झारखंड से निर्दलीय राज्य सभा सदस्य परिमल नाथवाणी ने सभी लोगों को नव वर्ष की शुभकामनाएं देते हुए कहा है कि झारखंड देश का आधार है। यहां वो सभी कुछ मौजूद हैं जिसके बल पर राज्य और देश दुनिया में अपना नाम रोशन कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि झारखंड के लोग बेहद मेहनती और तेजस्वी हैं। वे अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति के जागरूक है। वे कभी ऐसा कदम नहीं उठाते जिससे देश को नुकसान हो।
सांसद नाथवाणी ने कहा कि मुझे पूरा विश्वास है कि भारत आर्थिक जगत के क्षेत्र में पूरे विश्व का प्रतिनिधित्व करेगा। और इसमें झारखंड राज्य की अह्म भूमिका होगी। झारखंड में शिक्षा का प्रसार है लेकिन इस क्षेत्र में और तेजी से काम करने की जरूरत है। झारखंड में उच्च शिक्षा का विश्व स्तरीय प्रसार हो इसके लिये श्री नाथवाणी प्रयासरत हैं। उन्होंने राज्य सभा में आईआईटी खोलने से संबंधित सवाल भी उठाये।
श्री नाथवाणी ने कहा कि विश्व की प्रगति के लिए शांति का बना रहना बेहद जरूरी है। ऐसे कोई काम नहीं होने चाहिये जिससे समाज का विभाजन हो।
Wednesday, December 31, 2008
धोनी को दाऊद के नाम पर धमकी, सुरक्षा व्यवस्थी और कड़ी की गई
भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को धमकी दी गई है कि वह 50 लाख का इंतजाम कर ले नहीं तो अच्छा नहीं होगा। तुम्हारे परिवार को मार दिया जायेगा। यह धमकी रांची स्थित उनके घर पत्र भेजकर दी गई है। उन्हें कुल दो पत्र मिले हैं। पहले पत्र में धमकी था तो दसूरे में धमकी के साथ हिदायत थी कि पहले पत्र की धमकी को यू न हीं लें।
धमकी देने वालों ने अपने आपको अंडरवर्लड डॉन दाऊद का आदमी बताया है। इस मामले की झारखंड पुलिस ने छानबीन शुरू कर दी है। महेंद्र सिंह धोनी की सुरक्षा व्यवस्था और मजबूत कर दी गई है। राज्य के उप मुख्यमंत्री ने सुधीर महतो ने कहा है कि धोनी की सुरक्षा व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की जायेगी। धोनी की सुरक्षा में महिला पुलिस को भी लगाया गया है ताकि लडकियां उन्हें बेवजह परेशान न कर सके।
धोनी के परिवार को पहला पत्र 29 दिसंबर को मिला और दूसरा 31 दिसंबर यानी आज मिला। रांची की एस एस पी संपत मीणा ने कहा इस पत्र के पीछे किसी लोकल गुंडा का षडयंत्र मालूम पड़ता है। लेकिन इस मामले को पुलिस ने गंभीरता से लिया है और जल्द हीं किसी नतीजे तक पहुंच जायेंगे। साथ हीं महेंद्र सिंह की धोनी की सुरक्षा व्यवस्था और मजबूत कर दिया गया है
धमकी देने वालों ने अपने आपको अंडरवर्लड डॉन दाऊद का आदमी बताया है। इस मामले की झारखंड पुलिस ने छानबीन शुरू कर दी है। महेंद्र सिंह धोनी की सुरक्षा व्यवस्था और मजबूत कर दी गई है। राज्य के उप मुख्यमंत्री ने सुधीर महतो ने कहा है कि धोनी की सुरक्षा व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की जायेगी। धोनी की सुरक्षा में महिला पुलिस को भी लगाया गया है ताकि लडकियां उन्हें बेवजह परेशान न कर सके।
धोनी के परिवार को पहला पत्र 29 दिसंबर को मिला और दूसरा 31 दिसंबर यानी आज मिला। रांची की एस एस पी संपत मीणा ने कहा इस पत्र के पीछे किसी लोकल गुंडा का षडयंत्र मालूम पड़ता है। लेकिन इस मामले को पुलिस ने गंभीरता से लिया है और जल्द हीं किसी नतीजे तक पहुंच जायेंगे। साथ हीं महेंद्र सिंह की धोनी की सुरक्षा व्यवस्था और मजबूत कर दिया गया है
Sunday, December 28, 2008
तमाड विधान सभा उपचुनाव में शिबू सोरेन पर सबकी नजर
झारखंड के सारे नेताओं ने अपनी अपनी ताकतें झोक दी है तमार विधान सभा के उपचुनाव में। इस उपचुनाव पर झारखंडवासियों की नजरें हैं। कारण यहां से चुनाव लड़ रहे हैं राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन यानी गुरूजी। शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और यूपीए उम्मीदवार हैं। इनका मुख्य मुकाबला जनता दल यूनाईटेड की उम्मीदवार वसुधरा मुंडा से है। और शिबू सोरेन को परेशान किये हुए हैं झारखंड पार्टी के उम्मीदवार राजा पीटर। ऐसे चुनाव मैदान में उम्मीदवारों की कुल संख्या पन्द्रह है।
झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन झारखंड के सबसे अधिक जनाधार वाले नेताओं में से एक हैं लेकिन तमाड में वे घिर गये हैं। उन्हें एक साथ दो मोर्चे पर लड़ाई लडनी पड़ रही है। एक विरोधी दलों से और दूसरा अपने ही खेमे के नेताओं से। विरोधी दल जदयू की उम्मीदवार वंसुधरा मुंडा राजनीति में एकदम नई हैं। इनके पति और जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या के बाद ही उन्हें उम्मीदवार बनाया गया है। रमेश मुंडा तमार से ही विधायक थे। शिबू सोरेन को हराने के लिये बीजेपी और जदयू ने पूरी ताकत लगा दी है। क्षेत्र में वंसुधरा के प्रति सहानुभूति भी है।
शिबू सोरेन के खिलाफ खुद उन्हीं के खेमे के नेता हैं। झारखंड पार्टी के एनोस एक्का( जो श्री सोरेन की सरकार में मंत्री थे,) ने तमाड़ विधान सभा में अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया राजा पीटर को। इसके लिये एनोस एक्का को मंत्री पद भी गवाना पड़ा। कहा जा रहा है कि राजा पीटर यूपीए की झोली में जाने वाली वोट को काट सकते हैं। तमार से पहली बार शिबू सोरेन चुनाव लड़ रहे हैं।
बहरहाल, 29 दिसंबर 2008 की जगह 5 जनवरी 2009 को होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये चुनाव आयोग ने सुरक्षा के तगडे इंतजाम किये हैं। अब देखना है कि शिबू सोरेन चुनाव जीतते हैं या हारते हैं। इसका पता मतगणना के दिन 8 जनवरी को ही पता चल पायेगा। लोक सभा का चुनाव वर्ष 2009 में ही होने हैं। और 2009 का पहला चुनाव तमाड़ विधान सभा का चुनाव है। देखना है ये किसके पाले में जाता है।
झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन झारखंड के सबसे अधिक जनाधार वाले नेताओं में से एक हैं लेकिन तमाड में वे घिर गये हैं। उन्हें एक साथ दो मोर्चे पर लड़ाई लडनी पड़ रही है। एक विरोधी दलों से और दूसरा अपने ही खेमे के नेताओं से। विरोधी दल जदयू की उम्मीदवार वंसुधरा मुंडा राजनीति में एकदम नई हैं। इनके पति और जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या के बाद ही उन्हें उम्मीदवार बनाया गया है। रमेश मुंडा तमार से ही विधायक थे। शिबू सोरेन को हराने के लिये बीजेपी और जदयू ने पूरी ताकत लगा दी है। क्षेत्र में वंसुधरा के प्रति सहानुभूति भी है।
शिबू सोरेन के खिलाफ खुद उन्हीं के खेमे के नेता हैं। झारखंड पार्टी के एनोस एक्का( जो श्री सोरेन की सरकार में मंत्री थे,) ने तमाड़ विधान सभा में अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया राजा पीटर को। इसके लिये एनोस एक्का को मंत्री पद भी गवाना पड़ा। कहा जा रहा है कि राजा पीटर यूपीए की झोली में जाने वाली वोट को काट सकते हैं। तमार से पहली बार शिबू सोरेन चुनाव लड़ रहे हैं।
बहरहाल, 29 दिसंबर 2008 की जगह 5 जनवरी 2009 को होने वाले विधान सभा चुनाव के लिये चुनाव आयोग ने सुरक्षा के तगडे इंतजाम किये हैं। अब देखना है कि शिबू सोरेन चुनाव जीतते हैं या हारते हैं। इसका पता मतगणना के दिन 8 जनवरी को ही पता चल पायेगा। लोक सभा का चुनाव वर्ष 2009 में ही होने हैं। और 2009 का पहला चुनाव तमाड़ विधान सभा का चुनाव है। देखना है ये किसके पाले में जाता है।
Sunday, December 14, 2008
इस तस्वीर को आप जरूर देखें शायद उनकी मदद के लिये एक कदम बढा सके
Friday, December 12, 2008
विकास के नाम पर मूलवासियों को उजाड़ा गया तो झारखंड की स्थिति बेहद विस्फोटक हो सकती है
राजकिशोर महतो (वर्तमान भाजपा विधायक)
दुमका जिले के काठीकुंड में तनाव बना हुआ है। काठीकुंड में पावर प्लांट बनाने के लिये राज्य सरकार जमीन अधिग्रहण करने के लिये वहां के आदिवासियों पर जुल्म ढा रही है। पुलिस अमानवीय व्यवहार कर रही है। पुलिस फायरिंग में टुडू की हत्या हो चुकी है। आश्यचर्य की बात है कि राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन हैं। जो दुमका से ही अभी भी सांसद हैं। श्री सोरेन आदिवासी समुदाय के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। आंदोलन के दौरान जल-जमीन-जंगल की रक्षा का वादा करने वाले श्री सोरेन की पुलिस आदिवासी समुदाय पर जुल्म ढा रही है। सवाल यह है कि यदि विकास के लिये पावर प्लांट लगाये जा रहे हैं तो जिन लोगो की जमीन अधिग्रहण की जा रही है सरकार ने उनके लिये क्या किया?
झारखंड राज्य बनने के बावजूद झारखंड के लोगो के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। नये नये प्रोजेक्ट लगाये जा रहे हैं। बिजली बनाने के नाम पर लोगो को विस्थापित किया जा रहा है। मूलवासियों को गोलियों के बल पर दबाने की कोशिश हो रही है। यदि यही स्थिति बनी रही तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। मूलवासियो को विकास के नाम पर उजाड़ा गया तो स्थिति पहले से अधिक विस्फोटक हो सकती है। झारखंड वासियों का विकास कैसे हो और इसके लिये क्या क्या किया जाना चाहिये। इस ओर विचार करने की जरूरत है। इस बात का उल्लेख राजकिशोर महतो (वर्तमान भाजपा विधायक) ने झारखंड राज्य के गठन के बाद वर्ष 2002 में ही अपनी पुस्तक 'झारखंड आंदोलन क्षेत्रीय एवं सामाजिक आयाम ' में किया है। उसी का एक अंश प्रकाशित कर रहा हूं –
झारखंड का भविष्य -
यह एक तथ्य है कि वर्तमान झारखंड प्रदेश में सबसे ज्यादा उद्योग धंधे लगे हुए हैं। निजी बड़ी कंपनियों के अलावा बडी संख्या में सरकारी उपक्रम हैं। पनबिजली की बड़ी बड़ी परियोजनायें हैं। दर्जनों नदियों को बांधा गया है। झारखंड की नदियों की धार इतनी तेज है कि बिजली पैदा करती है। यह धार गंगा, यमुना आदि नदियों में नही है। झारखंड में ताप विधुत परियोजनाएं हैं। कोयले का अकूत भंडार है। इसके अलावा लोहा, तांबा, अभ्रक, बॉक्साइट, केयोनाइट, ग्रेनाइट, ग्रेफाइट, क्वाटज, चूना पत्थर, संगमरमर यहां तक कि परमाणु शक्ति प्रदान करनेवाला यूरेनियम भी यहीं है। सैकड़ो प्रकार के खनिज पदार्थ हैं। इसके अलावा जंगल हैं पहाड़ है। उपजाऊ जमीन कम है लेकिन है। सैकड़ो खदाने हैं। बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां हैं।
झारखंड के जंगलों, पहाड़ों खनिजों, नदियों का उपयोग उद्योगों के लिये किया गया है। इसके लिये बहुतायत में जमीनें अर्जित की गई हैं। विस्थापन और प्रदूषण झारखंड में चरम सीमा पर है। इन सबके बावजूद यही कहा जाता है कि झारखंड क्षेत्र तो अमीर है, पर यहां के निवासी गरीब और शोषित। औपनिवेशिक शोषण से ये एक ही दिन में नहीं छुट पायेंगे। रोजगार इनके हाथ में नहीं है। सरकारी महकमों में इनकी संख्या नगण्य है। इनकी बड़ी जनसंख्या विस्थापित होकर बेकारों में तब्दील हो चुकी है। ये अशिक्षित हैं। त्रासदी तो यह है कि जहां देश विदेश के लोग झारखंड में रोजगार, नौकरी, व्यवसाय करने पहुंचते हैं, वहीं दूसरी ओर झारखंड के युवा देश के दूसरे हिस्सों में मामूली मजदूरी के लिये पलायन करते हैं।
हम पाते हैं कि झारखंड की भूमि को झारखंडियों से विभिन्न प्रकार से छीना गया। सरकारी जमीनों पर बाहर से आये लोगों ने बंदोबस्त करा लिया है। निजी रैयती जमीन को औने-पौने दाम में खरीदा गया। जबरदस्ती दखल कर लिया गया है। भू-अर्जन अधिनियम का गलत उपयोग करके स्वार्थी तत्वों, सरकारी अफसरों, सरकारी तंत्र मे दबदबा रखने वाले माफियाओं, गुंडों को सस्ते दामों में महय्या करवा दिया गया है। दूसरी ओर भू-अर्जन कर झारखंडियों को विस्थापित कर दिया गया है। उन्हें मुवाअजा तक नहीं दिया जा रहा है। पुनर्वास की कल्पना करना ही बेकार है। छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट तथा संथालपरगना टिनेंसी एक्ट की धज्जियां उड़ी दी गई है। शेड्यूल एरिया रेग्युलेशन, 1969 को ताक पर रख दिया गया है। यहां की जमीनों का सर्वें भी गलत ढंग से करके यहां के कानून के साथ धोखाधडी की गई है।
