Wednesday, November 5, 2008

आर्थिक विकास के लिये जरूरी है कि बिहारवासी जातीय व्यवस्था से बाहर आयें

(इसे पढकर आपको बिहार की झलक मिल जायेगी संक्षेप में)
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बावजूद बिहारवासी नहीं सुधरे। जिस प्रकार दूसरे राज्य के लोग जातीय-गंदगी में फंसे रहे उसी तरह बिहारवासी भी गंदी जातीय राजनीति से नहीं बच पाये। और वे इसमें इस तरह जकड़े कि यह जातीय राजनीति ने बिहार को ही ले डूबा। बिहार का शानदार इतिहास रहा है हर क्षेत्र में चाहे वो लोकतंत्र का मामला हो या आर्थिक, धर्म, शिक्षा या स्वतंत्रता आंदोलन का।

हम कब तक इतिहास को लेकर ढोते रहेंगे कि हम उस धरती के हैं जहां चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक से लेकर समुद्रगुप्त जैसे महान राजा और योद्वा हुए। वैशाली में लोकतंत्र की शुरूआत प्राचीन काल में ही शुरू हो गई। नालंदा जैसे विश्व-प्रसिद्व विश्वविद्यालय थे। अब सिर्फ खंडहर है। बोध और जैन धर्म का उदय बिहार में हुआ। सिख धर्म को शक्तिशाली बनाने वाले गुरू गुरू गोविंद सिंह का जन्म पटना में हुआ। शेरशाह शाह सूरी भी बिहार के सासाराम के थे। जिन्होंने मुगलो को परास्त करने के अलावा आर्थिक जगत में जबरदस्त प्रगति की। आज का रूपया और कस्टम ड्यूटी भी शेरशाह की ही देन है। देश का सबसे प्रसिद्ध सड़क जी टी रोड भी उन्हीं के कार्यकाल में बनाया गया ताकि व्यापार दूर दूर तक हो सके। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर बिहार से ही शुरू की क्योंकि और जगह के आम लोग अंग्रेंजो से टकराने में सक्षम नहीं थे। बहरहाल यह सब कुछ इतिहास है। अब हमें देखना है कि अब हम कहां हैं।

आजादी के पहले से ही अन्य इलाकों की तरह बिहार में भी जातीय राजनीति हावी थी लेकिन अन्य राज्य के लोग समय के साथ साथ जातीय व्यवस्था के गंदी राजनीति से उबर रहे थे लेकिन बिहार सहित हिन्दी भाषी राज्य गंदी राजनीति और जमींदारी से उबर नहीं पा रहे थे। आजादी से पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ और ब्राह्मण समाज का दबदबा था आजादी मिलते मिलते बिहार की राजनीति में भूमिहार और राजपूत समाज का दबदबा बढने लगा। उस समय भूमिहार समाज के सबसे ताकतवर नेता थे श्रीकृष्ण सिन्हा और राजपूत समाज के सबसे ताकतवर नेता थे डा अनुग्रह नारायण सिंह। दोनो के बीच चली जातीय राजनीति जंग में श्रीकृष्ण बाबू मुख्यमंत्री बने। श्री सिंह मुख्यमंत्री की जगह वित्त मंत्री बने जो उप मुख्यमंत्री के हैसियत में थे। यही से दोनो जातीयों के बीच भंयकर हिंसा हुई और यह खाई आजतक जारी है। कायस्थ समाज के डा राजेन्द्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। डा राजेन्द्र प्रसाद को जातीय बंधन में नहीं बांधा जा सकता लेकिन कायस्थ समाज के लोग इसी जातीयता पर गर्व करते हैं। ब्राहम्ण समाज शुरू से ही ताकतवर रहा। कोई बडा नेता भले हीं न हो लेकिन उनका दबदबा था।
अन्य जातियों की चर्चा करना हीं बेकार है। उन्हें एक छोटी सी सरकारी नौकरी भी मिल जाती तो बड़ी बात थी राजनीति में कमान देने की बात तो सपने जैसा था। उन्हें इंसान तक समझा नहीं जाता था बिहार में।

