Monday, December 14, 2009

अलग राज्य की मांग को लेकर राजनीति

झारखंड, उत्तराखंड और छतीसगढ के गठन के बाद तेलंगाना, विदर्भ, गौरखालैंड, बुंदेलखंड, पूर्वाचंल और हरित प्रदेश राज्य बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। यह यही थमने वाला नहीं है बल्कि और भी राज्यों की मांग बनाने की आवाज उठ सकती है। हालांकि भारतीय संविधान में इस बात की पूरी आजादी है और केंद्र सरकार को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह संवैधानिक प्रावधान को अपनाते हुए किसी भी राज्य के क्षेत्र को घटा-बढा सकती है। नये राज्य का गठन कर सकती है। इतना हीं नहीं दो या इससे अधिक राज्यों के भूभागों को मिलाकर एक नये राज्य का गठन भी कर सकती है।

समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह ने कहा कि देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने छोटे छोटे राजवाडों को मिलाकर देश की एक कायम की थी लेकिन यूपी की मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार देश की एकता छिन्न-भिन्न करने में लगी है। लेकिन यहां मैं साफ कर दूं कि इससे देश की एकता को कोई खतरा नहीं होगा। क्योंकि अलग होने के बावजूद नवगठित राज्य अन्य राज्यों की तरह हीं काम करेंगे। मुंबई को विभाजित कर महाराष्ट्र और गुजरात का गठन किया गया, बंगाल को विभाजित कर बिहार और उडीसा का गठन हुआ, बिहार से अलग कर झारखंड का गठन हुआ। ऐसे देश भर में दर्जनों राज्यों का गठन हुआ है। इसलिये सामान्य तौर पर इसे देश की एकता अखंडता के लिये खतरा नहीं माना जा सकता।

लेकिन दूसरी ओर हमें यह भी ध्यान देना होगा कि आखिर राज्य गठन के पीछे की मंशा क्या है? यदि राज्य गठन के पीछे की मंशा विकास और आम जनता को बेहतर जीवन देना है तो इसमें कोई गलत नहीं। यदि कोई सियासी मंशा है तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है।

उदारहरण के तौर पर झारखंड को हीं लें। अलग झारखंड राज्य की मांग आजादी से पहले की है। इसके लिये क्रांतिकारी आंदोलन हुए। झामुमो के क्रांतिकारी नेता विनोद बिहारी महतो और शिबूसोरेन के नेतृत्व में झारखंड अलग राज्य की मांग जोर पकड़ी। इनके आंदोलन और अलग राज्य बनाने के पीछे मंशा साफ थी कि वर्षों से झारखंड के आदिवासी-दलित-पिछड़े वर्ग के साथ जो भेदभाव क्या जा रहा है उसे खत्म कर राज्य का विकास करना है।

झारखंड अलग राज्य की तैयारी भी शुरू हो गई। लेकिन जब झारखंड राज्य को अलग किया गया, उस समय अलग राज्य की मंशा के पीछे आर्थिक विकास और जनकल्याण की भावना नहीं थी बल्कि राजनीतिक और लूटखसोट की भावना थी। बिहार के ताकतवर नेता लालू प्रसाद यादव को कमजोर करने की मकसद से झारखंड अलग राज्य का गठन किया गया। ऐसे में वहां नये राज्य की सत्ता में वे लोग आ गये जिसका जिनका संबंध कभी क्रांति या विकास की भावना से नहीं रहा। सिर्फ लूट खसोट करना हीं मकसद था। और यही हुआ। बीजेपी और कांग्रेस के नेतृत्व में जो मिली जुली सरकार बनी उसमें सिर्फ लुट खसोट हुआ। यदि एक व्यवस्थिक तरीके से राज्य का गठन किया जाता तो आज झारखंड की स्थिति अलग होती। झारखंड के भीष्णपितामाह कहे जाने वाले विनोद बिहारी महतो यदि जिंदा होते तो शायद झारखंड की यह दुर्दशा नहीं होती।

जिस प्रकार आजादी से पहले अंग्रेज कहा करते थे कि भारत के लोग सरकार नहीं चला पायेंगे लेकिन आज हम सिर्फ सरकार हीं नहीं चला रहे हैं बल्कि विश्व को नेतृत्व देने की ताकत रखते हैं। झारखंड और झारखंड के बाहर लोग यही कहते हैं कि झारखंड के लोग सरकार नहीं चला सकते। विकास का काम नहीं कर सकते। लेकिन मैं कहता हूं कि झारखंड के नेताओं में अपार क्षमता है विकास करने की। लेकिन उन्हें सावधान रहना है दलालो से अन्यथा वे भी कुछ नहीं कर पायेंगे।

केद्र सरकार और राज्य सरकारों के अलावा संसद के सदस्यों और विधान सभा के सदस्यों को कोई फैसला लेने से पहले यह जरूर देख लेना चाहिये कि अलग राज्य का दर्जा देने के बाद वहां किस प्रकार की दिक्कते आ सकती है। उसके लिये पहले ही इंतजाम कर लेना चाहिये। यदि यह तय हो जाता है कि अलग राज्य का गठन होना है तो एक निश्चित सीमा के अंदर नये राज्य के लिये आधारभूत ढांचा खड़ी कर लेनी चाहिये नहीं तो लूट खसोट की संभावना बनी रहेगा।

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