जंगलो के विनाश से यहां के आदिवासी-मूलवासियों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। झारखंड के जंगलो में औषधि लायक दुर्लभ पेड़-पौधों, फूल-फलों की बहुतायत थी और आज भी है। यहां का समाज जंगल के उत्पादन का बड़े पैमाने पर उपयोग करता आ रहा है। झारखंडियों का जीवन जंगल पर आधारित जीवन रहा है। जंगल से झारखंडियों के पारस्परिक अधिकारों को छीन लिया गया है। अगर आज एक झारखंडी जंगल से सूखी टहनी भी तोड़ता है तो उसे अपराधी करार दिया जाता है। जमीनों की सीचाई के लिये थोड़ी बहुत भी सुविधा नहीं है। नदियों नालों का पानी औद्योगिकीकरण के चलते दूषित-प्रदूषित हो चुका है। परिवहन तथा संचार की सुविधाएं कम हैं यानी नगण्य है।
आदिवासी क्षेत्रों में गांवों में पौष्टिकता का स्तर बहुत कम है। कुपोषम चारो तरफ है। आज भी यहां भूख से मरने की खबर आती रहती है। स्थानीय लोगों की संस्कृति लुप्त हो रही है। इनकी भाषाओं का विकास नहीं हुआ है। ये सारी चीजें उपेक्षित रही हैं। शराब विक्रेता और साहूकार लोगों का शोषण कर रहे हैं। अविभाजित बिहार के कुल राजस्व का इस क्षेत्र से योगदान सत्तर प्रतिशत रहा है। पर इस क्षेत्र के लिये सिर्फ 20 प्रतिशत ही खर्च होता रहा है।
विश्व उदारीकरण की नीति एवं झारखंड पर प्रभाव –
सबसे विशेष बात जो वर्तमान झारखंड प्रदेश में प्रासंगिक है, वह है बहुराष्ट्रीय, बहु-उद्देशीय कंपनियों का भारत में प्रवेश। औद्योगिक उदारीकरण, विश्व व्यापार संगठन, गैट समझौता की नीति के चलते आज देखा जा रहा है कि भारतवर्ष के सभी राजनीतिक दल इन कंपनियों को भारत आने का निमंत्रण दे रहे हैं। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछुता नहीं है। यहां तक कि झारखंड के नवगठित सरकार भी झारखंड को औद्योगिक क्षेत्र बनाना चाहती है। जर्मनी और जापान बनाना चाहती है। अगर विदेशी कंपनियां भारत आती हैं तो निश्चित हीं झारखंड में आना चाहेंगी। क्योंकि कच्चा माल यहीं पर है। उद्योग लगाने के लिये अपार संभावनायें हैं। कोई बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में जाकर आलू, प्याज, चावल की खेती करने नहीं आयेगा। ये कंपनियां आयेंगी भारतवर्ष के झारखंडों में। भारतवर्ष में कोई एक झारखंड नहीं है। कई हैं – जो राज्य कच्चा माल और जंगल झाड़ से पूर्ण है। उफनती नदियां हैं। सीधे साधे सस्ते मजदूर और भोले भाले लोग हैं।
झारखंड आंदोलन के दौरान ही गैट समझौते पर दस्तखत तथा विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था। और नरसिम्हा राव की कांग्रेस की केंद्र सरकार ने इस नीति पर बल देना शुरू ही किया था। 12 अगस्त, 1994 को तत्कालीन गृहमंत्री श्री एस बी चव्हान ने सभी झारखंड नामधारी दलों के नेताओं को बुलाया था और उनसे अलग अलग वार्ता की थी। यह बताने के लिये स्वायत्तशासी परिषद का गठन किया जा रहा है। अब झारखंड आंदोलन की कोई आवश्यकता नही रह गई है। उस दिन राजकिशोर महतो, तत्कालीन सांसद गिरिडीह, को भी बुलाया गया था, झारखंड मुक्ति मोर्चा(मार्ड) की ओर से। श्री कृष्णा मार्डी, झामुमो मार्डी के अध्यक्ष और सांसद दिल्ली में नहीं थे इस लिये उन्हें नहीं बुलाया जा सका। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जल्दबाजी में कुछ किया जा रहा था। राज किशोर महतो जब गृहमंत्री से उनके संसद के दफ्तर में मिले तो वहां उनके साथ गृहमंत्रालय के सचिव और विशेष सचिव भी थे। औपचारिक बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि अभी आपलोगों को परिषद दी जा रही है जिसमें पूरा अधिकार होगा। उन्होंने अपने सचिवो से कहा कि परिषद के ड्राफ्ट की कॉपी इन्हें दी जाये ताकि अगर ये चाहें तो अपना सुझाव दे सकते हैं।
मैने(राजकिशोर महतो) उत्तर दिया सर, आप जानते हैं कि मैं किसी भी प्रकार की परिषद को स्वीकार नहीं करूंगा। और हम इसका विरोध करते आये हैं। ऐसे हालात में हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं। श्री चव्हान ने कहा कि कोई बात नहीं है, सारे राजनीतिक दल, सारे झारखंड नामधारी पार्टियां सहमत हो चुके हैं। सरकार ने भी फैसला कर लिया है। उन्होंने मुझसे सुझाव मांगे। मुझमें उत्सुकता जगी। मैं जानना चाहा कि आखिर क्या अधिकार दिये गये है परिषद में। मैंने उनसे ड्राफ्ट की कॉपी मांगी।
उन्होंने जो मुझे परिषद से संबंधित कॉपी दी उसे देख में काफी आश्चर्यचकित हुआ। ' गोरखा हिल काउंसिल' की कॉपी थमा दी गई। और कहा गया कि इसी आधार पर झाऱखंड काउंसिल बनेगा। साथ हीं बताया गया कि अभी परिषद के प्रारूप को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। गृह मंत्रालय के इस रवैये से मैं झल्ला उठा। उनसे आग्रह किया कि यदि कोई रफ कॉपी भी तैयार की गई हो तो उसे ही उपलब्ध कार दी जाये पर गृह मंत्रालय कोई कॉपी नहीं दे सका।
स्पष्ट था कि परिषद को लेकर कोई प्रारूप ही तैयार नहीं हो सका था। राजकिशोर महतो ने गृहमंत्री को धन्यवाद करते हुए यह कहा कि झारखंड के लोगों को कब इंसान समझा जायेगा। इस प्रकार का मजाक तो सरकारें करते आयी है। इतना कहकर श्री महतो चल पड़े।