जातीय राजनीति और नरसंहार - आर्थिक प्रगति करने की वजाय वहां के नेता ऊंची जाति की राजनीति करते रहे। राजनीति स्तर पर कायस्त पीछे छुट गये क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम थी और ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार की राजनीति में कहीं नहीं ठहरते थे क्योंकि राजनीति में हिंसा का खेल शुरू हो गया था। राजनीतिक स्तर पर ब्राहम्ण नेता ललित नारायण मिश्र ने दलित समुदाय को अपने साथ जोड लिया। भूमिहार समाज भी ब्रहाम्ण समुदाय के साथ रहे क्योंकि श्रीकृष्ण बाबू के बाद कोई भूमिहार नेता राज्य स्तर पर उभर नहीं पाया। राजपूत समाज को अपनी राजनीति की चिंता हुई तो उन्होंने राजनीति स्तर पर पिछड़े समाज के लोगों को अपने साथ जोड़ लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर पिछडे और दलित-आदिवासी समुदाय का नरसंहार होता रहा। बिहार नरसंहार के लिये प्रसिद्व हो गया।

दलित-आदिवासी समुदाय की उपस्थिति बडे़ पैमाने पर संसद और विधान सभा में होती थी क्योंकि उनके लिये सीटें आरक्षित थी। लेकिन वे सामाजिक स्तर पर गुलाम से भी बदतर हालात में थे कुछ नेताओं को छोड़कर। इसी मारकाट और अपमान के बीच पिछड़े वर्ग में भी राजनीतिक चेतना जागने लगी। इसी का परिणाम है कि पिछडे़ वर्ग के कर्पूरी ठाकूर भी बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन राजनीतिक हैसियत पिछड़ों की नहीं के बराबर थी। इस बीच आये दिन पिछड़े-दलित-आदिवासी के बस्तियों में आग लगती रही, उनके जमीने हड़पी जाती रही, विरोध करने पर नरसंहार और बहुबेटियों की इज्जत लुटी जाती रही। यह सब आम हो चुका था। पिछडे वर्ग के द्वारा भी हिंसा का जबाब देना शुरू हो गया था फिर उधर हमला होता।

इसी बीच कांग्रेस के नेता राम लखन सिंह यादव पर पिछड़ों का दबाव बढता गया। राम लखन सिंह यादव घबरा गये। उन्हें लगा कि यदि कुछ नहीं किया गया तो पिछडे वर्ग को लोग वोट नहीं देंगे। राम लखन सिंह यादव को लगने लगा कि वह चुनाव हार जायेंगे। कहा जाता है कि रामलखन सिंह के इशारे पर ही कुछ दिन पहले हुए पिछड़ों की हत्या का बदला लेने की योजना बनी और दुष्परिणाम स्वरूप दलेलचक्र जैसे नहसंहार सामने आये जिसमें 40 से उपर लोगो की हत्या कर दी गई। सभी राजपूत समुदाय के थे। यह मारकाट का सिलसिला चलता रहा। उस दौर के जितने मुख्यमंत्री हुए डा़ जगन्नाथ मिश्रा, भागवत झा आजाद, बिंदेश्वरी दूबे, सत्येन्द्र नारायण सिंह सभी पहले की तरह जातीय व्यवस्था को बढावा देते रहे। नौकरियों में, ठेकेदारी में, पोस्टिंग में हर जगह। मारकाट के बीच राजपूत समुदाय की निकटता भी बढती गई पिछडे वर्ग के साथ। राजपूत समाज सामाजिक स्तर पर पिछड़े-दलित-आदिवासी को अपने से दूर रखता था लेकिन राजनीतिक स्तर पर निकट क्योकिं पिछड़ो की चेतना तेजी से उभर रही थी। राजपूत ब्राहम्ण-भूमिहार के साथ जा नहीं सकता था क्योंकि उनके सामाजिक स्तर कितने भी समानता हो लेकिन राजनीति स्तर में बडे पैमाने पर लोग एक दूसरे की हत्या करते थे। इस जातीय व्यवस्था को बिहार के बड़े नेता जय प्रकाश नारायण भी नहीं तोड़ पाये।

