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सबसे पहले नक्सल और माओवादी को संक्षेप में समझिये। दोनो के बीच काफी समानता होने के बावजूद भारत में दोनो को एक साथ नहीं मिला सकते। नक्सल का उदय भारत(पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव) में हुआ और माओवाद का उदय चीन में। दोनो के बीच बड़ा अंतर है। माओवाद राजतंत्र के खिलाफ एक सिंद्वात के आधार पर लड़ा गया गृहयुद्व है। जिसमें बंदूक का बड़ा महत्व रहा है । इसके सहारे लोकतांत्रिक तानाशाही के नेतृत्व में एक समाजवादी सरकार का गठन करना है। जैसा कि चीन में हुआ। और इसका आंशिक प्रभाव चीन के पड़ौसी देशों पर भी पड़ा जिसमें भारत भी है। लेकिन जो चीन में हुआ वह भारत में नहीं हो सकता।
भारत में कभी भी क्रांति नहीं हुआ। सामाजिक खूनी क्रांति नहीं हुआ। हम अंग्रेज के गुलाम थे लेकिन आजादी मिलने के बाद देश का केद्रीय शासन भले हीं एक सुलझे हुए लोगों के हाथ में रहा हो लेकिन प्रांतीय शासन जमीनदारों के हाथों में चला गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत के आजाद होने के बाद भी देश की जो आम जनता थी उनकी हालत और पतली हो गई।
अंग्रेजों के जमाने में मजदूर किसान कोड़े खाते थे। कोड़े मारने वाले लोग अंग्रेजों के पैसों पर पले भारतीय जमींदार के गूर्गे हीं होते थे। वे भी भारतीय हीं थे। आजादी के बाद जमींदार देश के मंत्री बन बैठे और उनके गुर्गे उसी प्रकार कोड़े चालते रहे। इतना हीं नहीं गरीबो के खेत खलीहान भी अपने नाम करवा लिये। इससे आगे बढकर उनकी बहुबेटियों की इज्जत भी तार-तार करने लगे। ऐसा लगने लगा कि 15 अगस्त 1947 को जो आजादी मिली वो सिर्फ भारत के एक वर्ग के लिये था।
आजादी के बाद देश की सत्ता में आये केंद्रीय शासन के पास इतना अधिक काम था कि वह हर चीजों पर ध्यान दे पाने में समर्थ्य नहीं थे। आम लोगों के लिये योजना बनाते उनके लिये बजट पास करते लेकिन उसका फोलोअप नहीं कर पाते थे।
राज्यों में जो सरकार बनीं वो तो बदतर थी। आमलोगों के नाम पर जो बजट पास करते या केंद्र से जो मदद मिलती उसे हजम कर जाते थे। उस समय की मानसिकता ऐसी थी कि पिछडे-दलित-आदिवासियों की बस्ती में कोई स्कूल बनाना नहीं चाहता था। सड़क, स्वास्थ्य और जल व्यवस्था के क्षेत्र में कोई काम नहीं करता था। विकास के नाम पर बजट पास करते थे लेकिन खर्चा अपने घरों के लिये करते थे। गरीबो के विकास के नाम पर हजारो करोड नहीं, लाखो करोड़ रूपये के बजट पास हो चुके हैं अब तक। लेकिन विकास नाममात्र को हुआ। इसके लिये दोषी कौन है क्या कभी सरकार ने इसबारे में सोचा है?
पश्चिम बंगाल के नक्सलाबाडी़ गांव से जमींदारों के खिलाफ जो आवाज उठी है वह धीरे धीरे अब ताकतवर होता जा रहा है। यह लड़ाई किसी वाद से जुड़ा हुआ नहीं था। जमींदारों के आंतक से देश का अधिकांश हिस्सा पीड़ित है। पीडित परिवारों में से कुछ ऐसे नौजवान थे जो गरीबों को अपने अधिकार प्रति जागरूक करना शुरू किया। यह सब कुछ सत्ता में बैठे लोगों को अच्छा नहीं लगा और उनकी ह्त्याएं की जाने लगी। इसके जवाब में गरीब नौजवान इकठ्ठा होने लगे। एक से दो, दो से चार, एक इलाके से दूसरे इलाके, एक जिला से दूसरे जिले और एक राज्य से दूसरे राज्य तक फैल गया।
नक्सलबाडी से उठी लड़ाई का जो आधार था वह बहुत कुछ मिलता-जुलता था माओवाद से। भारत में माओवाद की राजनीति करने वालों ने इसे एक वैचारिक ताकत दे दी। इससे शोषण से लाचार गरीबों ने अपनी आत्म रक्षा में हथियार उठाये और उसे एक सूत्र में पिरोया माओवाद के सिद्वांत ने। इ
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इसका एकमात्र हल है एक साथ अनेक क्षेत्रों में काम करने की। सबसे पहले नक्सल से बातचीत के प्रति ईमानदारी से पहल करना। उन्हें विश्वास दिलाना की सरकर के पास ऐसी योजना है जो पिछडे इलाको में विकास के लिये ठोस कदम उठायेगी और यह काम कुछ महीनों में शुरू हो जायेगा। यदि इसमें किसी प्राकर की राजनीति होती है तो स्थिति और विस्फोटक हो जायेगी।
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राहुल गांधी तो ऐसे नेता हैं जो सिर्फ गरीबों के हितों के लिये विचार हीं नहीं करते बल्कि गरीबों को
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