इसके चंद दिन बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव अमेरिका यात्रा पर निकले थे, बहुराष्ट्रीय बहुउद्देशीय विदेशी कंपनियों से बातें करने के लिये। 24 सितंबर 1994 को इस परिषद का विरोध झामुमो(मार्डी) ने किया। मानव श्रृखला बनाकर। 26 सितंबर 1994 को झामुमो(सोरेन) के उपाध्यक्ष और गोड्डा से सांसद श्री सूरज मंडल ने दूरदर्शन आदि टीवी चैनलों से घोषणा की कि झारखंड को परिषद मिल चुका है। अब झारखंडियों की चांदी होगी। लेकिन ऐसी सूचना थी कि उस समय तक परिषद का प्रारूप भी तैयार नही हो सका था।
24 दिसंबर 1994 को बिहार विधान सभा में 'झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद ' का विधेयक पारित हुआ। झामुमो(सोरेन) के सांसद श्री सूरज मंडल एवं श्री साइमन मरांडी के बगल में मैं (राजकिशोर महतो) महामंत्री झामुमो (मार्डी), तथा सांसद कृष्णा मार्डी(अध्यक्ष, झामुमो मार्डी) भी बिहार विधान सभा की दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। कृष्णा मार्डा और मेरे हाथ में विधेयक की प्रतियां थी। पर आश्चर्य की बात तब हुई जब श्री सूरज मंडल ने विधेयक की प्रति मुझसे मांगी। और कहा कि उन्होंने अभी तक विधेयक की प्रतियां देखा भी नहीं है। अब अच्छी तरह से समझ में आ जाना चाहिये था कि श्री शिबू सोरेन ने परिषद के प्रारूप को देखा था या नहीं।
खैर, मुख्य विषय है कि विश्व व्यापार संगठन का झारखंड आंदोलन से संबंध। कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि झारखंड अलग राज्य न तो केंद्र सरकार ने दिया और न हीं बिहार सरकार ने। वास्तव में विश्व व्यापार संगठन और अमेरिका का इसमें बहुत बड़ा हाथ दिखाई देता है। जब बिहार विधान सभा में बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक, 2000 पारित हुआ एवं जब यह विधेयक संसद में पेश हो रहा था उसी समय अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री बिल क्लिंटन भारत पधारे थे। और इसके चार दिन बाद वाणिज्य मंत्री श्री मुरासोलीन मारण जी की विदेश नीति अखबारों में पढने को मिली, जिसमें सैकड़ो प्राकर की सामानों की आयात की बात भारत में की गई थी।
खैर अब जो हो। अगर झारखंड में उद्योग धंधों का जाल बिछा, बड़ी बड़ी कंपनियां विदेशों से आई एवं तथाकथित विकास की दरें तेज हुई तो झारखंड में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसपर थोड़ा विचार करना चाहिये। अभी तक बिहार सरकार(अविभाजित) निम्नलिखित पैरामीटरों पर काम करती रही है – 1. कृषि उत्पादन 2.सिंचाई 3.भंडारण क्षमता (गोदाम )4.ग्रामीण विद्युतीकरण 5.बैंक शाखाएं 6.शिक्षा 7.स्वास्थ्य सेवाएं 8.सड़क निर्माण एवं 9.जनसंख्या। इन पैरामीटरो की विवेचना यहां पर अप्रसांगिक होगी। पर एक अहम सवाल यह है कि ये पैरामीटर अविभाजित बिहार सरकार के थे जो पूरे बिहार के लिये था। नए झारखंड का सामाजिक-सांस्कृतुक आयाम बिहार से बिल्कुल अलग है। इसकी भौगोलिक स्थिति और जमीन का प्रकार भी बिल्कुल अलग है। यहां का वातावरण और प्राकृतिक परिवेश भी अलग है। तो क्या उन्हीं पैरामीटरो से झारखंड का काम चल सकेगा ? या कुछ नये पैरामीटर बनाने होंगे। विकास की दर को मापने का नये पैरामीटर बनाने होंगे और झारखंडियों के विकास को इन नये पैरामीटरों के जरिये ही मापना होगा।
हमे याद रखना चाहिये कि झारखंड क्षेत्र के लिये पहले से हीं छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट या छोटानागपुर काश्तकारी अधिनिय़म 1908 से ही बना हुआ है। उसी प्रकार संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम बना हुआ है। इसके अलावा विलकिंसन रूल आदि हैं। शेड्यूल एरिया रेग्यूलेशन है। यानी इस क्षेत्र की विशिष्ट सामाजिक एवं क्षेत्रीय परिस्थिति को देखते हुए ये अलग प्रकार के जमीन संबंधी अधिनियम बनाये गये थे। ये अधिनियम बिहार सरकार के समय भी झारखंड क्षेत्र में लागू थे। और बंगाल सरकार के समय भी – यह क्षेत्र बंगाल, बिहार, उडीसा की सीमा के अंदर था, तब भी। पर झारखंडियों का विकास कितना हुआ सभी जानते हैं।
हम विकास का साधारण अर्थ इसी बात से लगाने लग गए हैं कि किसी क्षेत्र में कितनी सड़के बन गई। कितनी रेल लाइने बिछ गई। कितने उद्योग धंधे लगे। कितने बांध बनाकर बिजली पैदी की गई। कितने खदान खोदे गए एवं कितनी परियोजनाएं लगाई गई। विकास का अर्थ एक माने में यह भी है, पर जो विचारणीय बात है वह यह है कि इनसे उस क्षेत्र विशेष पर क्या प्रभाव पड़ा? क्या वहां के मूल नि वासियों, स्थानीय आवाम को इससे फायदा पहुंचा? या इससे उनका नुकसान हुआ ? क्या इससे उनकी जीवन शैली बदली ?
अगर झारखंड में तेजी से औद्योंगिकीरण की शुरूवात की गई और विकास की गति को तेज कर दिया गया तो झारखंड पर, यानी जिनके आंदोलन के चलते झारखंड राज्य बना उनके जीवन पर, इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? इस पर चर्चा प्रासंगिक होगी। पहली बात तो यह है कि आज की तारीख में भी झारखंड में जितने उद्योग-धंदे लगे हैं, जितनी योजनाएँ, परियोजनाएँ हैं, भारतवर्ष के कुछ ही क्षेत्रों में होंगे। पर इन सब के बावजूद झारखंडियों का विकास नहीं हो सका। उलटा विनाश ही हुआ है। अगर नए राज्य में भी इन उद्योग-धंधों तथा परियोजनाओं का लाभ झारखंडियों का लाभ झारखंडियों को नहीं मिल सकता तो इससे बडी त्रासदी और क्या ह सकती है ?
जाहिर है कि झारखंड के लोग अशिक्षित हैं। उच्च शिक्षा की कमी है। हालाँकि झारखंड क्षेत्र में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा मुहय्या कराने के लिए बहुत से संस्थान है, पर इनमें झारखंडियों के बच्चे बहुत कम हैं। अपनी गरीबी के चलते यहाँ के मूलवासी इंजिनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों, माइनिंग कॉलेजों तथा उच्च शिक्षा के लिए खुले संस्थानों मे अपने बच्चों को पढाने के लिए सोच भी नहीं सकता। अब ऐसे क्या उपाय किए जाने चाहिए कि जिससे यह समस्या दूर हो ?