मंडल आयोग की घोषणा से राजनीति में बदलाव - इसी बीच 1989-90 में देश की राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग लागू करने का ऐलान कर दिया। इसके तहत सरकारी नौकरियों में पिछडे वर्ग को आरक्षण देने की व्यवस्था थी। अगडे तबके के लोगों ने इसका देशव्यापी जबरदस्त विरोध किया। हिंसा हुई। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। अगडे वर्ग के लोग पार्टी लाइन से हटकर अगड़े नेता को ही समर्थन कर रहे थे। पिछड़े-दलित-आदिवासी समाज के लोग भी पार्टी लाईन और विचारा धारा से हटकर वी पी सिंह, शरद यादव, रामविलास पासवान, बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के पक्ष में गोलबंद हो गये। पूरा देश अगड़े-पिछडे में बंट गया। इसको लेकर बिहार में हिंसा होने लगी। पिछडे समाज के लोग अगडे समाज के लोग पर हमले करने लगे। स्थितियां बदलने लगी। पहले अगड़े मुख्यमंत्री थे तो पिछडे वर्ग के लोग मार खाये। अब मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग का था तो अगड़े वर्ग की स्थिति कमजोर होने लगी। मंडल के राजनीतिक और सामाजिक माहौल गर्म रहा। आर्थिक मामले पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यही हाल उत्तर प्रदेश में रहा। पर वहां बिहार की तरह मारकाट न तो पहले थी और न ही मंडल के बाद। लेकिन पहले से जारी जातीय विभाजन और चौड़ी हो गई थी। इस दौर में दोनो ही खेमा चाहे वह अगड़ा हो या पिछड़े उसके गुंडो का बोलबाला रहा। दोनो ओर के छात्र आंदोलन करते लेकिन गुंडे इसका लाभ उठाते हुए निजी दुश्मनी निकालते, हत्या करते और जेब भरने के लिये लुटमार करते। स्थितियां विस्फोटक हो चुकी थी।
आर्थिक हालात पतली थी राज्य की। क्योंकि आजादी से लेकर आजतक के नेताओं ने आर्थक प्रगति की ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने ध्यान दिया तो सिर्फ जातीय और आपराधिक उद्योग पर। गावों की स्थिति खराब होती गई। गरीबी के कारण अगड़े और पिछडे दोनो वर्ग पलायान तो कर ही रहे थे लेकिन मंडल की हिंसा ने पलायन में और तेजी ला दी। लोग देश के दिल्ली मुंबई सहित अन्य शहरो में बड़े पैमाने पर बसने लगे। (महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसा इससे जोडकर न देखा जाये। क्योंकि महाराष्ट्र मे पहले गुजरातियों को गुजू कहकर मारापीटा गया, दक्षिण भारतीयों को लुंगी-पुंगी कहकर मारापीटा गया, फिर मुसलमानों को माराकाटा गया अब उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों भैया कहकर मारापीटा जा रहा है।)

गंगा नदी वरदान है - बिहार में खेती लायक इतनी जमीन है कि एक ही खेत में दो फसल पैदा हो सकती है एक साल में। और देश की आधी आबादी को अन्नाज उपलब्ध काराया जा सकता है। गंगा नदी में सालों भर पानी रहती है। खनिज का भंडार था बिहार में(अब झारखंड अलग हो चुका है)। लेकिन बिहार के नेताओं ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि राज्य की आर्थिक प्रगति कैसे हो। यदि बिहार के नेता जागरूक होते तो बिहार के खनिज का मुख्यालय दूसरे राज्यों में नहीं जाता। बिहार का रेवन्यू दूसरे राज्यों को मिलने लगा।

बिहार की दुर्दशा के लिय़े आजादी से लेकर अबतक के सभी नेता जिम्मेदार हैं। बिहार के नेतागण जागो। अभी भी समय है। जातीय राजनीति से उपर उठकर बिहार की आर्थिक प्रगति की कोशिश करें। सिर्फ अकेले गंगा नदी हीं बिहार को संपन्न राज्य बना सकती है। नेपाल से निकलने वाली नदियों को बांधकर बिजली भी बनाया जा सकता है नहरे भी बनाई जा सकती है, और राज्य को बाढ से भी बाचाय जा सकता है। नेताओं के अवाला बिहार के आमलोगों को भी विकास में योगदान करना चाहिये। सिर्फ नेता सब कुछ नहीं कर सकते। आर्थिक विकास के हालात बहुत अच्छे हैं बिहार में। बस जरूरत है जातीय व्यवस्था से ऊपर उठकर काम करने की।

दूसरे राज्य के लोग जो मांग कर रहे हैं वो गलत नहीं है उनका तरीका गलत है और देश तोड़ने वाला है। लेकिन हम अपने विकास के लिये क्या कर रहे हैं? यह माना जा सकता है कि हमारे संसाधन का बहुत बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों को चला जाता है लेकिन इसके लिये जिम्मेवार भी तो हमारे नेता ही रहे जिन्होंने ध्यान नहीं दिया।

