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सत्तापक्ष यानी यूपीए – सबसे पहले एक नजर यूपीए में शामिल राजनीतिक पार्टियां और बाहर से समर्थन देने वाले राजनीतिक दलों पर। यूपीए में कांग्रेस के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और डीएमके समेत कई पार्टियां हैं। आरजेडी-एलजेपी जैसी पार्टियां पहले यूपीए में थी जो अब बाहर से समर्थन दे रही है। समाजवादी पार्टी और बसपा भी यूपीए को बाहर से समर्थन दे रही है। इन सभी राजनीतिक पार्टियों के क्षत्रप काफी ताकतवार माने जाते हैं लेकिन सभी कांग्रेस के साथ है। कांग्रेस के साथ है कहना गलत होगा। यह कहना सही होगा कि वे कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के साथ हैं। यदि विश्वास नहीं है तो कांग्रेस का नेतृत्व सोनिया गांधी और राहुल गांधी को छोड किसी और के हाथ में दे कर देखिये। कांग्रेस पार्टी फिर रसातल में चली जायेगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए की चेयरवूमेन सोनिया गांधी और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की टीम के सामने अन्य सारी टीमें काफी कमजोर दिखती हैं। ये टीमें राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत हैं लेकिन जैसे जैसे छोटे चुनाव में जायेंगे इनका भी प्रभाव कम दिखेगा। जैसे विधान सभा चुनाव, महानगर पालिका, नगर पालिका और पंचायत चुनाव। अन्य पार्टियों के राष्ट्रीय नेताओं का प्रभाव तो है हीं नहीं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह – प्रधानमंत्री सिंह एक ईमानदार नेता हैं। देश दुनियां के विषयों पर अच्छी पकड़ रखते हैं। जिन सामाजिक विषय पर पकड़ कमजोर हैं उसे समझ कर आसानी से दूर करने की कोशिश करते हैं। और कम समय में हीं अच्छी पकड़ बना लेते हैं। वे इस बात का पता आसानी से लगा लेते हैं कि कौन उन्हें सही जानकारी दे रहा है और कौन गोलमटोल। देश की आर्थिक प्रगति में सार्वजनिक और निजी कंपनियों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित करते हुए आगे बढ रहे हैं। इनके बौद्विक क्षमता और ईमानदारी पर कोई अंगुली तक नहीं उठा सकता। विपक्ष प्रधानमंत्री को घेरने में हमेशा असफल रहा है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी – सोनिया गांधी एक ऐसा नाम है जो विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने का प्रतीक बन चुका है। ईमानदारी की राह पर चलना सिखाता है। जनता का विश्ववास जीतने के लिये त्याग की राजनीति को प्राथमिकता देती है। कौन नहीं जानता है कि सारे दलों के समर्थन की चिठ्ठी मिलने के बावजूद उन्होने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। वे जानती थी कि उनके प्रधानमंत्री बनने पर बीजेपी के नेता बेवजह हंगामा करेंगे। देश पहले हीं अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में देश को दांव पर नहीं लगाया जा सकता और उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। लेकिन श्रीमती गांधी की इस त्याग ने बीजेपी की राजनीति हीं खत्म कर दी। उनके प्रधानमंत्री पद के त्याग और मनमोहन सिंह जी को प्रधानमंत्री बनाने से जहां एक ओर कांग्रेस मजबूत होती गई, वहीं दूसरी ओर बीजेपी कमजोर होती गई।
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी – राहुल गांधी एक ऐसा नाम है जिस पर आप विश्वास कर सकते हैं। मुख्य विरोधी दल बीजेपी के नेता भी राहुल गांधी का विरोध नहीं कर पाते हैं। यह सही है कि राहुल गांधी एक ऐसे परिवार से हैं जिनके लिये प्रचार पाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन मै यहां यही कहना चाहुंगा कि राहुल गांधी ने राजनीति की नई परिभाषा लिखनी शुरू कर दी। उन्होंने नफरत की राजनीति को दूर करते हुए सकारात्मक राजनीति को महत्व दिया। कांग्रेस के नेता सामंतवादी जीनवशाली जीने के लिये जाने जाते हैं। वे गरीबों को सिर्फ वोट के लिये याद करते या अपने लठैतौं से उनके वोट लुटवा लेते थे। लेकिन राहुल गांधी ने वह कर दिखाया जो पिछले हजारों सालों में नहीं हुआ। ब्राहम्णवादी व्यवस्था में समाज के जिस कमजोर अंग को अछुत करार दिया गया राहुल गांधी उनके घर गये। उन्हें गले लगाया। उनके घर रात गुजारे। उनके घर भोजन किये। उन्हें मानसिक ताकत दी। जाति बंधन की गुलामी को तोडने की मनोवैज्ञानिक ताकत दी जो आज तक स्वतंत्र भारत में किसी ने नहीं किया।
इतना हीं नहीं मजूदरों के साथ कंधा मिलाकर मजदूरी की। आप कह सकते हैं कि इन सब चीजों से क्या होगा? हम जानते है कि इन सब चीजों से गरीबों को सीधे कोई तत्काल आर्थिक फायदा नहीं होगा लेकिन उनके कदम से गरीबों में एक सम्मान की भावना जगेगी और उन्हें लगने लगा है कि वे भी स्वतंत्र भारत के हिस्से हैं। यह बहुत बड़ी चीज है। इससे मानसिक गुलामी को तोडने में मदद मिलेगी ।
इससे पहले मैंने कहा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की ईमानदार राजनीति का प्रभाव केंद्रीय राजनीति पर होगा, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति पर नहीं। आप सोच रहे होंगे कि तीनों हीं नेताओं का व्यक्तित्व इतना मजबूत है फिर उनका प्रभाव क्षेत्रीय राजनीति पर क्यों नहीं पड़ेगा? इसका साधारण उत्तर है। क्योकि इन तीनों नेताओं का व्यक्तिव चाहे कितना भी ऊंचा क्यों न हो, लेकिन उनके साथ चलने वाले लोग (कुछ लोगों को छोड़) आज भी ऐसे हैं जो सांमती मानसिकता के हैं। और सामंती मानसिकता वाले लोगों को क्षेत्रीय चुनाव में स्वीकार करना मुश्किल है। क्षेत्रीय चुनाव सीधे जनता को प्रभावित करती है। इसलिये जबतक सांमतवादी मानसिकता वाले लोग अपने आप में सुधार नहीं लाते तबतक देश के एक बड़े हिस्से पर कांग्रेस नेतृत्व का प्रभाव क्षेत्रीय चुनाव पर पड़ना मुश्किल है।
बहरहाल कांग्रेस पार्टी के तीनों हीं नेताओं को सबसे पहले इस ओर ध्यान देना होगा कि देश की आम जनता मंहगाई से त्रस्त है उसपर नियंत्रण करें। विरोधी दलों पर चर्चा अगले हिस्से में।