पूँजी तथा अनुभव की कमी के चलते झारखंड के लग बडें व्यवसायों, बडी ठीकेदारी आदि को विषय में भी बिलकुल पीछे हैं। अगर झारखंड में बडीं विदेशी, बहु-उद्देशीय कंपनियाँ आएँगी तो एक भी ठीका या व्यवसाय झारखंडी नहीं कर पाएँगे। फिर बाहर से पूँजीपतियों को जुटाना होगा और झारखंडी सिर्फ मजदूरी करते ही नजर आएँगे। इन नई कंपनियों, संस्थानों में इन्हें अशिक्षा के चलते कोई प्रशासनिक या बडा पद, ऊँचा स्थान नहीं मिल पाएगा।
झारखंड में जमीनें ली गई हैं। और भी ली जाएँगी, अधिग्रहीत की जाएँगी। झारखंडी विस्थापित हुए हैं। भविष्य में और भी विस्थापित होंगे। उनके खेतों की उपज पानी और वायु के प्रदूषण से खत्म हो गई है। पानी का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। विस्थापितों का मुआवजा पचास वर्षों से भुगतान नहीं किया गया हैं। पुनर्वास बिलकुल नहीं है। विश्व व्यापार, उदारीकरण की नीति से झारखंडियों को अपना विनाश दिखाई दे रहा है। विकास की गति ज्यों ज्यों तेज होती जायेगी, झारखंडी पीछे छुटते जायेंगे। अब इस विकास का फायदा झारखंडी उठा सकें, कुछ ऐसी नीति तो सरकार को बनाने हीं होगी। नए पैरामीटरों की खोज करनी पड़ेगी। नए पैमाने बनाने होंगे, ताकि झारखंडियों का विकास हो सके। झारखंड को दूसरे राज्यों की तरह उसी नजरीये से देखना गलता होगा। यहां कुछ विशेष व्यवस्था करनी होगी। इसके लिये अगर भारतवर्ष के संविधान को संशोधन करना पड़े तो करना होगा। भारतवर्ष के कई राज्य़ों जैसे –नागालैंड, आंध्र प्रदेश, मणीपुर, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, तमिलनाडू और गोवा की तरह ही संविधान अनुच्छेद 371 में संशोधन करके झारखंड राज्य के लिये विशेष व्यवस्था करनी होगी। झारखंडियों की परिभाषा बनानी होगी। झारखंड के मूलवासियों, टोटेमिस्टिक जनजातियों तथा अन्य़ समुहो को चिन्हित करना होगा। इसके लिये पहले ही डेटम लाइन मौजूद है।
सबसे उचित होगा सन् 1931-35 के सर्वे –खतियान को आधार बनाना। पूरे झारखंड क्षेत्र में जमीन का सर्वे इन्हीं वर्षों में कराया गया था। और अभी हाल में बिहार सरकार द्वारा कराया गया है जो पूर नहीं हुआ है। इसके अलावा 1931 में जातीय सर्वे भी अंग्रेजो के द्वारा कराया गया था। उसी जातीय सर्वे(एंथ्रोपोलॉजकल सर्वे) भी अंग्रेजों के द्वारा कराया गया था। उसी जातीय सर्वे के आधार पर भारतवर्ष में हरिजन आदिवासी यानी शेड्यूल कास्ट तथा शेड्यूल ट्राइब की अवधारणाएं पैदा की गई है। सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों का भी वर्गीकरण किया गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार द्वारा परिभाषित एवं चिन्हित जातियों के वर्गीकरण को स्वीकार किया है तथा उसी आधार पर आरक्षण के सिद्वांत बनाये गये। उसी प्रकार जमीन के सर्वे को माना है। अत: झारखंड के मूल वासियों की पहचान उन्ही व्यक्तियों को दी जानी चाहिये जिनके बाप दादो का नाम सन् 1931-35 के सर्वे खितयान(रिकार्ड ऑफ राइट) में दर्ज है तथा जातीय वर्गीकरण भी सन् 1931 के एंथ्रोपोलॉजिक सर्वे के आधार पर किया जाना चाहिये।
यह जिम्मेदारी झारखंड सरकार के साथ साथ केंद्र सरकार की भी है। हमने यहां झारखंड आंदोलन के सामाजिक एवं क्षेत्रीय आयाम पर थोड़ा प्रकाश डाला है। झारखंड के भोले भाले, थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले लोग विकास की दौड़ में किस स्थान पर रहेंगे, इसका फैसला तो करना हीं पड़ेगा। अगर नया राज्य बनने के बाद भी विपरीत परिणाम हुए तो निश्चय हीं झारखंड के जंगलो में आग लगेगी। विस्फोटक स्थिति पैदा होगी। झारखंडियो का आक्रोश उग्र हो उठेगा। और तब जो स्थिति पैदा होगी वह आजतक के हिंसा से अधिक उग्र होगी। भंयकर होगी। अत: सूझबूझ के साथ झारखंड के लोगों के विकास की बात करनी होगी, ताकि वहां एक सामाजिक-आर्थिक संतुलन कायम हो सके। झारखंड भी विकास की दौड़ में आगे आ सके।
दुमका जिले के काठीकुंड में तनाव बना हुआ है। काठीकुंड में पावर प्लांट बनाने के लिये राज्य सरकार जमीन अधिग्रहण करने के लिये वहां के आदिवासियों पर जुल्म ढा रही है। पुलिस अमानवीय व्यवहार कर रही है। पुलिस फायरिंग में टुडू की हत्या हो चुकी है। आश्यचर्य की बात है कि राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन हैं। जो दुमका से ही अभी भी सांसद हैं। श्री सोरेन आदिवासी समुदाय के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। आंदोलन के दौरान जल-जमीन-जंगल की रक्षा का वादा करने वाले श्री सोरेन की पुलिस आदिवासी समुदाय पर जुल्म ढा रही है। सवाल यह है कि यदि विकास के लिये पावर प्लांट लगाये जा रहे हैं तो जिन लोगो की जमीन अधिग्रहण की जा रही है सरकार ने उनके लिये क्या किया?