बहरहाल अभी भी वक्त है मिलकर आर्थिक विकास करने की, नहीं तो पछताने का समय भी नहीं मिलेगा। दूसरे राज्य के लोग भी सावधानी से काम ले। क्योंकि देश का बड़ा हिस्सा(खेती और खनिज) बिहार,झारखंड और यूपी के पास है। यदि वहां स्थिति बिगड़ गई तो खनिज और अन्नाज की भारी कमी दूसरे राज्यों में हो जायेगी। इस समय बिहार में कई ऐसे नेता हैं जिनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर की है। ऐसे कई पत्रकार है जिनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर की है। आईएएस और आईपीएस भरे पडे हैं। सभी लोगो को मिलकर आर्थिक विकास की ओर कदम बढाना चाहिये।

10 comments:

Anonymous said...

आप किस आधार पर कह सकते हैं कि ब्राह्मणों का दबतबा था. मैने अभी अभी एक पुस्तक पढी- champaran gandhis first step
इसमें जिन पीडितों का documented evidence है उसमें बड़ी संख्या ब्राह्मणों एवम्
हरिजनो की है. अन्य जाति वाले गिने चुने हैं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बिहार वासी ही क्यो सारा देश इस जातीय व्यवस्था से बाहर क्यों न आए?

राजेश कुमार said...

द्विवेदी जी आपसे बिल्कुल सहमत हूं।

Anonymous said...

यह कहना आसान है कि सारा देश जाति व्यवस्था से बाहर आये. इसके लिये एक विशाल सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता होगी. इस तरह का गैर राजनैतिक, सामाजिक आन्दोलन बिना सक्षम नेतृव के कैसे संभव है.

Anonymous said...

यह कहना आसान है कि सारा देश जाति व्यवस्था से बाहर आये. इसके लिये एक विशाल सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता होगी. इस तरह का गैर राजनैतिक, सामाजिक आन्दोलन बिना सक्षम नेतृव के कैसे संभव है.

सुरेन्द्र Verma said...

Aap apne KALAM ko biram kabhi na de. sayad aapke KALAM ke jadu se Bihar ke log jagrook ho jaye aur 62 udhog lag jaye. Abhi maine 42 vasant dekha hai lekin 42 udhog bihar mein nahi lag sake.
Jat-pat ka Biz kab ka lag chuka hai log ab phal khane mein lage hai. Jarurat hai Budhdhijiwi varg ko jagrook karana.

Unknown said...

"…दूसरे राज्य के लोग जो मांग कर रहे हैं वो गलत नहीं है उनका तरीका गलत है और देश तोड़ने वाला है। लेकिन हम अपने विकास के लिये क्या कर रहे हैं? यह माना जा सकता है कि हमारे संसाधन का बहुत बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों को चला जाता है लेकिन इसके लिये जिम्मेवार भी तो हमारे नेता ही रहे जिन्होंने ध्यान नहीं दिया…" मेरे दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिये धन्यवाद…

राजेश कुमार said...

सच्चितानंद जी - लेखक सरयू प्रसाद के मगध का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास पढेंगे तो आपके सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा। जातीय व्यवस्था को आर्थिक प्रगति से ही कमजोर किया जा सकता है।

संगीता पुरी said...

बहुत जानकारी भरा और बहुत अच्‍छा लेख लिखा है आपने। इस लेख की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। बिहार को सबसे अधिक पिछडा हुआ देखते हुए आपने बिहार के बारे में ये बातें कही गयी हैं , पर ये बातें तो हर क्षेत्र के लिए उपयोगी है ही।

Unknown said...

सर
आपने जो कहीं उसमे किसी भी बात पर प्रश्‍न नहीं उठाया जा सकता है, पहली बात तो यह है कि जाति की जो राजनीति करते हैं क्‍या वे मुझे एक बात बता सकते हैं कि क्‍या वे खुद अपनी जाति का विकास कर पाने में सक्षम हैं, नहीं ना, क्‍योंकि हर जाति के लोग हर जगह बसे हुए हैं ऐसा नहीं है कि यादव कि फलां क्षेत्र में बसा है, उस क्षेत्र का विकास कर दो तो यादव जाति का विकास हो, यही नियम सभी जाति पर लागु होता है, फिर जब पुरे राज्‍य का विकास नहीं होगा तब तक किसी भी जाति या समुदाय का विकास नहीं हो सकता हैा