चुका था।
राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन -
अंत में हमने अपना ज्ञापन उन्हें सौंप दिया और एक प्रति पर अन्दर के प्रथम पृष्ट पर उनका हस्ताक्षक मांगा। राष्ट्रपति महोदय ने मजाक किया और कहा कि आपलोग बड़े चतुर मालूम पड़ते हो। इस ज्ञापन के अंदर हमसे हस्ताक्षर कराकर अपने दल में शामिल करना चाहते हो। उन्होंने कहा कि वे ज्ञापन के मुख्य पृष्ट पर अवश्य हस्ताक्षर कर देंगे। उन्होंने अपनी कलम उठाई और हस्ताक्षर करना चाहा लेकिन मुख्य पृष्ट प्लास्टित कोटेड था, कलम फिसल गई। और लिखा नहीं जा सका। तब उन्होंने कहा कि इसके लिये उपयुक्त कलम लेकर आता हूं। कक्ष काफी बड़ा था उन्हें चलने में बड़ी कठिनाइयां हो रही थी। मैं लपकता हुआ लगभग मेज तक पहुंच गया। मोटी सी मारकर पेन लेता तब तक वे भी पहुंच गये। उन्होंने पेन लिया और वापस आये। मैं तो साथ ही गया और साथ साथ ही आया। उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।
उन्होंने मुझसे कहा कि किस लिपि में हस्ताक्षर करूं देवनागरी या रोमन में ? मैंने कहा देवनागरी में। उन्होंने उस प्लास्टिक कवर पर देवनागरी में हस्ताक्षर(शंकर दयाल शर्मा) कर दिया। हमने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति से हमें इतना प्यार एवं स्नेह मिलेगा। हम अभिभूत थे। हमने उनसे आग्रह किया था कि समय मिले तो ज्ञापन को एक बार अवश्य देख लेने की कृपा करेंगे। उन्होंने जवाब में सिर्फ सिर हिलाया था। हमने उन्हें प्रणाम किया और धीरे धीरे कक्ष से बाहर आ गये। (जारी)
Sunday, June 29, 2008
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