झारखंड राज्य बनने के बावजूद झारखंड के लोगो के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। नये नये प्रोजेक्ट लगाये जा रहे हैं। बिजली बनाने के नाम पर लोगो को विस्थापित किया जा रहा है। मूलवासियों को गोलियों के बल पर दबाने की कोशिश हो रही है। यदि यही स्थिति बनी रही तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। मूलवासियो को विकास के नाम पर उजाड़ा गया तो स्थिति पहले से अधिक विस्फोटक हो सकती है। झारखंड वासियों का विकास कैसे हो और इसके लिये क्या क्या किया जाना चाहिये। इस ओर विचार करने की जरूरत है। इस बात का उल्लेख राजकिशोर महतो (वर्तमान भाजपा विधायक) ने झारखंड राज्य के गठन के बाद वर्ष 2002 में ही अपनी पुस्तक 'झारखंड आंदोलन क्षेत्रीय एवं सामाजिक आयाम ' में किया है। उसी का एक अंश प्रकाशित कर रहा हूं –
झारखंड का भविष्य -
यह एक तथ्य है कि वर्तमान झारखंड प्रदेश में सबसे ज्यादा उद्योग धंधे लगे हुए हैं। निजी बड़ी कंपनियों के अलावा बडी संख्या में सरकारी उपक्रम हैं। पनबिजली की बड़ी बड़ी परियोजनायें हैं। दर्जनों नदियों को बांधा गया है। झारखंड की नदियों की धार इतनी तेज है कि बिजली पैदा करती है। यह धार गंगा, यमुना आदि नदियों में नही है। झारखंड में ताप विधुत परियोजनाएं हैं। कोयले का अकूत भंडार है। इसके अलावा लोहा, तांबा, अभ्रक, बॉक्साइट, केयोनाइट, ग्रेनाइट, ग्रेफाइट, क्वाटज, चूना पत्थर, संगमरमर यहां तक कि परमाणु शक्ति प्रदान करनेवाला यूरेनियम भी यहीं है। सैकड़ो प्रकार के खनिज पदार्थ हैं। इसके अलावा जंगल हैं पहाड़ है। उपजाऊ जमीन कम है लेकिन है। सैकड़ो खदाने हैं। बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां हैं।
झारखंड के जंगलों, पहाड़ों खनिजों, नदियों का उपयोग उद्योगों के लिये किया गया है। इसके लिये बहुतायत में जमीनें अर्जित की गई हैं। विस्थापन और प्रदूषण झारखंड में चरम सीमा पर है। इन सबके बावजूद यही कहा जाता है कि झारखंड क्षेत्र तो अमीर है, पर यहां के निवासी गरीब और शोषित। औपनिवेशिक शोषण से ये एक ही दिन में नहीं छुट पायेंगे। रोजगार इनके हाथ में नहीं है। सरकारी महकमों में इनकी संख्या नगण्य है। इनकी बड़ी जनसंख्या विस्थापित होकर बेकारों में तब्दील हो चुकी है। ये अशिक्षित हैं। त्रासदी तो यह है कि जहां देश विदेश के लोग झारखंड में रोजगार, नौकरी, व्यवसाय करने पहुंचते हैं, वहीं दूसरी ओर झारखंड के युवा देश के दूसरे हिस्सों में मामूली मजदूरी के लिये पलायन करते हैं।
हम पाते हैं कि झारखंड की भूमि को झारखंडियों से विभिन्न प्रकार से छीना गया। सरकारी जमीनों पर बाहर से आये लोगों ने बंदोबस्त करा लिया है। निजी रैयती जमीन को औने-पौने दाम में खरीदा गया। जबरदस्ती दखल कर लिया गया है। भू-अर्जन अधिनियम का गलत उपयोग करके स्वार्थी तत्वों, सरकारी अफसरों, सरकारी तंत्र मे दबदबा रखने वाले माफियाओं, गुंडों को सस्ते दामों में महय्या करवा दिया गया है। दूसरी ओर भू-अर्जन कर झारखंडियों को विस्थापित कर दिया गया है। उन्हें मुवाअजा तक नहीं दिया जा रहा है। पुनर्वास की कल्पना करना ही बेकार है। छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट तथा संथालपरगना टिनेंसी एक्ट की धज्जियां उड़ी दी गई है। शेड्यूल एरिया रेग्युलेशन, 1969 को ताक पर रख दिया गया है। यहां की जमीनों का सर्वें भी गलत ढंग से करके यहां के कानून के साथ धोखाधडी की गई है।
जंगलो के विनाश से यहां के आदिवासी-मूलवासियों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। झारखंड के जंगलो में औषधि लायक दुर्लभ पेड़-पौधों, फूल-फलों की बहुतायत थी और आज भी है। यहां का समाज जंगल के उत्पादन का बड़े पैमाने पर उपयोग करता आ रहा है। झारखंडियों का जीवन जंगल पर आधारित जीवन रहा है। जंगल से झारखंडियों के पारस्परिक अधिकारों को छीन लिया गया है। अगर आज एक झारखंडी जंगल से सूखी टहनी भी तोड़ता है तो उसे अपराधी करार दिया जाता है। जमीनों की सीचाई के लिये थोड़ी बहुत भी सुविधा नहीं है। नदियों नालों का पानी औद्योगिकीकरण के चलते दूषित-प्रदूषित हो चुका है। परिवहन तथा संचार की सुविधाएं कम हैं यानी नगण्य है।
आदिवासी क्षेत्रों में गांवों में पौष्टिकता का स्तर बहुत कम है। कुपोषम चारो तरफ है। आज भी यहां भूख से मरने की खबर आती रहती है। स्थानीय लोगों की संस्कृति लुप्त हो रही है। इनकी भाषाओं का विकास नहीं हुआ है। ये सारी चीजें उपेक्षित रही हैं। शराब विक्रेता और साहूकार लोगों का शोषण कर रहे हैं। अविभाजित बिहार के कुल राजस्व का इस क्षेत्र से योगदान सत्तर प्रतिशत रहा है। पर इस क्षेत्र के लिये सिर्फ 20 प्रतिशत ही खर्च होता रहा है।
विश्व उदारीकरण की नीति एवं झारखंड पर प्रभाव –
सबसे विशेष बात जो वर्तमान झारखंड प्रदेश में प्रासंगिक है, वह है बहुराष्ट्रीय, बहु-उद्देशीय कंपनियों का भारत में प्रवेश। औद्योगिक उदारीकरण, विश्व व्यापार संगठन, गैट समझौता की नीति के चलते आज देखा जा रहा है कि भारतवर्ष के सभी राजनीतिक दल इन कंपनियों को भारत आने का निमंत्रण दे रहे हैं। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछुता नहीं है। यहां तक कि झारखंड के नवगठित सरकार भी झारखंड को औद्योगिक क्षेत्र बनाना चाहती है। जर्मनी और जापान बनाना चाहती है। अगर विदेशी कंपनियां भारत आती हैं तो निश्चित हीं झारखंड में आना चाहेंगी। क्योंकि कच्चा माल यहीं पर है। उद्योग लगाने के लिये अपार संभावनायें हैं। कोई बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में जाकर आलू, प्याज, चावल की खेती करने नहीं आयेगा। ये कंपनियां आयेंगी भारतवर्ष के झारखंडों में। भारतवर्ष में कोई एक झारखंड नहीं है। कई हैं – जो राज्य कच्चा माल और जंगल झाड़ से पूर्ण है। उफनती नदियां हैं। सीधे साधे सस्ते मजदूर और भोले भाले लोग हैं।
झारखंड आंदोलन के दौरान ही गैट समझौते पर दस्तखत तथा विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था। और नरसिम्हा राव की कांग्रेस की केंद्र सरकार ने इस नीति पर बल देना शुरू ही किया था। 12 अगस्त, 1994 को तत्कालीन गृहमंत्री श्री एस बी चव्हान ने सभी झारखंड नामधारी दलों के नेताओं को बुलाया था और उनसे अलग अलग वार्ता की थी। यह बताने के लिये स्वायत्तशासी परिषद का गठन किया जा रहा है। अब झारखंड आंदोलन की कोई आवश्यकता नही रह गई है। उस दिन राजकिशोर महतो, तत्कालीन सांसद गिरिडीह, को भी बुलाया गया था, झारखंड मुक्ति मोर्चा(मार्ड) की ओर से। श्री कृष्णा मार्डी, झामुमो मार्डी के अध्यक्ष और सांसद दिल्ली में नहीं थे इस लिये उन्हें नहीं बुलाया जा सका। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जल्दबाजी में कुछ किया जा रहा था। राज किशोर महतो जब गृहमंत्री से उनके संसद के दफ्तर में मिले तो वहां उनके साथ गृहमंत्रालय के सचिव और विशेष सचिव भी थे। औपचारिक बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि अभी आपलोगों को परिषद दी जा रही है जिसमें पूरा अधिकार होगा। उन्होंने अपने सचिवो से कहा कि परिषद के ड्राफ्ट की कॉपी इन्हें दी जाये ताकि अगर ये चाहें तो अपना सुझाव दे सकते हैं।
मैने(राजकिशोर महतो) उत्तर दिया सर, आप जानते हैं कि मैं किसी भी प्रकार की परिषद को स्वीकार नहीं करूंगा। और हम इसका विरोध करते आये हैं। ऐसे हालात में हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं। श्री चव्हान ने कहा कि कोई बात नहीं है, सारे राजनीतिक दल, सारे झारखंड नामधारी पार्टियां सहमत हो चुके हैं। सरकार ने भी फैसला कर लिया है। उन्होंने मुझसे सुझाव मांगे। मुझमें उत्सुकता जगी। मैं जानना चाहा कि आखिर क्या अधिकार दिये गये है परिषद में। मैंने उनसे ड्राफ्ट की कॉपी मांगी।
उन्होंने जो मुझे परिषद से संबंधित कॉपी दी उसे देख में काफी आश्चर्यचकित हुआ। ' गोरखा हिल काउंसिल' की कॉपी थमा दी गई। और कहा गया कि इसी आधार पर झाऱखंड काउंसिल बनेगा। साथ हीं बताया गया कि अभी परिषद के प्रारूप को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। गृह मंत्रालय के इस रवैये से मैं झल्ला उठा। उनसे आग्रह किया कि यदि कोई रफ कॉपी भी तैयार की गई हो तो उसे ही उपलब्ध कार दी जाये पर गृह मंत्रालय कोई कॉपी नहीं दे सका।
स्पष्ट था कि परिषद को लेकर कोई प्रारूप ही तैयार नहीं हो सका था। राजकिशोर महतो ने गृहमंत्री को धन्यवाद करते हुए यह कहा कि झारखंड के लोगों को कब इंसान समझा जायेगा। इस प्रकार का मजाक तो सरकारें करते आयी है। इतना कहकर श्री महतो चल पड़े।
इसके चंद दिन बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव अमेरिका यात्रा पर निकले थे, बहुराष्ट्रीय बहुउद्देशीय विदेशी कंपनियों से बातें करने के लिये। 24 सितंबर 1994 को इस परिषद का विरोध झामुमो(मार्डी) ने किया। मानव श्रृखला बनाकर। 26 सितंबर 1994 को झामुमो(सोरेन) के उपाध्यक्ष और गोड्डा से सांसद श्री सूरज मंडल ने दूरदर्शन आदि टीवी चैनलों से घोषणा की कि झारखंड को परिषद मिल चुका है। अब झारखंडियों की चांदी होगी। लेकिन ऐसी सूचना थी कि उस समय तक परिषद का प्रारूप भी तैयार नही हो सका था।
24 दिसंबर 1994 को बिहार विधान सभा में 'झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद ' का विधेयक पारित हुआ। झामुमो(सोरेन) के सांसद श्री सूरज मंडल एवं श्री साइमन मरांडी के बगल में मैं (राजकिशोर महतो) महामंत्री झामुमो (मार्डी), तथा सांसद कृष्णा मार्डी(अध्यक्ष, झामुमो मार्डी) भी बिहार विधान सभा की दर्शक दीर्घा में उपस्थित थे। कृष्णा मार्डा और मेरे हाथ में विधेयक की प्रतियां थी। पर आश्चर्य की बात तब हुई जब श्री सूरज मंडल ने विधेयक की प्रति मुझसे मांगी। और कहा कि उन्होंने अभी तक विधेयक की प्रतियां देखा भी नहीं है। अब अच्छी तरह से समझ में आ जाना चाहिये था कि श्री शिबू सोरेन ने परिषद के प्रारूप को देखा था या नहीं।
खैर, मुख्य विषय है कि विश्व व्यापार संगठन का झारखंड आंदोलन से संबंध। कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि झारखंड अलग राज्य न तो केंद्र सरकार ने दिया और न हीं बिहार सरकार ने। वास्तव में विश्व व्यापार संगठन और अमेरिका का इसमें बहुत बड़ा हाथ दिखाई देता है। जब बिहार विधान सभा में बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक, 2000 पारित हुआ एवं जब यह विधेयक संसद में पेश हो रहा था उसी समय अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री बिल क्लिंटन भारत पधारे थे। और इसके चार दिन बाद वाणिज्य मंत्री श्री मुरासोलीन मारण जी की विदेश नीति अखबारों में पढने को मिली, जिसमें सैकड़ो प्राकर की सामानों की आयात की बात भारत में की गई थी।
खैर अब जो हो। अगर झारखंड में उद्योग धंधों का जाल बिछा, बड़ी बड़ी कंपनियां विदेशों से आई एवं तथाकथित विकास की दरें तेज हुई तो झारखंड में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसपर थोड़ा विचार करना चाहिये। अभी तक बिहार सरकार(अविभाजित) निम्नलिखित पैरामीटरों पर काम करती रही है – 1. कृषि उत्पादन 2.सिंचाई 3.भंडारण क्षमता (गोदाम )4.ग्रामीण विद्युतीकरण 5.बैंक शाखाएं 6.शिक्षा 7.स्वास्थ्य सेवाएं 8.सड़क निर्माण एवं 9.जनसंख्या। इन पैरामीटरो की विवेचना यहां पर अप्रसांगिक होगी। पर एक अहम सवाल यह है कि ये पैरामीटर अविभाजित बिहार सरकार के थे जो पूरे बिहार के लिये था। नए झारखंड का सामाजिक-सांस्कृतुक आयाम बिहार से बिल्कुल अलग है। इसकी भौगोलिक स्थिति और जमीन का प्रकार भी बिल्कुल अलग है। यहां का वातावरण और प्राकृतिक परिवेश भी अलग है। तो क्या उन्हीं पैरामीटरो से झारखंड का काम चल सकेगा ? या कुछ नये पैरामीटर बनाने होंगे। विकास की दर को मापने का नये पैरामीटर बनाने होंगे और झारखंडियों के विकास को इन नये पैरामीटरों के जरिये ही मापना होगा।
हमे याद रखना चाहिये कि झारखंड क्षेत्र के लिये पहले से हीं छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट या छोटानागपुर काश्तकारी अधिनिय़म 1908 से ही बना हुआ है। उसी प्रकार संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम बना हुआ है। इसके अलावा विलकिंसन रूल आदि हैं। शेड्यूल एरिया रेग्यूलेशन है। यानी इस क्षेत्र की विशिष्ट सामाजिक एवं क्षेत्रीय परिस्थिति को देखते हुए ये अलग प्रकार के जमीन संबंधी अधिनियम बनाये गये थे। ये अधिनियम बिहार सरकार के समय भी झारखंड क्षेत्र में लागू थे। और बंगाल सरकार के समय भी – यह क्षेत्र बंगाल, बिहार, उडीसा की सीमा के अंदर था, तब भी। पर झारखंडियों का विकास कितना हुआ सभी जानते हैं।
हम विकास का साधारण अर्थ इसी बात से लगाने लग गए हैं कि किसी क्षेत्र में कितनी सड़के बन गई। कितनी रेल लाइने बिछ गई। कितने उद्योग धंधे लगे। कितने बांध बनाकर बिजली पैदी की गई। कितने खदान खोदे गए एवं कितनी परियोजनाएं लगाई गई। विकास का अर्थ एक माने में यह भी है, पर जो विचारणीय बात है वह यह है कि इनसे उस क्षेत्र विशेष पर क्या प्रभाव पड़ा? क्या वहां के मूल नि वासियों, स्थानीय आवाम को इससे फायदा पहुंचा? या इससे उनका नुकसान हुआ ? क्या इससे उनकी जीवन शैली बदली ?
अगर झारखंड में तेजी से औद्योंगिकीरण की शुरूवात की गई और विकास की गति को तेज कर दिया गया तो झारखंड पर, यानी जिनके आंदोलन के चलते झारखंड राज्य बना उनके जीवन पर, इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? इस पर चर्चा प्रासंगिक होगी। पहली बात तो यह है कि आज की तारीख में भी झारखंड में जितने उद्योग-धंदे लगे हैं, जितनी योजनाएँ, परियोजनाएँ हैं, भारतवर्ष के कुछ ही क्षेत्रों में होंगे। पर इन सब के बावजूद झारखंडियों का विकास नहीं हो सका। उलटा विनाश ही हुआ है। अगर नए राज्य में भी इन उद्योग-धंधों तथा परियोजनाओं का लाभ झारखंडियों का लाभ झारखंडियों को नहीं मिल सकता तो इससे बडी त्रासदी और क्या ह सकती है ?
जाहिर है कि झारखंड के लोग अशिक्षित हैं। उच्च शिक्षा की कमी है। हालाँकि झारखंड क्षेत्र में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा मुहय्या कराने के लिए बहुत से संस्थान है, पर इनमें झारखंडियों के बच्चे बहुत कम हैं। अपनी गरीबी के चलते यहाँ के मूलवासी इंजिनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों, माइनिंग कॉलेजों तथा उच्च शिक्षा के लिए खुले संस्थानों मे अपने बच्चों को पढाने के लिए सोच भी नहीं सकता। अब ऐसे क्या उपाय किए जाने चाहिए कि जिससे यह समस्या दूर हो ?
पूँजी तथा अनुभव की कमी के चलते झारखंड के लग बडें व्यवसायों, बडी ठीकेदारी आदि को विषय में भी बिलकुल पीछे हैं। अगर झारखंड में बडीं विदेशी, बहु-उद्देशीय कंपनियाँ आएँगी तो एक भी ठीका या व्यवसाय झारखंडी नहीं कर पाएँगे। फिर बाहर से पूँजीपतियों को जुटाना होगा और झारखंडी सिर्फ मजदूरी करते ही नजर आएँगे। इन नई कंपनियों, संस्थानों में इन्हें अशिक्षा के चलते कोई प्रशासनिक या बडा पद, ऊँचा स्थान नहीं मिल पाएगा।
झारखंड में जमीनें ली गई हैं। और भी ली जाएँगी, अधिग्रहीत की जाएँगी। झारखंडी विस्थापित हुए हैं। भविष्य में और भी विस्थापित होंगे। उनके खेतों की उपज पानी और वायु के प्रदूषण से खत्म हो गई है। पानी का स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। विस्थापितों का मुआवजा पचास वर्षों से भुगतान नहीं किया गया हैं। पुनर्वास बिलकुल नहीं है। विश्व व्यापार, उदारीकरण की नीति से झारखंडियों को अपना विनाश दिखाई दे रहा है। विकास की गति ज्यों ज्यों तेज होती जायेगी, झारखंडी पीछे छुटते जायेंगे। अब इस विकास का फायदा झारखंडी उठा सकें, कुछ ऐसी नीति तो सरकार को बनाने हीं होगी। नए पैरामीटरों की खोज करनी पड़ेगी। नए पैमाने बनाने होंगे, ताकि झारखंडियों का विकास हो सके। झारखंड को दूसरे राज्यों की तरह उसी नजरीये से देखना गलता होगा। यहां कुछ विशेष व्यवस्था करनी होगी। इसके लिये अगर भारतवर्ष के संविधान को संशोधन करना पड़े तो करना होगा। भारतवर्ष के कई राज्य़ों जैसे –नागालैंड, आंध्र प्रदेश, मणीपुर, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, तमिलनाडू और गोवा की तरह ही संविधान अनुच्छेद 371 में संशोधन करके झारखंड राज्य के लिये विशेष व्यवस्था करनी होगी। झारखंडियों की परिभाषा बनानी होगी। झारखंड के मूलवासियों, टोटेमिस्टिक जनजातियों तथा अन्य़ समुहो को चिन्हित करना होगा। इसके लिये पहले ही डेटम लाइन मौजूद है।
सबसे उचित होगा सन् 1931-35 के सर्वे –खतियान को आधार बनाना। पूरे झारखंड क्षेत्र में जमीन का सर्वे इन्हीं वर्षों में कराया गया था। और अभी हाल में बिहार सरकार द्वारा कराया गया है जो पूर नहीं हुआ है। इसके अलावा 1931 में जातीय सर्वे भी अंग्रेजो के द्वारा कराया गया था। उसी जातीय सर्वे(एंथ्रोपोलॉजकल सर्वे) भी अंग्रेजों के द्वारा कराया गया था। उसी जातीय सर्वे के आधार पर भारतवर्ष में हरिजन आदिवासी यानी शेड्यूल कास्ट तथा शेड्यूल ट्राइब की अवधारणाएं पैदा की गई है। सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों का भी वर्गीकरण किया गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार द्वारा परिभाषित एवं चिन्हित जातियों के वर्गीकरण को स्वीकार किया है तथा उसी आधार पर आरक्षण के सिद्वांत बनाये गये। उसी प्रकार जमीन के सर्वे को माना है। अत: झारखंड के मूल वासियों की पहचान उन्ही व्यक्तियों को दी जानी चाहिये जिनके बाप दादो का नाम सन् 1931-35 के सर्वे खितयान(रिकार्ड ऑफ राइट) में दर्ज है तथा जातीय वर्गीकरण भी सन् 1931 के एंथ्रोपोलॉजिक सर्वे के आधार पर किया जाना चाहिये।
यह जिम्मेदारी झारखंड सरकार के साथ साथ केंद्र सरकार की भी है। हमने यहां झारखंड आंदोलन के सामाजिक एवं क्षेत्रीय आयाम पर थोड़ा प्रकाश डाला है। झारखंड के भोले भाले, थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले लोग विकास की दौड़ में किस स्थान पर रहेंगे, इसका फैसला तो करना हीं पड़ेगा। अगर नया राज्य बनने के बाद भी विपरीत परिणाम हुए तो निश्चय हीं झारखंड के जंगलो में आग लगेगी। विस्फोटक स्थिति पैदा होगी। झारखंडियो का आक्रोश उग्र हो उठेगा। और तब जो स्थिति पैदा होगी वह आजतक के हिंसा से अधिक उग्र होगी। भंयकर होगी। अत: सूझबूझ के साथ झारखंड के लोगों के विकास की बात करनी होगी, ताकि वहां एक सामाजिक-आर्थिक संतुलन कायम हो सके। झारखंड भी विकास की दौड़ में आगे आ सके।
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